हिमाचल प्रदेश के पहाड़ी क्षेत्र में धर्मशाला स्थित है। वर्ष 1959 में दलाई लामा गुट का विद्रोह विफल हो जाने के बाद वह धर्मशाला भाग आया, जिसके बाद भारत सरकार ने उसे वहीं शरण दे दी। इस तरह धर्मशाला बहुत से तिब्बतियों की कल्पना में"स्वर्ग उद्यान"बन गया। क्या वास्तविक स्थिति ऐसी ही है?क्या धर्मशाला जाने वाले तिब्बतियों का जीवन हमारी कल्पना के समान अच्छा है?कुछ दिन पहले नई दिल्ली स्थित हमारे संवाददादा ने धर्मशाला की यात्रा की और करीब से वहां रहने वाले तिब्बतियों का हाल जाना और बातचीत की।
धर्मशाला दो भागों में बंटा हुआ है। नीचले भाग का नाम कोतवाली बाज़ार है, जिसकी ऊंचाई समुद्र तल से 1250 मीटर है, जहां मुख्य तौर पर भारतीय नागरिक रहते हैं। ऊपरी भाग पहाड़ की चोटी पर स्थित है, जिसकी ऊंचाई समुद्र तल से 1800 मीटर है, जो एक निर्वासित तिब्बती बहुल क्षेत्र हैं। उनकी जनसंख्या दस हज़ार के आसपास है। हर वर्ष फरवरी से जून महीने तक धर्मशाला का मौसम बहुत सुहावना रहता है और औसतन तापमान 20 डिग्री सेल्सीयस के आसपास रहता है। इस तरह साल के इसी वक्त भारत के अन्य कोनो से और विदेशों से पर्यटक धर्मशाला जाते हैं।
धर्मशाला हवाइ अड्डा पहाड़ के तलहटी पर स्थित है। यहां से ऊपरी धर्मशाला तक पहुंचने में गाड़ी से 40 मिनट लगता है। पहाड़ी मार्ग थोड़ा खतरनाक है। ऊपर धर्मशाला पहुंचने के तुरंत बाद प्राकृतिक सौंदर्य और स्वच्छ हवा लोगों को आकर्षित करती हैं लेकिन तंग सड़कें और खराब स्थिति लोगों के उत्साह को कम कर देते हैं।
कहते हैं कि धर्मशाला एक कस्बा है। लेकिन इसका पैमाना चीन में एक गांव की तरह है। यहां दो प्रमुख मार्ग उपलब्ध हैं, जिनकी लम्बाई मात्र कई सौ मीटर है, जिसे पैदल चलकर कुछ ही मिनटों में पूरा किया जाता है। सड़क की दोनों तरफ़ बेशुमार हॉटल, छोटे रेस्तरां और हस्त कलात्मक वस्तुएं बेचने वाली दुकानें मौजूद हैं। तथाकथित"तिब्बती निर्वासित सरकार"वहीं पास में स्थित है। एक आंगन में कुछ दो या तीन मंजिला इमारतों से गठित इस तथाकथित"सरकार"का पैमाना चीन में गांव समिति के बराबर है। वास्तव में धर्मशाला भारत सरकार द्वारा 14वें दलाई लामा, उनके अधीन और दूसरे निर्वासित तिब्बतियों को शरण देने वाला स्थान है, जिसकी प्रभूसत्ता भारत के पास है। देखने में यहां रहने वाले तिब्बतियों का जीवन कहने के बराबर नहीं रहा।
धर्मशाला के दौरे पर हमारे संवाददाता की मुलाकात कुछ निर्वासित तिब्बतियों से हुई। 28 वर्षीय डोर्रन दक्षिण पश्चिमी चीन के सछ्वान प्रांत के कानची तिब्बती स्वायत्त प्रिफैक्चर का रहने वाला था। 11 साल पहले वह चीन से धर्मशाला आया और यहां एक छोटे से रेस्तरां का मालिक बन गया।
हमारे संवाददाता ने डोर्रन के रेस्तरां में प्रवेश किया। चीन से आने की खबर पाकर डोर्रन बहुत खुश हुआ। उसने हमारे संवाददाता को तिब्बती घी चाय पिलाकर उनके साथ बातचीत की। उसने कहा कि धर्मशाला में एक रेस्तरां चलाना बहुत मुश्किल है। उसे एक साथ भारत सरकार और तथाकथित"तिब्बती निर्वासित सरकार"को दोहरा कर देना पड़ता है। इस तरह उसका जीवन काफी कठिनाईयों से भरा है। डोर्रन के अनुसार धर्मशाला में निर्वासित तिब्बतियों का स्थान और उनके साथ किए जाने वाला व्यवहार ज्यादा अच्छा नहीं है। उसने बताया कि तीन दिन पहले दो तिब्बती युवाओं और स्थानीय भारतीय लोगों के बीच टकराव हुआ था। इसके बाद को दस से अधिक भारतीयों ने उन दोनों युवाओं की जमकर पिटाई की। लेकिन आसपास खड़े अन्य तिब्बतियों के पास उन दोनों युवाओं को बचाने का साहस नहीं था। डोर्रन को शर्म आती है कि सहायता न करने वाले तिब्बतियों में से एक वह खुद भी था। डोर्रन के अनुसार इस प्रकार की घटना धर्मशाला में आये दिन होती रहती है। धर्मशाला में सभी पुलिसकर्मी भारतीय हैं। वे स्थानीय भारतीयों का समर्थन करते हैं। यह पूछे जाने पर कि क्या तथाकथित"निर्वासित सरकार" ऐसी स्थिति में तुम्हारा ख्याल रखती है?डोर्रन ने सिर हिलाते हुए ना कहा।
वास्तव में धर्मशाला में तथाकथित"तिब्बती निर्वासित सरकार"सिर्फ़ नाममात्र के लिए है। उसके पास धर्मशाला में प्रबंधन करने का कोई अधिकार नहीं है। क्योंकि धर्मशाला भारत की प्रादेशिक भूमि है। यहां सभी पुलिसकर्मी भारतीय हैं। जब तिब्बतियों और स्थानीय भारतीय लोगों के बीच टकराव होता है, तो निर्वासित सरकार तिब्बतियों के समर्थन में आवाज नहीं उठाती। इसके अलावा, निर्वासित तिब्बतियों की हैसियत शरणार्थी हैं। वे भारत में मकान नहीं खरीद सकते हैं और ना ही उनके बच्चे गैर-तिब्बती स्कूलों में दाखिला ले सकते हैं। निर्वासित तिब्बतियों के कुछ अधिकारों और हितों की गारंटी नहीं की जा सकती हैं।
41 वर्षीय पांसांग 14 साल पहले पत्नि के साथ ल्हासा से हिमालय पर्वत पार कर नेपाल के रास्ते से धर्मशाला पहुंचा था। इसकी चर्चा करते हुए पासांग ने कहा कि रास्ता बहुत लम्बा था। उन्हें पहुंचने में 20 दिन लगे थे। खराब रास्ते और प्राकृतिक स्थिति के चलते तिब्बती लोग रास्ते में कभी कभार बीमार पड़ जाते थे। हाल में पासांग और उसकी पत्नि एक छोटी सी दुकान चलाते हैं, जिसमें तिब्बती शैली के कलात्मक वस्तुएं बेची जाती हैं। अब दुकान का व्यापार ठीक है। पांसांग ने कहा कि उनकी स्थिति दूसरे निर्वासित तिब्बतियों की तुलना में कहीं अधिक अच्छी हैं। कई तिब्बती लोगों को भाषा और हैसियत के कारण मात्र हॉटल व रेस्तरां में वेटर का ही काम करना पड़ता हैं। कुछ लोग अस्थाई तौर पर छोटी वस्तुओं को बेचते हैं और उनकी जीवन स्थिति अच्छी नहीं कही जा सकती। भारत आने के बाद पासांग दंपति ने दो बच्चों को जन्म दिया। 8 और 12 साल के दो बच्चे अब स्थानीय तिब्बती स्कूल में पढ़ते हैं। अपने बच्चों की चर्चा करते हुए पासांग के चहरे पर मुस्कुराहट नजर आई। उसने कहा कि हर दिन वह बच्चों को चीनी भाषा सीखाते हैं। वर्तमान में चीनी भाषा विश्व में सबसे ज्यादा लोकप्रिय भाषा बन रही है। बड़े होने के बाद बच्चों को चीनी भाषा का प्रयोग कर रोज़गार मिल सकेगा। पासांग ने कहा कि जन्मभूमि ल्हासा छोड़े हुए 14 साल बीत गये हैं। उसे कभी कभार ल्हासा में रहने वाले माता पिता की याद सताती है। पासांग का कहना है कि अगले साल अपने माता पिता को देखने के लिए अपनी जन्मभूमि वापस लौटेगा।
धर्मशाला की सड़कों पर चलने के दौरान तिब्बती दुकान और कलात्मक वस्तुएं नज़र आयी। इसके अलावा सड़क पर कई तिब्बती बौद्ध धर्म के भिक्षु भी नजर आये। 29 वर्षीय च्यात्सो छिंगहाई प्रांत से धर्मशाला आया था। उसने कहा कि भारत में बौद्ध सूत्र सीखते हुए 12 साल हो चुके हैं। यह पूछे जाने पर कि क्या वह अपने जन्मस्थान छिंगहाई वापस लौटना चाहता है?इस प्रश्न का जवाब भिक्षु च्यात्सो ने हां में दिया। उसने कहा कि पिता जी का देहांत हो गया है। चीन में मा और बड़ी बहन रहती हैं। उन्होंने कई बार उसे स्वदेश लौटने के लिए बोला हैं। अपने देश से लम्बे समय तक दूर रहने के बाद भिक्षु च्यात्सो को अपने परिजनों की याद सताती है। लेकिन वह अवैध रूप से चीन से भारत आया था। उसके पास पासपॉर्ट जैसा कोई कारगर आईडी नहीं है। इस तरह स्वदेश वापस लौटना मुश्किल है। च्यात्सो ने कहा कि वह इस संदर्भ में कोशिश करता रहता है। यह पूछे जाने पर कि इन 12 सालों में भारत में रहने के दौरान कोई रोज़गार नहीं होने और किसी भी तरह की आमदनी न होने के चलते तुम्हारा जीवन यापन कैसे होता है?इस पर भिक्षु च्यात्सो ने शर्मिंदा के साथ कहा कि देश में माता जी और बड़ी बहन उसे पैसे भिजवाती हैं, वह इस पर निर्भर रहता है।
धर्मशाला में कुछ दिनों तक सफर करने के दौरान हमारे संवाददाता ने कई तिब्बतियों के साथ बातचीत की। शायद उन्हें पछतावा नहीं होता होगा कि दलाई लामा के पीछे-पीछे भारत आ गये। लेकिन यह निश्चित है कि धर्मशाला में उनका जीवन यापन उनकी कल्पना से कोसों दूर है। शरणार्थियों की हैसियत से वे वहां मकान और भूमि नहीं खरीद सकते। इस तरह उनके उपर बहुत बड़ा आर्थिक दबाव हैं। स्थानीय भारतीयों द्वारा अस्वीकार किया जाना, युवा लोगों को बड़ी मुश्किल से रोज़गार मिलना जैसे समस्य निर्वासित तिब्बतियों के सामने मौजूद सवाल हैं। धर्मशाला, उनकी कल्पना में"स्वर्ग उद्यान"नहीं है।