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गाज़ांचात्सो और उनकी रअकुंग थांगखा
2014-06-28 19:05:38 cri

गाज़ांचात्सो थांगखा चित्र बनाते हुए

थांगखा चित्र बनाने वाले रंगद्रव्य

गाज़ांचात्सो ग्यारह साल की उम्र में साधु बन गए थे, और 16 वर्ष की आयु से उन्होंने थांगखा बनाना सीखा। उन्होंने लगभग पांच साल की थांगखा की पढ़ाई महज दो साल में ही पूरी कर ली थी। अट्ठारह वर्ष की आयु में वो शिक्षक बने जो सबसे युवा शिक्षकों में से एक थे।

11 वर्ष की उम्र में गाज़ांचात्सो मठ में जाकर एक भिक्षु बन गये, 16 वर्ष की आयु में उन्होंने थांगखा चित्र बनाना सीखना शुरु किया। थांगखा चित्रकला को इतना पसंद करने के कारण ही गाज़ांचात्सो ने इस चित्रकला को बहुत मेहनत और लगन से सीखा। कभी कभार वह रात को सोते भी नहीं थे। मठ में उसके गुरु आमतौर पर सुबह छह बजे उठकर मठ के बाहर चक्कर लगाते हुए घूमते थे और अभ्यास करते हैं। उन्होंने कभी कभार देखा कि सुबह-सुबह गाज़ांचात्सो के मकान में रौशनी जल रही होती थी। चित्र बनाने का अभ्यास करने में इतना संलग्न होने के कारण गाज़ांचात्सो को समय का ध्यान ही नहीं रहता था और एक रात इस तरह बीत गई। आम तौर पर थांगखा चित्र बनाना सीखने के लिए 5 वर्ष का समय लगता है, लेकिन गाज़ांचात्सो को मात्र 2 वर्ष ही लगे, दो वर्षों बाद वो खुद थांगखा चित्र बनाने में सक्षम हो गये। 18 वर्ष की उम्र में कुछ छात्र उनका नाम सुनकर विशेष तौर पर उनसे थांगखा चित्र बनाना सीखने आने लगे। गाज़ांचात्सो तत्काल रअकुंग क्षेत्र में थांगखा चित्र सिखाने वाले सबसे युवा शिक्षक बन गये।

गाज़ांचात्सो ने अपने बड़े भाई के साथ मिलकर रअकुंग जातीय संस्कृति केंद्र स्थापित किया है, उनका लक्ष्य ज़्यादा से ज्यादा लोगों को थांगखा चित्रकारी सिखाना है। इस केन्द्र में आने वाले छात्र मुफ़्त में ही थांगखा चित्रकला बनाना सीख सकते हैं।

गाज़ांचात्सो के छात्रों में स्थानीय तिब्बती बच्चों के अलावा, देश के कुछ अन्य प्रांतों के बच्चे भी शामिल हैं। मध्य चीन के हनान प्रांत से आई 14 वर्षीय छात्रा ली यिंग इनमें से एक है। उसने कहा कि थांगखा चित्रकारी सीखने के अलावा वह रोज़ तिब्बती भाषा का भी अध्ययन करती है। छात्रा ली यिंग का कहना है:

"मैं हर दिन सुबह 6 बजे उठती हूँ। साढ़े 6 से साढ़े 7 बजे तक तिब्बती भाषा सीखती हूँ। साढ़े 7 से 8 बजे तक नाश्ता करती हूँ। फिर 8 बसे से दोपहर 12 बजे तक चित्र बनाना सीखती हूँ।"

गाज़ांचात्सो ने कहा कि जीवन को अधिक सुविधापूर्ण बनाने के लिए उन्होंने इन बच्चों से चीनी और तिब्बती भाषा सीखने की मांग की थी। तिब्बती भाषा के प्रयोग से छात्रों को स्थानीय लोगों के साथ संपर्क करने में बहुत आसानी होती है, इसके साथ ही वे स्थानीय रीति रिवाज़ों की ज्यादा जानकारी प्राप्त कर सकते हैं। उनके विचार में शिक्षा के माध्यम से बच्चों की गुणवत्ता उन्नत की जा सकती है, इससे रअकुंग क्षेत्र में सांस्कृतिक विकास की गांरटी मिल सकेगी। गाज़ांचात्से ने कहा:

"मुझे लगता है कि सांस्कृतिक गुणवत्ता से व्यक्ति का भाग्य बदल सकता है। एक भिक्षु के रूप में मैं ज्यादा काम करना चाहता हूँ और समाज के लिए अधिक योगदान देना चाहता हूँ। इस सांस्कृतिक केंद्र की स्थापना से स्थानीय लोगों की सांस्कृतिक गुणवत्ता थोड़ी बहुत तो उन्नत हो ही सकती है। इस तरह मैं अपना सामाजिक उत्तरदायित्व निभा सकता हूँ। मेरा विचार है कि हमारे केंद्र के बच्चे प्रशिक्षण के बाद सुयोग्य व्यक्ति बनेंगे, इसके बाद वे हमारी तिब्बती संस्कृति को और अच्छी तरह से जानकर उसका प्रसार कर सकेंगे।"

वास्तव में भिक्षु गाज़ांच्त्सो के पास थांगखा सीखाने का विचार दस वर्ष पहले ही आया था, इसी लक्ष्य को बखूबी अंजाम देने के लिए उन्होंने छिंगहाई प्रांत के कुओलो तिब्बती स्वायत्त प्रिफेक्चर की माछिन कांउटी के लाच्या मठ में छह वर्षों तक अध्ययन किया। जून 2013 में रअकुंग जातीय सांस्कृतिक केंद्र की स्थापना हुई और उनकी अभिलाषा पूरी हो गई। गाज़ांच्यात्सो ने इस सांस्कृतिक केंद्र में एक पुस्तकालय भी स्थापित किया है, जिसमें लोग मुफ्त में पुस्तक उधार ले सकते हैं। गाज़ांचात्सो के पूर्व छात्र भी सांस्कृतिक केंद्र वापस लौटकर शिक्षा के लिए स्वयं सेवा करते हैं। भिक्षु गाज़ांचात्सो के शैक्षिक विचार में नवाचार और उत्तराधिकार का समान महत्व है। उनका कहना है:

" चित्र बनाने की पुरानी शैली में कोई बदलाव नहीं आएगा, लेकिन मुझे सृजन करना पसंद है। चित्र बनाने के दौरान चाहे प्राकृतिक दृश्य हो, या व्यक्ति के चेहरे की भावनाएं ही क्यों न हो, रंग के संयोजन में नए प्रयोग किये जा सकते हैं। बच्चों को सीखाने के वक्त मैं उन्हें अपनी कल्पना को साकार करने के लिये प्रोत्साहित करता हूँ।"

तिब्बती भाषा में"रअकुंग"का मतलब है सपना पूरा करने वाली स्वर्ण घाटी। गाज़ांचात्सो जैसे तिब्बती कलाकारों के योगदान से इस स्थान पर ज़्यादा से ज़्यादा लोगों का स्वप्न साकार हो सकेगा। उनके प्रयासों के चलते रअकुंग थांगखा समेत तिब्बती बौद्ध धर्म की मूल्यवान और शानदार कला विरासत में लेते हुए उसे विकसित करने के साथ-साथ उसका नवाचार भी किया जा सकता है।


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