तिब्बती जाति के लोग अपने आपको "पोपा" कहते हैं, जिसका शब्दार्थ "पो नामक क्षेत्र में रहने वाले लोग" है। तिब्बती व चीनी भाषा की ऐतिहासिक पुस्तकों के अनुसार तिब्बती पठार पर बहुत पहले से ही मानव रहते हैं। 1978 में छामदो की खुदाई से प्राप्त वस्तुओं से यह साबित हुआ है कि तिब्बत के प्राचीन आदिम गांव-कस्बों कू संस्कृति नवपाषाण काल में पीली नदीघाटी की संस्कृति के समानांतर थी। थाडं राजवंश में राजकुमारी वन छडं व चिन छडं की शादी क्रमशः 641 ई. व से 710 ई. में तिब्बत के राजाओं सुडंत्सान गाम्बो व थूबो से हुई, जिससे हान जाति व तिब्बती जाति के बीच का संबंध और घनिष्ट हो गया तथा तिब्बती जाति की आर्थिक सांस्कृतिक प्रगति तेज हुई। 13वीं शताब्दी के मध्य तक य्वान राजवंश ने चीन का एकीकरण कर लिया था। तभी से तिब्बत औपचारिक रूप से चीन का एक अभिन्न अंग बन गया।
तिब्बती लोग बौद्ध धर्म यानी लामाधर्म में विश्वास करते हैं। पूरे स्वायत प्रदेश में मंदिर ही मंदिर दिखाई पड़ते हैं। प्राचीनतम जुगलाखाडं मंदिर का निर्माण सातवें दशक में हुआ था, जिस के बड़े हॉल में राजा सुडंत्यान गाम्बो व राजकुमारी वन छडं की मूर्तियां स्थापित हैं। इसके साथ ही तिब्बत में आते समय राजकुमारी वन छडं के साथ लायी बुद्ध की एक स्वर्ण मूर्ति भी रखी हुई है। मंदिर के बाहर वन छडं द्वारा लगाया गया "थाडं राजवंश का विलो" पेड़ खड़ा है। विश्वविख्यात पोताला महल ल्हासा के हुडंशान पहाड़ पर स्थित है। बाहर से इस शानदार महल की 13 मंजिलें दिखाई पड़ती हैं, पर वास्तव में अन्दर सिर्फ 9 मंजिलें हैं। 1000 कमरों के इस महल का कुल क्षेत्रफल 130000 वर्गमीटर है। मुख्य इमारत दो महलों में बंटी हुई है, एक है लाल महल, जिसमें धार्मिक पुस्तकों का एक कक्ष व विभिन्न कालों के दलाई लामाओं के स्तूपों का कक्ष है, दूसरा श्वेत महल है, जिसके दो भाग हैं:एक दलाई लामा का पूजा गृह और दूसरा शयनागार है।
दरअसल पोताला महल कला का भंडार भी है। महल में बड़ी मात्रा में मूल्यवान वस्तुएं सुरक्षित रखी हुई हैं। इनमें मिडं व छिडं राजवंशों के राजाओं द्वारा दलाई व पंचन लामा तथा अन्य दूसरे तिब्बती बौद्धों व अफसरों को प्रदान किए गए राजाज्ञा, आदेशपत्र, मुहरें, उपहार तथा धार्मिक पुस्तकें, बौद्ध मूर्तियां, वाद्ययंत्र व पूजा-पात्र आदि शामिल हैं। महल में बनाए गए राजकुमारी वन छडं व चिन छडं के तिब्बत में आने के भित्तिचित्र, छिडं राजवंश के शुनच शासनकाल(1644-1661) में सम्राट व पांचवें दलाई लामा की भेंट का भित्तिचित्र तथा तेरहवें दलाई लामा से क्वाडंश्वी सम्राट व छीशी सम्राज्ञी की मुलाकात का भित्तिचित्र आदि सब चीन की जातीय एकता व देश के एकीकरण के ऐतिहासिक गवाह हैं।
तिब्बती लोग सीधे-सादे और बहुत ही मेहनती होते हैं। वे गीत-नृत्य में बड़े निपुण हैं और आतिथ्यपूर्ण होते हैं। उनकी रंगबिरंगी जातीय पोशाकें अत्यन्त भव्य होती हैं और विवाह, मृत्यु, त्योहार व रीति-रिवाजों की अपनी विशेष शैली है। दूर से आए मेहमानों का सत्कार वहां पारस्परिक प्रथा के अनुसार किया जाता है और मेहमानों को पहले "हाता"(श्वेत रेशमी दुपट्टा) प्रदान किया जाता है, फिर मक्खन की चाय व जौ की शराब पिलाई जाती है।
वहां के विशिष्ट प्राकृतिक भूदृश्य, समृद्ध प्राकृतिक संसाधन व विलक्षण जातीय रीति-रिवाज पर्यटकों को आकर्षित करते हैं। इधर चन्द वर्षों में इस "रहस्यमय दुनिया", जिसके बारे में पहले बहुत कम लोग जानते थे, का द्वार बाहर के लिए खुल जाने से सिर्फ पर्यटन का ही नहीं, बल्कि वहां के अर्थतंत्र व बाजारों का भी खूब विकास हुआ है। पर्यटन कार्य के विकास के साथ-साथ तिब्बत में यातायात मार्ग, हवाई जहाज परिवहन, डाक सेवा, खाद्य पदार्थ उद्योग, कृषि, पशुपालन व स्थानीय वस्तुओं के प्रोसेसिंग उद्योग, जातीय दस्तकारी, जातीय शिल्पकला, शहर के बुनियादी निर्माण, निर्माण उद्योग व व्यापार सेवा का भी विकास हुआ है।
पहले लम्बे अरसे तक आत्मनिर्भर अर्थंतत्र की व्यवस्था के कारण तिब्बत में बाजार की बुनियादी स्थिति बहुत ही कमजोर थी। पहले ल्हासा में सिर्फ इक्के-दुक्के सरकारी बाजार थे, जहां सामान भी बहुत कम था। पर आज ल्हासा की सड़कों पर जहां भी जाएं, वहां बड़े व छोटे स्टोर ही स्टोर दिखाई देते हैं। दुकानों में तरह-तरह की वस्तुएं मिलती हैं और खरीदारों की भीड़ लगी रहती है। विभिन्न जातियों के लोगों की आमदनी पहले से काफी बढ़ गयी है और आज वे सुख व शांति से जीवन बिताते हैं।