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    भारत-चीन के साथ आने का समय
    2014-09-15 14:38:55 cri

    अनिल आजाद पांडेय, चाइना रेडियो इंटरनेशनल, बीजिंग

    जब से दिल्ली में नई सरकार बनी है, भारत-चीन संबंधों को लेकर चर्चा तेज हो गई है। इसी बीच चीन के राष्ट्रपति शी जिनपिंग मध्य और दक्षिण एशियाई देशों की यात्रा के अंतिम पड़ाव में भारत पहुंच रहे हैं। नरेंद्र मोदी की जापान यात्रा पर करीब से नजर बनाए चीन इसे भारत के साथ रिश्ते बेहतर बनाने का महत्वपूर्ण मौका मान रहा है। गुजरात का मुख्यमंत्री रहते हुए मोदी चार बार चीन के दौरे पर आए थे। अक्सर वह अपने भाषणों में चीन के विकास मॉडल का जिक्र भी करते हैं। चीनी कंपनियां पहले से ही गुजरात में मौजूद हैं। अब चीन के राष्ट्रपति मोदी के जन्मदिन पर गुजरात जाएंगे। गुजरात का उल्लेख इसलिए भी अहम है कि हाल में चीन वहां के बारे में जानने के लिए उत्सुक रहा है। मोदी के पीएम बनने के बाद चीन के क्वांगदोंग प्रांत की तुलना गुजरात से की जा रही है। क्वांगदोंग आर्थिक विकास के मामले में चीन में पहले नंबर पर है।

    यह भी संयोग है कि पाकिस्तान में राजनीतिक संकट के चलते चीन के राष्ट्रपति का पाकिस्तान दौरा रद्द हो गया है। भारत इसका लाभ उठाना चाहेगा। 1962 के भारत-चीन युद्ध के बाद यह पहली बार होगा कि चीन का कोई राष्ट्रपति पाकिस्तान जाए बिना भारत जाए। भले ही जापान से भारत को निवेश की बड़ी उम्मीदें हैं, लेकिन चीन को दरकिनार करना भारत के लिए आसान नहीं होगा। उसके पास अच्छी तकनीकें सस्ते दाम पर उपलब्ध हैं। जिस समय भारत में जोर-शोर से बुलेट ट्रेन की बात चल रही है, उस समय में चीन दुनिया का सबसे लंबा हाई स्पीड रेल नेटवर्क बना चुका है। द्विपक्षीय व्यापार की बात करें, तो दोनों देशों का आपसी व्यापार 70 अरब डॉलर के करीब है। साल 2015 तक इसे 100 अरब डॉलर तक पहुंचाने का मुश्किल लक्ष्य रखा गया है। चीन, भारत का सबसे बड़ा बिजनेस पार्टनर भी है। चीन में पिछले तीन दशकों से रह रहे फिक्की के कार्यकारी निदेशक अतुल डालाकोटी के अनुसार, यह द्विपक्षीय व्यापार संतुलित नहीं है, इसमें भारतीय पक्ष को सालाना 35 अरब डॉलर का घाटा उठाना पड़ रहा है। वह मानते हैं कि दोनों देशों के बीच व्यापार असंतुलन को पाटने के लिए चीन को भारत में बड़ी इन्फ्रास्ट्रक्चर परियोजनाओं पर काम करना चाहिए और चीन के बैंकों को इनके लिए ऋण देना चाहिए।

    भारत में ऐसी बहुत सारी परियोजनाएं हैं, जो बीच में ही अटकी हैं, चीन इनमें भारत की बड़ी मदद कर सकता है। चीन को इस समय जिस तरह के बाजार की जरूरत है, उसे वह बाजार भारत में मिल सकता है। भारत के लिए भी चीन में निर्यात के कई मौके हैं। भारत इंजीनियरिंग उत्पादों, आईटी सर्विसेस, कॉटन टेक्सटाइल, होम फर्निशिंग और फार्मा सेक्टर से जुड़ी कंपनियों को चीन के बाजार में काम करने के अधिक से अधिक अवसर दिलाना चाहेगा। भारत से होने वाले अयस्कों का निर्यात भी अगले कुछ समय में बढ़ सकता है।

    इसके अलावा, पर्यटन एक ऐसा क्षेत्र है, जो भारत के लिए फायदे का सौदा बन सकता है। इस समय दुनिया भर में विदेश यात्रा पर जाने वाले सबसे अधिक पर्यटक चीन के हैं, लेकिन इनमें भारत भ्रमण करने वालों की तादाद बहुत कम होती है। अभी तक चीन के पर्यटकों को आकर्षित करना भारत की प्राथमिकताओं में नहीं रहा है। अब अगर इस ओर ध्यान दिया जाए, तो भारत का पर्यटन बाजार बदल सकता है। लेकिन इसके लिए पर्यटकों की सुविधाओं और सुरक्षा पर विशेष ध्यान देना होगा। अंतरराष्ट्रीय परिदृश्य और संतुलन के लिहाज से देखें, तो चीन और भारत को जलवायु परिवर्तन और ब्रिक्स देशों के मंच पर एक-दूसरे के सहयोग की आवश्यकता है।

    अंतरराष्ट्रीय स्तर पर ऐसे बहुत सारे मंच हैं, जिन पर भारत और चीन अगर एक साथ खड़े हों, तो बहुत कुछ हासिल कर सकते हैं। वे इस दिशा में काम भी कर रहे हैं। लेकिन प्राचीन सभ्यता वाले इन दोनों देशों के बीच कई स्तरों पर विश्वास की कमी है। चीन के राष्ट्रपति की यात्रा से अगर बहुत ज्यादा उम्मीद न बांधी जाए, तब भी इस दिशा में एक शुरुआत तो हो सकती है। परस्पर अविश्वास का सबसे बड़ा कारण दोनों देशों के बीच दशकों से चला आ रहा सीमा विवाद है। वास्तविक नियंत्रण रेखा को लेकर दोनों देशों का अलग-अलग रुख है। भारत का आरोप है कि सीमा पर चीनी सेना की ओर से समय-समय पर घुसपैठ होती रहती है। पिछले दिनों भी भारतीय मीडिया में इस तरह की खबरें आईं, बाद में इसका खंडन भी किया गया। जहां तक चीन की बात है, तो वह आधिकारिक रूप से अरुणाचल प्रदेश को भारत का हिस्सा नहीं मानता।

    चीन मैकमोहन रेखा को अंग्रेजों द्वारा निर्धारित की गई सीमा रेखा करार देता है। लद्दाख में अक्साई चिन क्षेत्र पर चीन का लंबे समय से नियंत्रण रहा है, लेकिन भारत इस विशाल इलाके को अपना हिस्सा बताता है। ये सारे ऐसे मसले हैं, जो बहुत जल्दी सुलझने वाले नहीं हैं। साल 2003 से सीमा मुद्दे पर दोनों देशों के विशेष प्रतिनिधियों की 17 वार्ताएं हो चुकी हैं। सीमा मसले का जल्द हल खोजना और इस यात्रा के दौरान इस पर कोई बड़ी उपलब्धि हासिल होने की उम्मीद बहुत कम है। लेकिन इतना तय है कि दोनों देश सीमा पर यथास्थिति बनाए रखने और वार्ता जारी रखने पर जोर देंगे। लोकसभा चुनावों के दौरान चीन के बारे में तीखी टिप्पणी करने वाले मोदी के रुख में आई नरमी को चीन ने भी नोट किया है। फिलहाल जोर इस बात पर रहेगा कि किस तरह सीमा विवाद के बावजूद आपसी रिश्ते और खासकर व्यापारिक रिश्ते मजबूत किए जाएं।

    पड़ोसी देशों के साथ भारत के संबंधों का उल्लेख करें, तो पूर्ववर्ती यूपीए सरकार द्वारा इन देशों को अधिक तवज्जो न दिए जाने का लाभ चीन को मिला है। वह नेपाल, श्रीलंका, बांग्लादेश आदि देशों में भारी निवेश कर रहा है। लेकिन अब प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी जिस तरह सार्क देशों के साथ रिश्ते मजबूत करने की कोशिश कर रहे हैं, उससे स्थिति बदल सकती है। एशिया की दो बड़ी ताकतों के बीच आपसी विवाद के आगे भी करने के लिए बहुत कुछ है। भारत-चीन का करीब आना इन दोनों देशों के लिए और नई विश्व व्यवस्था के लिए फायदेमंद साबित हो सकता है। व्यापार इसमें सबसे बड़ी भूमिका निभा सकता है। यह अपने बाजारों को एक-दूसरे के लिए खोलने का समय है।

    (ये लेखक के अपने विचार हैं)

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