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सीआरआई के पहले प्रसारण केंद्र का दौरा (अनिल की यान आन डायरी- तीसरा भाग)
2011-12-21 16:31:22
यान आन को न केवल चीनी क्रांति के रूप में जाना जाता है, बल्कि सीआरआई व सिंहुआ प्रसारण स्टेशन की स्थापना का केंद्र होने के चलते भी इसकी अपनी पहचान है। यहां 3 दिसंबर 1941 को सिंहुआ व सीआरआई की जापानी भाषा रेडियो सेवा की शुरुआत हुई थी। हमें इन स्थानों पर भी जाने का मौका मिला, वर्तमान में बीजिंग में बहुमंजिली इमारत को देखकर शायद ही कोई यह सोच सकता है कि कभी सीआरआई एक गुफा(पहाड़ के नीचे) के छोटे से कमरे से संचालित होता था। इसकी पहली प्रसारक थी युआन छिंग च, उनकी मूर्ति भी वहां स्थापित की गई है, यान आन शहर से कुछ किलोमीटर दूर यह गांव चट्टानों से घिरा हुआ है। यहीं पर स्टूडियो था, जो अब भी संरक्षित है। वैसे हम सभी लोग वहां होने वाले कार्यक्रम में हिस्सा लेने गए, जिसमें सीआरआई के वाइस डाइरेक्टर ने जापान विरोधी युद्ध के मुश्किल दौर से आज के सफल रेडियो स्टेशन की लंबी यात्रा को शब्दों में बयान किया।

क्रांति की याद ताज़ा करता म्यूजियम

यान आन में हमने उस ऐतिहासिक म्यूज़ियम का दौरा भी किया जहां नए चीन के निर्माण के लिए हुए संघर्ष व इतिहास का पूरा, विस्तृत उल्लेख किया गया है। म्यूजियम के बाहर लगी चेयरमेन माओ की एक विशाल मूर्ति उसके महत्व को और बढ़ा देती है। अंदर प्रवेश करते ही हॉल में माओ समेत दूसरे नेताओं की मूर्तियां नज़र आती हैं। दूसरे बड़े कमरों में बहुत सी ऐसी तस्वीरें हैं, जो युद्धकाल की याद दिलाती हैं, इसके अलावा समाचार पत्रों का संग्रह, कम्युनिस्ट साहित्य आदि सभी मौजूद है।

चीनी क्रांति के बारे में गहराई से जानने की हमेशा मेरे मन में जिज्ञासा रही है, बचपन में मैंने नॉर्मन बैथ्यून पर एक किताब पड़ी थी, जिसमें कई ऐसी तस्वीरें थी, जो बिल्कुल इस म्यूजियम की दीवारों पर लगी फोटो से मेल खाती थी। मुझे लगा कि मैं फिर से उसी किताब के पन्ने उलट रहा हूं और बैथ्यून नज़र आ रहे हैं। कनाडा की कम्युनिस्ट पार्टी के सदस्य और जाने-माने सर्जन डा. बैथ्यून ने अपना पूरा जीवन चीनी क्रांति को समर्पित किया। माओ अक्सर पार्टी के सदस्यों और सैनिकों के सम्मुख इसका उल्लेख करते हुए उनसे प्रेरणा लेने की बात कहते थे।

इस म्यूजियम में युद्ध के दौरान भारत द्वारा चीन की मदद के लिए भेजे गए डॉक्टरों के एक दल की फोटो के साथ-साथ जानकारी भी उपलब्ध है, जिसमें डॉ. द्वारकानाथ कोटनिस भी शामिल थे। इसके बाद हम उन जगहों पर गए, जो तमाम नेताओं के रहने का स्थान होने के साथ-साथ बैठकों के केंद्र भी होते थे।

जापानी बमबारी में भी खड़ा रहा पगोडा

गौरतलब है कि द्वितीय विश्व युद्ध में जापान द्वारा की गई बमबारी में यहां लगभग सभी इमारतें नष्ट हो गई थी, लेकिन ऊंचे स्थान पर सिर्फ एक पगोडा(स्तूप) ही सुरक्षित बचा है, हमें बौद्ध धर्म के प्रतीक इस पगोडा को देखने का अवसर भी मिला, यहां से यान-यान का दृश्य वाकई अद्भुत लगता है। यान-यान के आसपास के इलाके में पहाड़ों से लगी हुई कई ऐसी गुफाएं हैं जिनमें लोगों ने जापानी बमबारी से बचने के लिए शरण ली थी। यहां तक कि समाचार पत्र-पत्रिकाओं का काम गुफाओं में ही होता था।

यहां बता दें कि सांशी प्रांत की भौगोलिक स्थिति इतनी विशेष है, जिसके कारण यह हमेशा सैन्य व राजनीतिक घटनाओं का केंद्र रहा है। मध्य काल से ही यह क्षेत्र सामरिक लिहाज से काफी महत्वपूर्ण था, चीन के तमाम राजवंशों ने इसे पाने के लिए युद्ध भी किए, इनमें स्या, सुंग, मंगोल, मिंग व छिंग राजवंश प्रमुख थे। जबकि राष्ट्रवादी कोमिंतांग और जापान के खिलाफ भी यहां व्यापक संघर्ष हुए।

कम्युनिस्ट पार्टी का केंद्र होने की वजह से चेयरमेन माओ और अन्य नेताओं का साक्षात्कार करने एडगर स्नो सहित कई पश्चिमी पत्रकार भी यहां आए। अमेरिका ने यहां अमेरिकिन आर्मी ऑबज़र्वेशन ग्रुप भेजा, जिसका काम कम्युनिस्टों के साथ सहयोग कर जापान के खिलाफ रणनीति तैयार करना था, वर्ष 1944 से 1947 तक इस क्षेत्र में अमेरिकी मौजूद थे, आज भी इस बात के इसके प्रमाण देखे जा सकते हैं।

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