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    मध्य प्रदेश में कुपोषण का काल- पहला भाग
    2017-04-21 20:15:04 cri

    आज हम कुपोषण से जुड़ी एक रिपोर्ट साझा करना चाहते हैं। इस रिपोर्ट के लेखक हैं जावेद अनीस, जो एक स्तंभकार व समाजसेवी हैं।

    विदिशा के जिला अस्पताल में भर्ती एक साल के नन्हे सुरेश के शरीर से जब ब्लड सैंपल लेने की जरूरत पड़ी तो उसकी रगों से दो बूंद खून निकालने के लिए भी डाक्टरों को बहुत मुश्किल पेश आयी। दरअसल गंभीर रूप से कुपोषित होने की वजह से उसका वजन मात्र 3 किलो 900 ग्राम ही था जबकि एक साल के किसी सामान्य बच्चे का औसत वजन 10 किलो होना चाहिए। आखिरकार इस बच्चे को बचाया नहीं जा सका और सूबे के लाखों बच्चों की तरह उसकी भी कुपोषण से मौत हो गयी। यह घटना मध्यप्रदेश में कुपोषण की त्रासदी का मात्र एक उदाहरण है। सुरेश की तरह प्रदेश के सैकड़ों बच्चे हर रोज कुपोषण व बीमारी से जिन्दगी और मौत के बीच जूझने को मजबूर हैं।

    ज्यादा दिन नहीं हुए जब मध्य प्रदेश में सरकार ने 'आनंद मंत्रालय' खोलने की घोषणा की, मंत्रालय खुल भी गया। लेकिन अब इसी मध्यप्रदेश सरकार को "कुपोषण की स्थिति" को लेकर श्वेत पत्र लाने को मजबूर होना पड़ा है। करीब एक दशक बाद जब प्रदेश में कुपोषण की भयावह स्थिति एक बार फिर सुर्खियां बनने लगीं तो "विकास" के तथाकथित मध्यप्रदेश मॉडल के दावे खोखले साबित होने लगे। जमीनी हालात बता रहे हैं कि तमाम आंकड़ेबाजी और दावों के बावजूद मध्यप्रदेश "बीमारु प्रदेश" के तमगे से बहुत आगे नहीं बढ़ सका है।

    मध्यप्रदेश में कुपोषण की घटनाएं नई नहीं हैं। करीब एक दशक पहले भी यह मामला बहुत जोर–शोर से उठा था और मध्य प्रदेश को भारत के सबसे कुपोषित राज्य का कलंक मिला था। उस समय भी कुपोषण के सर्वव्यापीकरण का आलम यह था कि 2005 से 2009 के बीच राज्य में 1 लाख 30 हजार 2 सौ 33 बच्चे मौत के काल में समा गये थे। फरवरी 2010 में मध्यप्रदेश के तात्कालिक लोक स्वास्थ मंत्री ने विधानसभा में स्वीकार किया था कि राज्य में 60 फीसदी बच्चे कुपोषण से ग्रस्त है। 2006 में भी श्योपुर जिला कुपोषण के कारण ही चर्चा में आया। ऐसा लगता है कि इतने सालों में सरकार ने कोई सबक नहीं सीखा है। 2016 में फिर वही कहानी दोहरायी जा रही है। इस बार भी श्योपुर ही चर्चा के केंद्र में है। इसी के बाद सब का ध्यान एक बार फिर राज्य में कुपोषण की गंभीर स्थिति पर गया है।

    श्योपुर जिले के सहरिया बहुल गावों में भयावह स्तर पर कुपोषण की खबरें सामने आने के बाद शासन द्वारा वहां भेजी गई टीमों को 66 गावों में 240 कुपोषित बच्चे मिले जिसमें 83 बच्चे तो अतिकुपोषित थे। टीम ने बताया 'वहां हालत इतनी गंभीर हैं कि इसके लिए संसाधन और तैयारियां कम पड़ रही हैं। इतनी ज्यादा संख्या में कुपोषित बच्चे मिल रहे हैं कि उनके इलाज के लिए जिले के पोषण पुर्नवास केन्द्र में जगह की कमी पड़ रही है। ऐसा नहीं है कि मध्यप्रदेश सरकार को श्योपुर में कुपोषण की गंभीरता का अंदाजा नहीं है। वर्ष 2016 के फरवरी में श्योपुर के विधायक रामनिवास रावत द्वारा विधानसभा में कुपोषण को लेकर सवाल पूछा गया था जिसके जवाब में मध्यप्रदेश सरकार ने बताया कि श्योपुर जिले में अप्रैल 2014 से जनवरी 2016 के बीच कुल 1280 बच्चे (0 से 6 साल के 1160 और 6 से 12 साल के 120 बच्चे) कुपोषण के कारण मौत का शिकार हुए। इन सबके बावजूद इस पूरी स्थिति को लेकर मध्यप्रदेश शासन के महिला और बाल विकास विभाग के प्रमुख के बयान के मुताबिक 'बच्चों की मौत का कारण कुपोषण नहीं, बल्कि बीमारी है।

    पिछले दिनों मध्यप्रदेश सरकार के आला अधिकारियों ने श्योपुर जिले का दौरा कर वहां की जो तस्वीर पेश की, वह मध्यप्रदेश सरकार के लिए आईना है। अधिकारियों का मानना है इस जिले में सहरिया जनजाति बहुल गावों में अभी तक बिजली और सड़क जैसी बुनियादी सुविधायें नहीं पहुंच पाई हैं, एक कमरे के मकान में पूरे परिवार के लोग पालतू जानवरों के साथ रहते हैं। इन कमरों में न कोई खिड़की है न हवा, कई गावों में तो शौचालय तक नहीं है, गरीबी और बेरोजगारी इतनी ज्यादा है कि लोगों के पास खाने तक का कोई इंतजाम नहीं है। ज्यादातर महिलाएं खून की कमी और बच्चे कुपोषण के शिकार हैं। पीने के लिए साफ पानी की व्यवस्था न होने के कारण हर घर में आए दिन लोग उल्टी-दस्त के शिकार होते हैं।

    राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग का मध्य प्रदेश सरकार को नोटिस

    श्योपुर जिले में कुपोषण से बच्चों की मौत के मामले में राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग ने मध्यप्रदेश सरकार को नोटिस भेजकर चार सप्ताह के अंदर जवाब मांगा है। अपने नोटिस में आयोग ने कहा कि 'बच्चों के स्वास्थ्य की देखभाल नहीं होना और उनका कुपोषित होना मानवाधिकार का उल्लंघन है, महिलाओं और बच्चों को पौष्टिक तथा संतुलित आहार उपलब्ध करवाना राज्य सरकार का कर्तव्य है'। आयोग ने चिंता जताई है कि पुनर्वास केंद्रों में भारी भीड़ होने की वजह कुपोषित बच्चों को बिस्तर तक उपलब्ध नहीं हो पा रहे हैं और उन्हें मजबूरन जमीन पर सोना पड़ रहा है।

    कुपोषण के मुद्दे को एक बार फिर तूल पकड़ते हुए देखकर मध्यप्रदेश के विपक्षी दल भी सक्रिय हो गये हैं। विपक्षीय कांग्रेस कुपोषण के मुद्दे पर सरकार को घेरने की पूरी कोशिश कर रही है। कांग्रेस ने आरोप लगाया है कि सरकार में भ्रष्टाचार की जड़ें बहुत गहरी हैं और इसी वजह से वह 22 अरब रूपए खर्च करने के बावजूद भी प्रदेश के बच्चों को कुपोषण से मुक्त नहीं करवा पायी है। कुपोषण के मुद्दे को लेकर मध्यप्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष अरुण यादव द्वारा 19 सितम्बर को भोपाल में मौन धरना दिया गया। इन दिनों प्रदेश में सक्रिय ज्योतिरादित्य सिंधिया भी इस मुद्दे को उठा रहे हैं। उन्होंने श्योपुर का दौरा भी किया जिसके बाद उन्होंने कहा कि '21वीं सदी में हमारे प्रदेश में इस तरह की घटनाएं हम सभी के माथे पर कलंक है, मध्यप्रदेश सरकार दावा करती है कि कुपोषण मिटाने के लिए हर माह करोड़ों रुपये खर्च किये जा रहे हैं, अगर यह बात सच है तो ये पैसे कहां जा रहा है? इसकी जांच बहुत गहराई से की जाने की जरुरत है'। ज्योतिरादित्य सिंधिया ने केन्द्रीय महिला और बाल विकास मंत्री मेनका गांधी से मिल कर उन्हें मध्यप्रदेश में कुपोषण की गंभीरता और उसके कारण लगातार हो रही बच्चों की मौतों से अवगत भी करवाया जिसके बाद मेनका गांधी ने श्योपुर केन्द्रीय जांच दल भेजकर इस पर रिर्पोट मांगी।

    राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वेक्षण-4 (एनएफएचएस 2015-16) के अनुसार मध्यप्रदेश कुपोषण के मामले में बिहार के बाद दूसरे स्थान पर है। यहां अभी भी 40 प्रतिशत बच्चे कुपोषित हैं, कुपोषण के सबसे ज्यादा शिकार आदिवासी समुदाय के लोग हैं। सबसे ज्यादा प्रभावित जिलों में श्योपुर (55 प्रतिशत), बड़वानी (52.7 प्रतिशत), मुरैना (52.2 प्रतिशत) और गुना (51.2 प्रतिशत) शामिल हैं। कुपोषण के कारण इन बच्चों का ठीक से विकास नहीं हो पाता और उनकी ऊंचाई व वजन सामान्य से कम रह जाते हैं। रिर्पोट के अनुसार सूबे में 5 साल से कम उम्र के हर 100 बच्चों में से लगभग 40 बच्चों का विकास ठीक से नहीं हो पाता। इसी तरह 5 साल से कम उम्र के लगभग 60 प्रतिशत बच्चे खून की कमी के शिकार हैं और केवल 55 प्रतिशत बच्चों का ही सम्पूर्ण टीकाकरण हो पाता है।

    हाल ही में जारी वार्षिक हेल्थ सर्वे 2014 के अनुसार शिशु मृत्यु दर (आईएमआर) में मध्यप्रदेश पूरे देश में पहले स्थान पर है जहां 1000 नवजातों में से 52 अपना पहला जन्मदिन नहीं मना पाते। जबकि राष्ट्रीय स्तर पर यह दर आधी यानी 26 ही है। प्रदेश के ग्रामीण क्षेत्रों में स्थिति ओर चिंताजनक है जहां शिशु मृत्यु दर 57 है। मध्यप्रदेश में 5 साल से कम उम्र के 58 प्रतिशत लड़कों और 43 प्रतिशत लड़कियों की लम्बाई औसत से कम है, इसी तरह से 49.2 फीसदी लड़कों और 30 प्रतिशत लड़कियों का वजन भी औसत से कम है। प्रदेश में केवल 16.2 प्रतिशत महिलाओं को प्रसव पूर्ण देखरेख मिल पाती है। उपरोक्त स्थितियों का मुख्य कारण बड़ी संख्या में डाक्टरों की कमी और स्वास्थ्य सेवाओं का जर्जर होना है। जैसे मध्य प्रदेश में कुल 334 बाल रोग विशेषज्ञ होने चाहिए जबकि वर्तमान में केवल 85 ही हैं और 249 पद रिक्त हैं।

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