वास्तुकला वास्तु का ही नहीं, बल्कि सभ्यता के विकास का भी द्योतक है। हरेक राष्ट्र की वास्तुकला वहां की विशेष सभ्यता व संस्कृति की ही तरह यहां की वास्तुकला विदेशी प्रभावों को आत्मसात करती हुई क्रमशः विकसित हुई है, उसमें विविधता के साथ-साथ नेरंतर्य बना रहा है। वास्तुकला के साथ मिलकर वास्तुकला का एक नया रूप बन गई। भारतीय मीनारों की शैली में निर्मित चीन के मंदिर स्पष्ट उदाहरण हैं।
वास्तुकला के विशारद ल्याडं सछडं ने एक बार यह कहा था कि चीनी वास्तुकला का हजारों वर्षों का इतिहास क्रमशः जुड़ा हुआ है।
चीन में विशाल भूमि तथा बहुत सी अल्पसंख्यक जातियां होने के कारण न केवल भौगोलिक परिस्थिति व जलवायु जटिल है, बल्कि आर्थिक व सांस्कृतिक क्षेत्र में भी असंतुलित विकास हुआ है। यही कारण है कि चीनी वास्तुकला के इतिहास में अकस्मात परिवर्तन न आने के बावजूद एक ही समय में विविधता भी देखने को मिलती है।
कहा जाता है कि आदिकाल में मानव जंगल और गुफाओं में रहते थे। आज दक्षिण चीन में जमीन के ऊपर खड़े बांस या लकड़ी के खंभों पर निर्मित मकान चिड़ियों के घोंसलों के विकसित रूप लगते हैं। चौड़ी छत वाले ऐसे मकान वर्षा व आर्द्रता से बच जाते हैं। युननान प्रान्त में ताए जाति के बांसों के मकान तथा क्वेइचओ प्रान्त व क्वाडंशी च्वाडं स्वायत प्रदेश में तुडं जाति के काष्ठ मकान ऐसी वास्तुकला का प्रतिनिधित्व करते हैं। उत्तर चीन में काष्ठ ढांचे व मिट्टी की दीवारों वाले मकान तो गुफा से विकसित होकर बने हैं। सर्दी की रोकथाम के लिए इन मकानों में मोटी-मोटी छत व दीवारें होती हैं। उत्तर चीन के देहातों में आज भी इसी तरह के मकान नजर आते हैं। पीली मिट्टी पठार पर खोदी कंदराओं से मानव के गुफा में रहने की परम्परा झलकती है।