फ़ा श्यान ने शी आन से चार साधियों के साथ प्रस्थान किया था। गेनसू में उस के दल में चार अन्य लोग शामिल हुए थे। इन नौ व्यक्तियों में से केवल फ़ा श्यान और उस के अन्य दो साथी ही भारत पहुंचकर स्वदेश लौट सके थे। बाकी छै व्यक्ति या तो आधे रास्ते से ही वापस लौट गये थे, या भारत से स्वदेश लौटने से पहले ही उनकी मृत्यु हो गयी थी।
फ़ा श्यान ने लिखा है कि उन लोगों ने त्वन ह्वांग से आगे पश्चिम की तरफ एक रेगिस्तान पार किया था, जहां न तो कोई पक्षी नजर आता था और न कोई पशु। जहां तक नजर जाती थी कहीं कोई रास्ता दिखाई नहीं देता था। केवल सफेद अस्थि अवशेषों से ही रास्ते का पता चल पाता था।
उस समय पश्चिमी प्रदेशों में अनेक लोगों ने बौद्ध धर्म अंगीकार कर लिया था, हालांकि वे अलग अलग संप्रदायों से संबंध रखते थे। विभिन्न प्रदेश की भाषाएं भी अलग अलग थीं। पर सभी भिक्षु संस्कृत लिखना बोलना जानते थे। ये प्रदेश अधिकांश वर्तमान चीन के शिन च्यांग स्वायत प्रदेश में थे।
फ़ा श्यान और उस के साथियों ने चट्टान पर करी सात सौ सीढ़ियां चढ़ने के बाद रस्सियों के एक पुल से सिंधु नदी पार की औऱ तत्कालीन भारतकी सीमा में प्रवेश किया।
भारत में फ़ा श्यान ने बौद्ध धर्म के अनेक स्थानों की यात्रा की। उसने तत्कालीन भारत के अनेक राज्यों के नामों और उनकी स्थितियों का वर्णन किया, उनके रीति रिवाजों और पौराणिक आख्यानों का वर्णन किया। उत्तर भारत का मध्य वर्ती मैदान मध्य देश कहलाता था। फ़ा श्यान के अनुसार, वहां की समशी तोषण जलवायु, बरफ और पाले से मुक्त थी। लोग खुशहाल थे। भूमि कर केवल उन्हें ही देना पड़ता था जो राजा की भूमि पर खेती वाड़ी करते थे। भिक्षुओं को बेहद सम्मान प्राप्त था। जन समुदाय के बीच एक तबके के लोग चाण डाल कहलाते थे। जो बाकी लोगों से अलग अलग शहर के बाहर रहते थे। फ़ा श्यान द्वारा किये गये सजीव वर्णन से प्राचीन भारतीय समाज हमारी आंखों के सामने साकार हो उठता है।
एक विहार में जब भारतीय भिक्षुओं ने फ़ा श्यान को देखा, तो वे आश्च्य चकित हो गये, क्योंकि तब तक कोई चीनी भिक्षु वहां कभी नहीं आया था।
फ़ा श्यान की यात्रा का मकसद केवल तीर्थाटन नहीं था। उस का मत था कि चीन आने वाले बौद्ध सूत्रों में चैत्यानु शासन के नियमों की बहुत कम चर्चा की गई। भारत जाकर वह ऐसे ग्रंथों को खोजना चाहता था ताकि उन्हें स्वदेश ले जाकर चीनी विहारों के घापदे के लिए अनूदित किया जा सके। लेकिन, उत्तर भारत के अनेक स्थानों की यात्रा करने के बाद भी उसे इस प्रकार की सामग्री नहीं मिल पाई। बात दरअसल यह थी कि भारतीय परम्परा के अनुसार, सर्वोधिक महत्वपूर्ण सूत्रों को लिखा नहीं जाता था, बल्कि गुरु द्वारा शिष्य को मौखिक रुप से सिखाया जाता था। इसलिए, मध्य भारत पहुंचने से पहले फ़ा श्यान को वह सामग्री लिखित रुप में नहीं मिल पाई। वहां वह तीन वर्षों तक अध्ययन करता रहा और बौद्ध ग्रंथों की प्रतिलिपियां तैयार करता रहा।