हाल के एक समय में समुद्र सवाल के ईर्दगिर्द अमेरिका की हरकतें बड़ी सक्रिय रही हैं। पहले, उस ने फिलिपीन्स और वियतनाम के साथ दक्षिण चीन सागर में अलग अलग संयुक्त युद्धाभ्यास किया, जापान, दक्षिण कोरिया और ओस्ट्रेलिया को फिलिपीन्स को सीधे सैनिक सहायता देने के लिए उकसाया, फिर अमेरिकी विदेश मंत्री, अमेरिकी रक्षा मंत्री तथा अध्यक्ष ओफ ज्वाइंट चीफ स्टाफ ने मिलकर संसद की मीटिंग में समुद्र कानून के बारे में संयुक्त राष्ट्र संधि यानी युएनसीएलओएस को अनुमति देने की आवश्यकता पर बल दिया। इस के अलावा अमेरिका ने ओकिनावा में जापान व दक्षिण प्रशांत द्वीप देशों के शिखर सम्मेलन में भाग लिया और कुछ दिनों बाद अमेरिकी रक्षा मंत्री सिन्गापुर में शानगरिला एशिया सुरक्षा सम्मेलन में भी जाएंगे, वहां वे आसियान देशों को बहुपक्षीय ढांचे में दक्षिण चीन सागर मसले पर विचार विमर्श करने के लिए प्रोत्साहित करेंगे। अखिरकार अमेरिका किस उद्देश्य में इस प्रकार की हरकतें करता रहा है?यह सर्वविदित है कि अपनी इन कार्यवाहियों में उस ने चीन को लक्षित कर दिया है।
सीधी सी बात यह है कि अमेरिका ने दक्षिण चीन सागर को लेकर इतनी ज्यादा कार्यवाहियां जो की हैं, उस का लक्ष्य चीन के खिलाफ है, वह चाहता है कि इस के सहारे वह दक्षिण चीन सागर सवाल में हस्तक्षेप करने के लिए बहाना बना सके और अपना स्वार्थ सिद्धा करने केलिए चीन की समुद्री शक्ति के विकास रोक सके।
लेकिन इन कार्यवाहियों के पीछे अमेरिका का अपना अकथनीय मकसद भी है। एक शक्तिशाली समुद्री देश होने के नाते अमेरिका कभी भी अन्तरराष्ट्रीय कानून से बंधित होना नहीं चाहता, वह समुद्र पर दूसरे देशों के प्राधिकरण को स्वीकार करने को कभी भी तैयार नहीं और 12 समुद्री मील की सीमा भी मानना नहीं चाहता। वह चाहता है कि उस की नौ सेना के जहाज बेरोकटोक समुद्रों में तैरते फिरते रहें और उसके लिए समुद्रों में आर्थिक दोहन हमेशा अबाध्य रहे। इसी के कारण पिछले दसियों सालों में उस ने युएनसीएलओएस पर हस्ताक्षर नहीं किया।
इस सदी के आरंभिक काल में आतंक विरोध के नाम से अमेरिका ने अपनी सैनिक शक्ति एशिया-यूरोप महाद्वीप के भीतरी इलाके पर तैनात की और ईरान, रूस व चीन को बगल में रोकने की कोशिश भी कर रहा है, लेकिन इस का वांछित नतीजा नहीं निकला, उलटे बड़े देशों के बीच तानातनी भी बढ़ी। इसी बीच अमेरिका को यह महसूस भी हुआ कि समुद्र पर उस के आधिपत्य को नवोदित देशों की चुनौतियों का सामना करना पड़ा, खासकर चीन की नौ सेना तथा समुद्र में चीन के दोहन व विकास की शक्ति बढ़ने से उस के लिए एक बड़ी चुनौति आयी। अतः उसने दुनिया में दादागिरी का स्थान बनाए रखने के लिए नयी नीति चुनी।
बराक ओबामा के सत्ता पर आने के बाद अमेरिका प्रशासन ने नयी रणनीति लागू की और समुद्र पर अपना प्रभुत्व मजबूत करने का निश्चय किया। इसी नीति से प्रेरित होकर अमेरिका ने अपनी रणनीति का जोर पूर्वी एशिया पर लगाया। जनवरी 2012 में उसने जो नयी सैनिक रणनीति घोषित की है, उससे जाहिर है कि अमेरिका अपनी नयी योजना में पश्चिमी प्रशांत महासागर में अपनी सैनिक श्रेष्ठता बढ़ाएगा। इसके अलावा अमेरिका अपनी नयी सैनिक संतुलन योजना के मुताबिक अपने सैनिक मित्र देशों व रणनीतिक साझेदारों को अपने रणनीतिक हित के साथ बांध लिया, उन्हें अमेरिका के प्रति उभरी चुनौतियों का मुकाबला करने केलिए आगे ढकेल दिया। इससे उसे तीन लाभ मिलेगाः एक, अपनी सुरक्षा के लिए उन के द्विपक्षीय सैनिक गठबंध को बहुपक्षीय गठबंध में बदला जाएगा और चीन व इन देशों के बीच संबंधों को बिगाड़ दिया जाएगा। दूसरा, समुद्र में चीन की शक्ति को बढ़ने से रोका जाएगा, साथ ही चीन का सीधा सामना करने से भी बचेगा। तीसरा, अमेरिका अपनी रणनीतिक हितों के लिए अन्तरराष्ट्रीय मापदंड व्यवस्था बना सकेगा जिससे चीन जैसे रणनीतिक प्रतिद्वंदियों को वशीभूत किया जाएगा।
दक्षिण चीन सागर का सवाल असल में चीन और कुछ एक दक्षिण पूर्व एशियाई देशों के बीच का मामला है, किन्तु चीन को रोकने केलिए अमेरिका ने आसियान देशों को चीन के साथ नया मापदंड बनाने केलिए उकसाया, ताकि उसे भी दक्षिण चीन सागर सवाल में पांव अड़ाने का मौका मिले। अब सवाल यह है कि अमेरिका ने समुद्र कानून के बारे में संयुक्त राष्ट्र संधि में हिस्सा नहीं लिया, इसलिए वह आसियान देशों या मित्र देशों के साथ समान कानूनी आधार पर तालमेल करने में असमर्थ लगा। इसी वजह से अब वह समझता है कि वह भी संधि का सदस्य बनना चाहिए, ताकि संधि की कुछ अनुचित धाराओं का बेजा फायदा उठाकर चीन के हितों को दबा डाले।
उक्त तथ्यों से जाहिर है कि अमेरिका अब इसलिए पुनः समुद्र में बढ़ रहा है, क्योंकि वह अपनी ताकतवर सैनिक शक्ति, गठबंधन बनाने तथा मानदंड व्यवस्था के जरिए समुद्री मामलों में अपनी दादागिरी बनाए रखना चाहता है। दक्षिण चीन सागर में उस की सक्रियता समुद्र पर अपने प्रभुत्व मजबूत करने का एक द्योतक है।