अनिलः आपकी पसंद सुनने वाले सभी श्रोताओं को अनिल का नमस्कार। दोस्तो हम फिर आ गए हैं आपकी फरमाईश के गीत लेकर। हमें उम्मीद है कि आपको प्रोग्राम में पेश होने वाले गीत पसंद आ रहे होंगे।
ललिताः श्रोताओं को ललिता का भी नमस्कार।
अनिलः दोस्तो यह साल फिल्म व संगीत जगत के लिए काफी दुखद रहा है। इस दौरान कई जाने माने-माने कलाकार इस दुनिया को हमेशा-हमेशा के लिए अलविदा कह गए। इनमें गज़ल सम्राट जगजीत सिंह, शम्मी कपूर, भूपेन हज़ारिका और अब अभिनेता देव आनंद। आज के इस प्रोग्राम को हम देव साहब को ही डेडिकेट कर रहे हैं। भले ही देव आनंद ने दशकों तक भारतीय फिल्म जगत पर अपना राज किया हो, लेकिन उनका शुरुआती जीवन मुश्किलों से भरा रहा। सच्चाई यह है कि वे कभी भी मुसीबतों से डरे नहीं और लाइफ के आखिरी दिनों को भी उन्होंने हंस-हंस कर बिताया। और हिंदी सिनेमा में शानदार योगदान के लिए उन्हें फिल्मफेयर अवार्ड के साथ-साथ पद्म भूषण पुरस्कार से भी नवाजा गया। लीजिए प्रोग्राम का आगाज़ हम दोनों फिल्म के इस गीत के साथ कर रहे हैं, जिसे प्रोड्यूस करने के अलावा देवानंद ने अभिनय भी किया था। इसी फिल्म का गीत है मैं ज़िंदगी का साथ निभाता चला गया।
अनिलः दोस्तो काम के प्रति लगन और आत्मविश्वास ने तो धरमदेव आनंद को देव आनंद बनाया ही, उनकी सफलता में उनकी मां का भी बहुत बड़ा हाथ था। गुरदासपुर में पैदा हुए धरमदेव आनंद को अपनी मां से बेहद लगाव था। जब भी उनकी मांग बीमार पड़ती, देव जी बड़ी जी-जान से उनकी सेवा करते। कई-कई मील पैदल चलकर उनके लिए बकरी का दूध और दवाइयां लेकर आते। मां ने सिर पर हाथ फेरकर आशीर्वाद दिया, ' देव, एक दिन तू बहुत बड़ा आदमी बनेगा। ' मां की बात सच साबित हुई। देव दरअसल लाहौर के सरकारी कॉलेज से ग्रैजुएशन के बाद आगे की पढ़ाई के लिए लंदन जाना चाहते थे और उनका चयन भी हो गया था, मगर परिवार की आर्थिक स्थिति आड़े आ गई। वैसे उनके पिता पिशौरीमल आनंद जाने-माने वकील थे, मगर चार बेटों और लंबे-चौड़े परिवार की जिम्मेदारी के कारण उन्होंने देव की सलाह दी कि तू रॉयल नेवी जॉइन कर ले या किसी बैंक में क्लर्क की नौकरी। देव ने नेवी में अप्लाई किया, लेकिन रिजेक्ट हो गए। जेब टटोली तो पूरे 30 रुपये थे। सूटकेस उठाया और फ्रंटियर मेल से पहुंच गए सपनों के शहर मुंबई। दोस्तो, देव साहब के बारे में बातचीत आगे भी जारी रहेगी, पहले सुनते हैं पेइंग गेस्ट फिल्म का ये गीत।
ललिताः देव साहब मुंबई पहुंचने के बाद कुछ दिन बड़े भाई चेतन आनंद के एक मित्र के पास मलबार हिल में रहे। एक दिन भटक रहे थे कि मरीन ड्राइव पर स्कूल का एक सहपाठी मिल गया। रहने का आसरा मिल गया और आर्मी के सेंसर ऑफिस में काम भी। ड्यूटी थी फौजियों द्वारा लिखी और उनके नाम आई चिट्ठियों को पढ़ना और उन्हें सेंसर करना। इस नौकरी का अनुभव बाद में ' हम दोनों ' के डबल रोल में काम आया।
अनिलः देव साहब ने कुछ महीने पहले ही इंटरव्यू में कहा था, रोज सुबह ढेर सारे अखबार पढ़ता हूं, टीवी देखता हूं। जैसे ही कोई खबर क्लिक हुई, मुझे अपनी नई फिल्म का सब्जेक्ट मिल जाता है। दिमाग दौड़ने लगता है और मैं स्क्रिप्ट लिखने में जुट जाता हूं। नौजवानों को देखकर, उनसे मिलकर मुझे एनर्जी मिलती है। मेरी ज़िंदगी का फलसला वही है जो मैं अपनी फिल्म ' हम दोनों ' में बयान कर चुका हूं। चायना रेडियो इंटरनेशनल से आप सुन रहे हैं आपकी पसंद प्रोग्राम और मैं हूं अनिल। लीजिए अब पेश है देवनांद की ही फिल्म सोलवां साल का ये गीत, बोल हैं है अपना दिल तो आवारा।
अनिलः आज हम याद कर रहे हैं सदाबहार हीरो देवानंद को। चलिए अब आपको देव आनंद के बारे में कुछ और बातें बता देते हैं। उन्हें इप्टा के एक नाटक ' जुबैदा ' में ऐक्टिंग का चांस मिला, जिसका निर्देशन बलराज साहनी कर रहे थे। देव आनंद को 10 लाइन का एक डायलॉग दिया गया। रात भर रटते रहे। अगले दिन रिहर्सल में बलराज साहनी को लगा कि बात कुछ जम नहीं रही। वे झुंझला गए और देव को झिड़कते हुए कहा कि तुम कभी हीरो नहीं बन सकते। बस यही बात बात देव के दिल को चुभ गई और यह भी एक संयोग है कि जिस डायलॉग के कारण देव आनंद को बेआबरू होकर ' जुबैदा ' नाटक से बाहर होना पड़ा था, उसी डायलॉग ने उन्हें ' हम एक हैं ' का हीरो बना दिया। इस फिल्म के हीरो पहले उदय कुमार थे लेकिन निर्देशक पी. एल. संतोषी से किसी बात पर अनबन के कारण उन्हें ' हम एक हैं ' से निकाल दिया गया। पुणे में स्क्रीन टेस्ट के दौरान संतोषी ने देव को कोई डायलॉग बोलने को कहा। कैमरा ऑन हुआ। ' जुबैदा ' की दस लाइनों ने असर दिखाया और देव हीरो चुन लिए गए। 1956 में बनी फिल्म सीआईडी में भी देव साहब ने बेहतरीन अभिनय किया, प्रोग्राम का नेक्स्ट सोंग हमने सीआईडी फिल्म से ही लिया है, बोल हैं आंखों ही आंखों में इशारा हो गया।
अनिलः संघर्ष और जरूरत के वक्त देव आनंद को इस्मत चुगतई ने अशोक कुमार से मिलवाया और उन्होंने देव को फौरन ' जिद्दी ' में हीरो के रूप में साइन कर लिया था। इस फिल्म की सफलता ने देव को स्टारडम की सीढ़ी थी। देव ने अशोक कुमार का एहसान चुकाने के लिए अपनी फिल्म ' ज्वेल थीफ ' में उन्हें एक खास रोल ऑफर किया। हालांकि यह बेहद चौंकाने वाला रोल था, लेकिन निगेटिव, इसलिए अशोक कुमार हिचक रहे थे लेकिन देव आनंद के प्यार और इसरार के आगे उन्होंने हथियार डाल दिए और ' ज्वेल थीफ ' में उनके काम की तारीफ भी हुई। वहीं गाइड फिल्म में देवनांद ने सफलता के झंडे ही गाड़ दिए। गाइड ने न केवल देव आनंद बल्कि वहीदा रहमान को भी अंतरराष्ट्रीय ख्याति दिलाई। आर के नारायण के उपन्यास पर आधारित गाइड अंग्रेजी और हिंदी दो भाषाओं में बनी। लीजिए गाइड फिल्म का ही गीत हम पेश कर रहे हैं।
अनिलः पचास और साठ के दशक में भारतीय सिनेमा पर त्रिमूर्ति यानी राज कपूर, देव आनंद और दिलीप कुमार का राज रहा। हालांकि दो की जोड़ी में तो अलग-अलग साथ काम किया था, मगर किसी फिल्म में तीनों एक साथ नजर नहीं आए। सो, विजय आनंद ने राज कपूर, देव आनंद और दिलीप कुमार की त्रिमूर्ति को एक साथ जुटाने की बंपर योजना बनाई। फिल्म का नाम रखा ' एक दो तीन चार ', जिसे बनाने को निर्माता मुशीर-रियाज तैयार हो गए। मगर जब स्क्रिप्ट सुनाने का मौका आया तो तीनों नायकों को खुश करना इतना आसान नहीं था। राज और देव ने तो अंततः हरी झंडी दे भी दी, लेकिन दिलीप कुमार स्क्रिप्ट से पूरी तरह संतुष्ट नजर नहीं आए। उन्होंने स्क्रिप्ट में बदलाव के कुछ ऐसे सुझाव दिए कि योजना वहीं रोक दी गई। उन तीनों को किसी फिल्म में एक साथ देखने का वह अनोखा रोमांच होता। दोस्तो आज का प्रोग्राम अब समापन की ओर बढ़ रहा है। लीजिए प्रोग्राम के अंत में सुनते हैं वर्ष 1955 में बनी फिल्म मुनीम जी का ये गीत, बोल हैं जीवन के सफर में राही।
अनिलः दोस्तो देव साहब के बारे में कहने व सुनने के लिए बहुत कुछ है, लेकिन हमारे पास वक्त की कमी है। प्रोग्राम के आखिर में मैं उनके लिए कुछ चंद शब्द कहना चाहूंगा। जिंदगी का हर पल जीने वाले देव आनंद भले ही अब हमारे बीच न रहे हों, लेकिन उनकी जिंदादिली हमेशा सभी के दिलों में जिंदा रहेगी। दोस्तो इसी के साथ आज का प्रोग्राम समाप्त होता है। अब हमें आज्ञा दें, नमस्कार।