मध्यप्रदेश के आदिवासी क्षेत्रों में बच्चों को कुपोषण और विकास संबंधी समस्याओं का सामना करना पड़ता है। गरीबी इसका मूल कारण है, उनके आहार में दुग्ध उत्पादों, फलों और सब्जियों की मात्रा ना के बराबर होती है और केवल 20 फीसदी आदिवासी परिवारों में स्वच्छ पेयजल की सुविधा है। भारत सरकार द्वारा जारी ''रिर्पोट ऑफ द हाई लेबल कमेटी आन सोशियो इकोनॉमिक, हेल्थ एंड एजुकेशनल स्टेटस ऑफ ट्राइबल कम्यूनिटी'' 2014 के अनुसार राष्ट्रीय स्तर पर आदिवासी समुदाय में शिशु मृत्यु दर 88 है जबकि मध्यप्रदेश में यह दर 113 है। इसी तरह से राष्ट्रीय स्तर पर 5 साल से कम उम्र के बच्चों की मृत्यु दर 129 है, वहीं प्रदेश में यह दर 175 है, आदिवासी समुदाय में टीकाकरण की स्थिति चिंताजनक है। रिर्पोट के अनुसार देश में 12 से 23 माह के बच्चों के टीकाकरण की दर 45.5 है जबकि मध्यप्रदेश में यह दर 24.6 है। 2015 की कैग रिपोर्ट ने जिन आदिवासी बाहुल्य राज्यों की कार्यप्रणाली पर प्रश्न चिन्ह लगाये थे उसमें मध्यप्रदेश भी शामिल है। इस रिपोर्ट में मध्यप्रदेश के जनजातीय क्षेत्रों में कुपोषण पर प्रदेश सरकार के प्रयास नाकाफी बताए गए हैं। कैग रिपोर्ट के मुताबिक तेरह जिलों में आंगनवाड़ियों में पोषण आहार के बजट में गड़बडियां पायी गयी। रिपोर्ट के अनुसार आदिवासी क्षेत्रों की आंगनवाड़ियां सुचारु रुप से संचालित नहीं हैं और वहां पोषण आहार का वितरण ठीक से नहीं होता।
मध्य प्रदेश में कुपोषण के आकंड़ों को लेकर बहुत भ्रम की स्थिति है। प्रदेश में 5 साल से कम उम्र के लगभग 1 करोड़ 10 लाख बच्चे हैं। एक तरफ केन्द्र सरकार द्वारा जारी "नेशनल फैमली हेल्थ सर्वे-4" की रिर्पोट के अनुसार मध्यप्रदेश में 5 साल से कम आयु के 42.8 फीसदी (लगभग 47 लाख 8 हजार) बच्चे कम वजन के हैं जिनमें 9.2 फीसदी (लगभग 10 लाख) बच्चे अतिकुपोषित हैं। वही दूसरी तरफ मध्यप्रदेश के महिला और बाल विकास विभाग के अनुसार 2016 में जिन 71.90 लाख बच्चों का वजन लिया गया उसमें 18.6 फीसदी (लगभग 13 लाख) बच्चे कुपोषित पाये गये यानी इसमें भी 2 प्रतिशत बच्चे ही अतिकुपोषित बताये गये हैं। अगर इन दोनों आकंड़ों की तुलना की जाये तो प्रदेश के लगभग 34 लाख कुपोषित और 8.56 लाख अतिकुपोषित बच्चे मध्य प्रदेश सरकार के आकंड़ों में ही नहीं आते।
मध्यप्रदेश में पिछले 12 सालों में 7800 करोड़ का पोषण आहार बंटा है। फिर भी शिशु मृत्यु दर (आईएमआर) में मध्यप्रदेश पहले नंबर पर और कुपोषण में दूसरे स्थान पर है। इसी तरह से पिछले 3 सालों में मध्यप्रदेश सरकार ने स्वास्थ्य विभाग को 13,715 करोड़ एवं महिला और बाल विकास को 13,645 करोड़ का बजट दिया। सवाल ये है कि इतनी भारी भरकम रकम खर्च होने के बाद जमीनी स्तर पर कोई प्रभाव देखने में क्यों नहीं आ रहा?
मध्यप्रदेश की महिला और बाल विकास मंत्री ने दिसंबर 2014 में अपने विभाग का रिर्पोट कार्ड पेश करते हुए कहा कि 'राज्य से कुपोषण खत्म करने के लिए कई स्तर पर प्रयास किये गये हैं'। उन्होंने बताया कि सरकार द्वारा बच्चों को आंगनवाड़ी से जोड़ने के लिए आंगनवाड़ी चलो अभियान, जहां आंगनवाड़ी केन्द्र नहीं है या जो बच्चे अस्थायी बसाहट में रहते हैं उनके लिए चलित आंगनवाड़ी 'जुगनू' की शुरुआत की गई, स्नेह शिविर और गृह भेंट, कुपोषण के विरुद्ध सुपोषण अभियान, कुपोषित बच्चों की निगरानी व उनके पुर्नवास के लिए डे केयर सेंटर कम क्रेश की स्थापना की गई। समाज को इस अभियान से जोड़ने के लिए सरोकार योजना की शुरुआत भी की गई जिसमें समाज के सक्षम लोग कुपोषित बच्चों को सुपोषित करने की जिम्मेदारी उठाते हैं।
तमाम योजनाओं, कार्यक्रमों और पानी की तरह पैसा खर्च करने के बावजूद दस साल पहले और आज की स्थिति में कोई खास बदलाव देखने को नहीं मिला। मध्यप्रदेश शिशु मृत्यु दर के मामले में लगातार 11 साल से पूरे देश में पहले नंबर पर बना हुआ है। मध्य प्रदेश में बच्चों के कुपोषण में कमी की वार्षिक दर 1.8 प्रतिशत ही है। राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वेक्षण के आकड़ों पर नजर डालें तो एनएफएचएस-3 के दौरान जहां मध्यप्रदेश में पांच साल तक के 60 प्रतिशत बच्चे कम वजन के पाए गये थे वहीं एनएफएचएस-4 के दौरान यह दर घट कर 42.8 प्रतिशत जरूर हुई है लेकिन मध्यप्रदेश अभी भी इस मामले में दूसरे नम्बर पर बना हुआ है। ध्यान रहे 1992-93 में जारी राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य के पहले सर्वेक्षण में कुपोषण के मामले में मध्यप्रदेश सातवें स्थान पर था।
दूसरी तरफ अभी तक आईसीडीएस सेवाओं की पहुंच प्रदेश के सभी बच्चों तक नहीं हो सकी है, वर्तमान में मध्यप्रदेश में करीब 80,160 आंगनवाड़ी और 12,070 मिनी आंगनवाड़ियां हैं। नियमों के अनुसार 1000 की आबादी पर 1 आंगनवाड़ी केन्द्र और 500 की जनसंख्या पर 1 मिनी आंगनवाडी केन्द्र होना चाहिए। इस हिसाब से मध्यप्रदेश में करीब एक चौथाई बच्चे अभी भी आंगनवाड़ी सेवाओं की पहुंच से बाहर हैं, इस कमी को पूरा करने के लिए करीब डेढ़ लाख नए आंगनवाड़ी केन्द्रों की जरुरत है।
इतना सब होने के बावजूद मध्यप्रदेश के वर्तमान बजट (2015-16) में कमी करते हुए एकीकृत बाल विकास सेवा योजना में 211 करोड़ रुपये और बच्चों के पोषण आहार में 163 करोड़ रुपये की कटौती की गयी है।
प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष अरुण यादव ने आरोप लगाया कि ''हर साल 22 अरब रुपये खर्च करने के बावजूद अगर मध्यप्रदेश में कुपोषण खत्म नहीं हो पाया है तो इसका कारण भ्रष्टाचार है"। दरअसल प्रदेश में कुपोषण समाप्त करने के लिए कई योजनायें चलायी गईं, पिछले 12 सालों में 7719 करोड़ का पोषण आहार बांटा गया लेकिन फिर भी शिशु मृत्युदर में मध्यप्रदेश टॉप पर है, ऐसे में सवाल उठाना लाजिमी है। सबसे ज्यादा सवाल पोषण आहार सिस्टम पर खड़े हो रहे हैं। आंगनवाड़ियों के जरिए कुपोषित बच्चों और गर्भवती महिलाओं को दी जाने वाली पोषणाहार व्यवस्था को लेकर लम्बे समय से सवाल उठते रहे हैं। 1200 करोड़ रुपए के बजट वाली इस व्यवस्था पर तीन कंपनियों- एम.पी. एग्रो न्यूट्री फूड प्रा.लि., एम.पी. एग्रोटॉनिक्स लिमिटेड और एमपी एग्रो फूड इंडस्ट्रीज का कब्ज़ा रहा है। जबकि 2004 में ही सुप्रीम कोर्ट ने फैसला दिया था कि आंगनवाड़ियों में पोषण आहार स्थानीय स्वयं सहायता समूहों द्वारा ही वितरित किया जाये। सुप्रीमकोर्ट द्वारा इस व्यवस्था को लागू करने की जिम्मेदारी मुख्य सचिव और गुणवत्ता पर निगरानी की जिम्मेदारी ग्राम सभाओं को दी गई थी। लेकिन कंपनियों को लाभ पहुंचाने के फेर में इस व्यवस्था को लागू नहीं किया गया।