बुद्धत्व की समस्या ह्वानसांग के लिए भी एक चिन्तन का विष्य था और इसी समस्या ने उन्हें भारत जाने को प्रेरित किया था। ह्वानसांग का कुलनाम छन ई था। उन्हें त्रिपिटक आचार्य से सम्मानित किया गया। तेरह वर्ष की उम्र में उन्होंने प्रव्रज्या प्राप्त की औऱ अपना नाम बदल कर ह्वानसांग रखा। बाद में बौद्ध सूत्रों के अध्ययन के लिए उन्होंने उत्तरी चीन के ह पेई, ह नान, शान शी औऱ दक्षिण पश्चिमी चीन के सी छ्वान आदि क्षेत्रों का भ्रमण कर 13 सुविज्ञ भिक्षुओं से "महा परिनिवर्ण सूत्र" तथा अन्य अनेक सूत्र सीखे। तिस पर भी बुद्धत्व की समस्या पर उन्हें एक सुनिश्चित औऱ सर्वसम्मत उत्तर नहीं मिल सका। अनेक समस्याओं पर ह्वानसांग और विभिन्न आचार्यों के मत अलग अलग थे। जबकि मध्य और पश्चिम एशिया से प्राप्त संस्कृत बौद्ध सूत्रों के अनुदित पाठ समझना कठिन लगता था औऱ सूक्षम तत्वों का सम्यक अनुवाद नहीं किया गया था। बौद्ध धर्म के सूक्ष्म तत्वों का अध्ययन करने और उन का सटीक अर्थ मालूम करने के लिए उन्होंने तत्कालीन सरकार से भारत जाने की अनुमति मांगी, पर उनकी मांग अस्वीकार कर दी गयी। वर्ष 629 में ह्वानसांग ने निषेधाज्ञा का उल्लंखन कर छांग एन से प्रस्थान कर पश्चिम की दिशा में बढ़ते हुए व्यू मन दर्रे से गुजर कर मध्य भारत में नालन्दा संधाराम की ओर अभियान आरम्भ कर दिया। रास्ते में नाना कष्ट झेले और अकाल्पनिक कठिनाइयों का सामना किया। कई बार वे मरते-मरते बचे। उन्होंने जल विहीन रेगिस्तान पार किया, वर्ष भर बर्फ से ठके रहने वाले ऊंचे ऊंचे पहाड़ों और हिम नदियों को पार किया। अन्त में वे मध्य भारत में मगध के राजगृह पहुंच गए औऱ बौद्ध धर्म के केंद्र नालन्दा संधाराम के भिक्षुओं ने उन का स्वागत किया।
नालंदा संधाराम भारत में बोद्ध धर्म का सर्वोच्च विद्दालय था। इस के स्थविर आचार्थ शीलभद्र की आयु तब नब्बे वर्ष से अधिक हो चुकी थी। वे असंग औऱ बसुबंधु के सिद्धांत ग्रहण कर योगाचार, विज्ञानवाद, हेतु विद्या औऱ शब्द विद्दा में प्रवीण थे। वे बोद्ध धर्म के अधिकाधिक विद्वान माने जाने थे। ह्वानसांग ने उन से योगाचार भूमि शास्त्र पर व्याख्यान सूने, सभी बौद्ध सूत्र पढ़ डाले और ब्राहमण सूत्रों व ग्रंथों का सर्वागीण अध्ययन किया। पांच वर्ष तक कड़ी मेहनत करने के बाद उन की शिक्षा पूरी हुई। फिर उन्होंने समूचे भारत की यात्रा आरम्भ की। इसी बीच उन्होंने सुप्रसिद्ध बौद्ध आचार्य से शिक्षा ली। यात्रा पूरी होने पर वे फिर नालन्दा लौट गये। शीलभद्र की अनुशंसा पर ह्वानसांग ने "महायान संपरिग्रह शास्त्र""विज्ञापति मात्र सिद्धि त्रिशंक कारिका शास्त्र "पर व्याख्यान दिये।