उन्होंने भारतीय भाषा में बोलते हुए शास्त्रों के सूक्ष्म तत्वों पर प्रकाश डाला औऱ सुबोध रुप से मतों को स्पष्ट किया। उन के व्याख्यान सुनने वालों का जमघट लग गया। इस तरह उन की ख्याति समूचे भारत में फैल गई। ह्वानसांग ने तीन हजार श्लॉकों में "वाद प्रतिवाद का विश्लेषण "प्रतिपादित कर योगाचार के सिद्धांतों का विकास किया तथा योगाचार व माध्यक इन दो संप्रदायों का संमिश्रण किया। उन्होंने ब्राहमण शास्त्रकार के साथ तर्क वितर्क में विजय पाई। इस बात की ओर मगघ के राजा शीलादित्य का ध्यान आकर्षित हुआ। ह्वानसांग ने राजा शिलादिल्य को चीन की राजनीति, अर्थतंत्र औऱ संस्कृति का परिचय दिया। उन्होंने खासकर थांग राजवंश के सम्राट ताइजूंग का गुणगान किया। वर्ष 642 में राजा शीलादिल्य ने कन्याकुब्ज में ह्वानसांग के लिए पंच वार्षिक परिषद का आयोजन किया। परिषद में ह्वानसांग ने महायान के सिद्धांतों पर व्याख्यान दिया। परिषद में भारत के 18 राजा तीन हजार से अधिक महायानी भिक्षु, दो हजार ब्राहमण और नान्दा के एक हजार भिक्षु शरीक हुए थे। यह सब, अभूतपूर्व थी। परिषद 18 दिन चली औऱ ह्वानसांग वाद विवाद में विजयी हुए। उन्हें "महायान देव "और "मोक्ष देव"की उपाधियों से अलंकृत किया गया।
वर्ष 645 के वसंत में ह्वानसांग स्थलीय मार्ग से स्वदेश लौट आए। छान एन में उन का शानदार स्वागत किया गया। वे अपने साथ 12 घोड़ों रक 657 सस्कृत बौद्ध सूत्रों और बड़ी संख्या में बुद्ध मूर्तियों को लाद कर लाए थे। ह्वानसांग की मान्यता थी कि उनकी शंकाएं भारत में दूर हो चुकी थी। इसलिए, उन्होंने स्वदेश लौटकर फाश्यांगजूंग यानी धर्म लक्षण शाखा स्थापित की। इस के साथ-साथ ह्वानसांग ने बौद्ध सूत्रों का चीनी में अनुवाद करना शुरु किया। चीनी सम्राट ताइजूंग ने एक संघाराम को उनका निवास बनाया और एक वृहद बौद्ध सूत्र अनुवाद प्रतिष्ठान की स्थापना के लिए देश के विभिन्न स्थानों से ज्ञानी भिक्षुओं के चयन में उन्हें सहायता दी। इस प्रतिष्ठान के अध्यक्ष और प्रमुख अनुवाद, स्वयं ह्वानसांग ही थे। इस प्रतिष्ठान में 19 वर्षों में 75 बौद्ध सूत्रों का चीनी में अनुवाद किया गया, जिन के चीनी शब्दों की कुल संख्या एक करोड़ तीन लाख थे। उनके अनूदित पाठ प्राचीन भारत की विचारधारा और संस्कृति के अध्ययन के लिए अमूल्य सामग्री हो गए।