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अब भी इतिहास को सहेजकर रखा है चीन ने(कांदबिनी पत्रिका से साभार)
2012-02-15 10:15:47

इस साल चीन की कम्युनिस्ट पार्टी की 90वीं वर्षगांठ मनाई जा रही है। चीन और भारत के सांस्कृतिक रिश्ते बहुत पुराते हैं और आज भी उसकी झलक चीन में देखी जा सकती है। बता रहे हैं लेखक अनिल आज़ाद पाण्डेय

चीनी क्रांति का नाम आते ही लोगों को लॉंग मार्च जैसा मुश्किल अभियान याद आता है, जब माओ त्से दोंग के नेतृत्व में लाल सेना ने राष्ट्रवादी कोमिंतांग के खिलाफ निर्णायक सफलता हासिल की थी। अक्टूबर 1935 में च्यांगशी प्रांत से शुरू हुआ यह अभियान 370 दिन में साढ़े बारह हज़ार किमी. लंबी दूरी तय करने के बाद उत्तर चीन के शांसी में समाप्त हुआ। इसी ऐतिहासिक घटना से ताल्लुख रखने वाली जगह का नाम है यान आन, बताया जाता है कि लाल सेना ने इसी जगह के नजदीक अपना अंतिम पड़ाव डाला। इसके बाद कई वर्षों तक यह नए चीन के निर्माण के दौर में कम्युनिस्ट पार्टी व सेना की गतिविधियों के संचालन का केंद्र रही, जिसे रेड कैपिटल यानी चीनी क्रांति के जन्मस्थल के रूप में भी जाना जाता है।

वैसे बचपन में चीन व रूसी क्रांतियों के बारे में पढ़ा करता था, बावजूद इसके अब तक ऐसी जगहों पर जाने का मौका कम ही मिला है। इस बार यान आन जाना हुआ, और इस साल चीनी कम्युनिस्ट पार्टी की 90 वीं वर्षगांठ भी मनाई जा रही है, शायद इससे बेहतर अवसर फिर मिलता इतिहास से रूबरू होने का। इसलिए मन में उत्सुकता थी, ऐसा नहीं कि एक भारतीय होने के नाते मेरे मन में कौतुहल था, बल्कि दूसरे तमाम चीनी लोग भी अपने राष्ट्र निर्माण के उन ऐतिहासिक साक्ष्यों को बड़े उत्साह से देखना चाहते हैं। इतना ही नहीं उनसे प्रेरणा लेकर बेहतर भविष्य के लिए प्रयासरत भी हैं, चीन में ऐसे तमाम ऐतिहासिक स्थलों को सहेजकर रखा गया है।

कुछ आलोचक कहते हैं कि चीन अपनी प्राचीन संस्कृति व इतिहास को भूलने लगा है, लेकिन यान यान के दौरे के बाद मुझे कतई भी ऐसा अहसास नहीं हुआ। भले ही वर्तमान में चीन तेज़ी से आगे बढ़ रहा हो, मगर चीनी लोगों को अपने इतिहास को बचाकर रखना भी बखूबी आता है। उदाहरण के लिए माओ त्से दोंग व चाउ इन लाय जैसे लीडरों के रहने के कमरे, दस्तावेज, उनकी जरूरी चीजें और लेख आज भी पूरी तरह सुरक्षित हैं। इतना ही नहीं वहां एक संग्रहालय भी स्थापित किया गया है, जिसमें चीनी क्रांति का पूरा इतिहास दर्ज है। इसमें द्वितीय विश्व युद्ध के दौरान भारत द्वारा भेजे गए मेडिकल मिशन का तस्वीरों के साथ उल्लेख भी है, उसी दल में प्रसिद्ध डॉक्टर द्वारकानाथ कोटनिस भी शामिल थे। इसके इतर भी चीन में भारतीय चिकित्सकों के योगदान के लिए अक्सर याद किया जाता है, पिछले साल कोटनिस को सदी के सर्वश्रेष्ठ दस अन्तर्राष्ट्रीय मित्रों में चुना गया।

अगर यान आन की बात करें तो यह कहना गलत नहीं होगा कि सांशी प्रांत की भौगोलिक स्थिति इतनी विशेष है, जिसके कारण यह हमेशा सैन्य व राजनीतिक घटनाओं का केंद्र रहा। मध्य काल से ही यह क्षेत्र सामरिक लिहाज से काफी महत्वपूर्ण था, चीन के तमाम राजवंशों ने इस क्षेत्र को पाने के लिए युद्ध भी किए, इनमें स्या, सुंग, मंगोल, मिंग व छिंग राजवंश प्रमुख थे।

वहीं चीनी राष्ट्रवादी कोमिंतांग और जापान के खिलाफ भी यहां व्यापक संघर्ष हुए। जिसके निशान अब भी दिखाई देते हैं, जापान द्वारा की गई बमबारी में यहां लगभग सभी इमारतें नष्ट हो गई थी, लेकिन ऊंचे स्थान पर सिर्फ एक पगोडा(स्तूप) ही सुरक्षित बचा है। इसके आसपास के इलाके में पहाड़ों से सटी हुई ऐसी गुफाएं भी हैं जिनमें लोगों ने बमबारी से बचने के लिए शरण ली थी। यहां तक कि समाचार पत्र-पत्रिकाओं का काम गुफाओं में होता था। चायना रेडियो का पहला प्रसारण (जापानी भाषा) भी गुफा से किया गया, अब भी वहां स्टूडियो संरक्षित है।

कम्युनिस्ट पार्टी का केंद्र होने के चलते माओ व अन्य तमाम नेताओं का साक्षात्कार करने एडगर स्नो सहित कई पश्चिमी पत्रकार भी यहां आए थे। विशेषकर अमेरिका ने यहां अमेरिकिन आर्मी ऑबज़र्वेशन ग्रुप भेजा, इसका मकसद कम्युनिस्टों के साथ सहयोग कर जापान के खिलाफ रणनीति बनाना था, इस तरह 1944 से 1947 तक इस इलाके में अमेरिकी मौजूद थे, वर्तमान में वहां तमाम दस्तावेजों में इसके प्रमाण भी देखे जा सकते हैं।

जबकि लॉंग मार्च भी इसी इलाके में समाप्त हुआ, जो न केवल चीनी क्रांति के इतिहास में एक मील का पत्थर साबित हुआ, बल्कि माओ का कद ऊंचा करने में भी इसकी अहम भूमिका रही, लाल सेना के सामने जब-जब मुश्किलें आई, माओ ने आगे बढ़कर उसका नेतृत्व किया। इसके कारण कम्युनिस्ट पार्टी के सदस्यों का भी उन्हें पूरा समर्थन मिलने लगा।

माओ से ही जुड़ी एक जगह का नाम है स्याव आर कौउ, जो यान आन से पांच किमी. की दूरी पर है, वहां लू सन आर्ट कॉलेज व कैथोलिक चर्च स्थित है। बाहर से देखने पर कॉलेज किसी अन्य प्राचीन चीनी इमारतों की तरह लगता है, लेकिन उसके भीतर माओ समेत कई नेताओं, सैनिकों की तस्वीरें और अन्य अहम दस्तावेज मौजूद हैं। इस कॉलेज की स्थापना अप्रैल 1938 में चीनी कम्युनिस्ट पार्टी द्वारा कैडरों व पार्टी कार्यकर्ताओं को ट्रेनिंग देने के मकसद से की गई थी। जिसमें कला, साहित्य व संगीत आदि विभागों में बड़ी संख्या में छात्र अध्ययन करते थे, खास बात यह थी कि क्रांति की निर्णायक लड़ाई व आम ग्रामीण लोगों का जीवन छात्रों और शिक्षकों की प्रेरणा का स्रोत होता था। वे दूर-दराज के क्षेत्रों में जाकर नाटक, सभा, पेंटिंग के माध्यम से लोगों के बीच नए चीन के निर्माण के लिए एकजुट होने का आह्वान भी करते थे। वहां लगी तस्वीरें व लेख इस कॉलेज के व्यवहारिक पक्ष को बयां करते हैं।

कॉलेज और चर्च कम्युनिस्ट पार्टी की अहम बैठकों का सेंटर भी था, 29 सितंबर से 6 नवंबर 1938 तक छठी केंद्रीय कमेटी का पूर्ण सत्र भी यहां आयोजित हुआ। जिसकी अध्यक्षता चांग वन थ्यान ने की और माओ ने इस मौके पर कम्युनिस्ट पार्टी के पॉलीटिकल ब्यूरो की तरफ से भाषण दिया।

बताते हैं कि एक महत्वपूर्ण कार्यक्रम में मौजूद स्टाफ ने माओ को अपना नेता बनाने की बात कही। लेकिन उन्होंने इससे इनकार करते हुए क्या कहा, यह जानना अपने आप में दिलचस्प है, बकौल माओ मैं कोई नेता(लीडर) नहीं हूं, मैं भी आप लोगों की तरह स्टाफ का एक सदस्य हूं, शायद वे इस बात को दर्शाना चाहते थे कि पार्टी में आम कैडर या दूसरे कार्यकर्ताओं का रोल भी उतना ही खास है, जितना कि उनका।

जैसा कि तमाम देशों के स्वतंत्रता आंदोलनों व क्रांति में समाचार पत्र-पत्रिकाओं ने अपना विशेष रोल निभाया है, चीन में भी ऐसा ही हुआ, और यान आन उसका केंद्र था। इनमें सिंहुआ न्यूज़ एजेंसी, लिबरेशन डेली, पार्टी न्यूज़ पेपर प्रमुख थे। वर्तमान की सिंहुआ न्यूज़ एजेंसी को रेड चायना न्यूज़ के नाम से जाना जाता था। इनके माध्यम से कोमिंतांग व जापान के खिलाफ़ चल रहे युद्ध के अलावा मार्क्सवाद, लेनिनवाद की सही तस्वीर लोगों के सामने रखी जाती थी। यह भी जानना अहम है, वर्ष 1930 से 1948 के बीच कम्युनिस्ट पार्टी का सेंटर अक्सर बदलता रहता था, उसी के साथ इन पत्र-पत्रिकाओं के ऑफिस भी। आखिर में जब माओ व अन्य नेता बीजिंग शिफ्ट हुए तो सिंहुआ का मुख्यालय यहीं स्थापित किया गया।

जाहिर है चीन में ऐसे तमाम स्थल हैं जो सामंतवाद व अन्य संघर्षों के लिहाज से अपना खास महत्व रखते हैं, इन्हें देखकर यह कहा जा सकता है कि चीनी जनता के दिल में अब भी द्वितीय विश्व युद्ध के साथ-साथ नए चीन के निर्माण की यादें ताज़ा हैं, जो उन्हें अतीत में ले जाकर, भविष्य के प्रति सचेत रहने का संदेश देती हैं।

यह लेख कांदबिनी के जनवरी के अंक में विशेष कवरेज के तौर पर प्रकाशित।

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