इस बार हम कविता शर्मा द्वारा लिखी गयी एक रिपोर्ट साझा करते हैं।
अभी कुछ दिन पहले दिल्ली से सटे शहर गुड़गांव में प्राइवेट स्कूल में पढ़ने वाले एक बच्चे के अभिभावक ने आरोप लगाया कि फीस न देने पर उनके बच्चे को स्कूल में तीन घंटे तक धूप में खड़ा रखा गया, इस दौरान बच्चे की हालत इतनी बिगड़ गयी कि उसे अस्पताल में भर्ती करवाना पड़ा। इससे बच्चा इतना डर गया कि उसने स्कूल जाने से ही मना कर दिया। दूसरी घटना इंदौर की है जहां के पैरेंट्स एसोसिएशन सदस्य निजी स्कूलों में मनमानी फीस बढ़ोत्तरी की शिकायत लेकर अपनी सांसद सुमित्रा महाजन के पास गये तो इस पर सुमित्रा महाजन अभिभावकों की मदद करने की बजाय उन्हें यह नसीहत देती हुई नजर आयीं कि 'अगर वे निजी स्कूलों की फीस नहीं भर पा रहे हैं तो अपने बच्चों का एडमिशन सरकारी स्कूल में करवा दें'। उपरोक्त दोनों घटनाओं को देखकर अंदाजा लगाया जा सकता है कि हम किस जाल में फंस चुके हैं। यह त्रासदियां हमारी मौजूदा शिक्षा व्यवस्था की हकीकत को बयान करती हैं, जिसे धंधे और मुनाफेखोरी की मानसिकता ने यहां तक पंहुचा दिया है। आज शिक्षा एक व्यवसाय बन गया है जिसका मूल मकसद शिक्षा नहीं बल्कि ज्यादा से ज्यादा मुनाफा कमाना है। शिक्षा के बाजारीकरण का असर लगातार व्यापक हुआ है, अब शहर ही नहीं दूर दराज के गांवों में भी प्राइवेट स्कूल देखने को मिल जाएंगे।
पिछले वर्षों के दौरान देशभर के सरकारी स्कूलों में छात्रों की संख्या लगातार घटती जा रही है, वहीं प्राइवेट स्कूलों की संख्या में जबरदस्त इजाफा देखने को मिल रहा है। राष्ट्रीय नमूना सर्वेक्षण संगठन (एनएसएसओ) के आंकड़ों के मुताबिक 2007-08 में 72.6 प्रतिशत छात्र सरकारी प्राथमिक स्कूलों में पढ़ते थे, जबकि 2014 में इनकी संख्या घटकर 62 प्रतिशत हो गई। इसी तरह उच्च प्राथमिक सरकारी स्कूलों में 2007-08 में छात्रों का प्रतिशत 69.9 था, जो 2014 में घटकर 66 प्रतिशत हो गया। यह आंकड़ा निजी स्कूलों के लिए बढ़ते रुझान की ओर संकेत कर रहा है।
ऐसा इसलिए हो रहा है क्योंकि भारतीयों में पढ़ाई के प्रति पहले से ज्यादा जागरूकता आयी है। अब वे अपने बच्चों को अच्छी से अच्छी शिक्षा देना चाहते हैं और इसके लिए अपनी जेब भी ढीली करने को तैयार हैं। आज ना केवल मध्यवर्ग बल्कि सामान्य अभिभावक भी अपने बच्चों की शिक्षा के लिए प्राइवेट स्कूलों को प्राथमिकता देने लगे हैं और अपने सामर्थ्य अनुसार वह इनकी महंगी फीस चुकाने को भी तैयार हैं। दरअसल पिछले कुछ दशकों से इस बात को बहुत ही सुनियोजित तरीके से स्थापित करने का प्रयास किया गया है कि सरकारी स्कूल तो नाकारा हैं। अगर अच्छी शिक्षा लेनी है तो प्राइवेट की तरफ जाना होगा। अब जबकि सरकारी स्कूल को मजबूरी के विकल्प बना दिए गये हैं, उन्हें इस लायक नहीं छोड़ा गया है कि वे उभरते भारत की शैक्षणिक जरूरतों को पूरा कर सके। इन परिस्थितियों ने भारत में स्कूल खोलने और चलाने को एक बड़े उद्योग के रूप में विकसित किया है और इसका लगातार विस्तार हो रहा है। इसलिए हम देखते हैं कि एक तरफ तो गांव, गली में एक और दो कमरों में चलने वाले स्कूल खुल रहे हैं तो दूसरी तरफ इंटरनेशनल स्कूलों का चलन भी तेजी से बढ़ रहा है। एक अनुमान के मुताबिक आज हमारे देश में 600 से ज्यादा इंटरनेशनल स्कूल चल रहे हैं। हमारे देश का नवधनाढ़्य तबका इन स्कूलों में अपने बच्चों को पढ़ाने के लिए मुंहमांगी फीस देने को तैयार है। यह चलन हमारे देश में शिक्षा की खाई को और चौड़ा कर रहा है। बहुत ही बारीकी से शिक्षा जैसे बुनियादी जरूरत को एक कोमोडिटी बना दिया गया है जहां आप अपने सामर्थ्य के अनुसार बच्चों के लिए शिक्षा खरीद सकते हैं, यह विकल्प हजारों से लेकर लाखों रूपये तक का है।
सरकारी स्कूलों की उपेक्षा और प्राइवेट स्कूलों की लगातार बढ़ती फीस ने अभिभावकों के लिए इस समस्या को और गंभीर बना दिया है। आज किसी साधारण माता-पिता के लिए अपने बच्चों को अच्छी शिक्षा दिलाना बहुत मुश्किल साबित हो रहा है। व्यापारिक संगठन एसोचैम द्वारा जारी एक अध्ययन के अनुसार बीते दस वर्षों के दौरान निजी स्कूलों की फीस में लगभग 150 फीसदी बढ़ोतरी हुई है। आज लखनऊ, भोपाल, पटना, रायपुर जैसे मझोले शहरों में किसी ठीक–ठाक प्राइवेट स्कूल की प्राथमिक कक्षाओं की औसत फीस 1 हजार से लेकर 6 हजार रुपए प्रति माह है। इसके अलावा अभिभावकों से प्रवेश शुल्क परीक्षा/टेस्ट शुल्क, गतिविधि शुल्क, प्रोसेसिंग फीस, रजिस्ट्रेशन फीस, एलुमिनि फंड, कम्प्यूटर फीस, बिल्डिंग फंड, कॉशन मनी, एनुअल तथा बस फीस के नाम पर कई तरह के शुल्क वसूले जाते हैं। एक अनुमान के मुताबिक मासिक फीस के अलावा तमाम तरह के शुल्क के नाम पर अभिभावकों को 30 हजार से लेकर सवा लाख रुपए तक चुकाने पड़ते हैं। इसके अतिरिक्त बच्चों की ड्रेस, किताब-कापियां और स्टेशनरी पर भी अच्छा-खासा खर्च हो जाता है। निजी स्कूल की मनमानी इस हद तक है कि एडमिशन के समय अभिभावकों को बुक स्टोर्स और यूनिफार्म की दुकान का विजिटिंग कार्ड देकर वहीँ से किताबें, यूनिफार्म और स्टेशनरी खरीदने को मजबूर किया जाता है। स्कूलों की इन दुकानों से कमीशन सेटिंग होती है। ये दुकान अभिभावकों से मनमाना दाम वसूलते हैं। इसी तरह से सिलेबस को लेकर भी गोरखधंधा चलता है। कई स्कूल संचालक एक ही क्लास की किताब हर साल बदलते हैं, हालांकि सिलेबस वही रहता है लेकिन इस काम में उनकी और प्रकाशकों की मिलीभगत होती है इसलिये एक प्रकाशक की किताब में जो चेप्टर आगे रहता है, दूसरा उसे बीच में कर देता है। इन सबके बावजूद ज्यादातर सूबों में निजी स्कूलों में फीस के निर्धारण के लिए फीस नियामक नहीं बने हैं या सिर्फ कागजों तक ही सीमित हैं। निजी स्कूलों पर कितनी फीस वृद्धि हो या कितनी फीस रखी जाए, इस संबंध में कोई स्पष्ट दिशानिर्देश नहीं हैं और जहां हैं वहां भी इसका पालन नहीं किया जा रहा। इसलिए कई स्कूल हर साल अपनी फीस में 10 से 20 फीसदी तक की वृद्धि कर देते हैं।
लम्बे चौड़े दावों के बावजूद ज्यादातर निजी स्कूल शिक्षा प्रणाली के मानक नियमों को ताक पर रख कर चलाये जा रहे हैं। अधिकतर निजी स्कूल ऐसे हैं जो एक या दो कमरों में संचालित होते हैं, यहां पढ़ाने वाले शिक्षक पर्याप्त योग्यता नहीं रखते, शिक्षा का अधिकार (आरटीई) कानून प्राइवेट स्कूलों को अपने यहां 25 प्रतिशत गरीब बच्चों को दाखिला देने के लिए बाध्य करता है। साथ ही यह शर्त रखता है कि अगर आपको स्कूल खोलना है तो अधोसंरचना आदि को लेकर कुछ न्यूनतम शर्तों को पूरा करना होगा जैसे प्राइमरी स्कूल खोलने के लिए 800 मीटर और मिडिल स्कूल के लिए 1000 मीटर जमीन की अनिवार्यता रखी गई है। यह नियम ज्यादातर प्राइवेट स्कूलों को भारी पड़ रहा है और अगर इस नियम का कड़ाई से पालन किया जाए तो लाखों की संख्या में प्राइवेट स्कूल बंद होने के कगार पर पहुंच जाएंगे। इसलिए 'सेंटर फॉर सिविल सोसायटी' जैसे पूंजीवाद के पैरोकार समूहों द्वारा आरटीई के नियमों में ढील देने की मांग को लेकर अभियान चलाया जा रहा है।
भारत में शिक्षा की व्यवस्था गंभीर रूप से बीमार है, इसकी जड़ में ही हितों का टकराव है। प्राथमिक शिक्षा से लेकर कॉलेज शिक्षा तक पढ़ाई के अवसर सीमित और अत्यधिक मंहगे होने के कारण आम आदमी की पहुंच से लगभग दूर होते जा रहे हैं। शिक्षा के इस माफिया तंत्र से निपटने के लिए साहसिक फैसले लेने की जरूरत है। हालत अभी भी नियंत्रण से बाहर नहीं हुई है और इसमें सुधार संभव है। करना बस इतना है कि सरकारें सरकारी स्कूलों के प्रति अपना रवैया सुधार लें, वहां बुनियादी सुविधायें और पर्याप्त योग्य शिक्षक उपलब्ध करवा दें जिनका मूल काम पढ़ाने का ही हो, तो सरकारी स्कूलों की स्थिति अछूतों जैसी नहीं रह जायेगी और वे पहले से बेहतर नजर आयेंगे, जहां बच्चों को गुणवत्तापूर्ण शिक्षा मिल सकेगी और समुदाय का विश्वास भी बनेगा। अगर सरकारी स्कूलों में सुधार होता है तो इससे शिक्षा के निजीकरण की प्रक्रिया में कमी आएगी। इसी तरह से बेलगाम व नियंत्रण से बाहर प्राइवेट स्कूलों पर भी कड़े नियंत्रण की जरूरत है। जिस तरह से वे लगातार अपनी फीस बढ़ाते जा रहे हैं उससे इस बात का डर है कि कहीं शिक्षा आम लोगों की पहुंच से बाहर न हो जाए। हालत पर काबू पाने के लिए केंद्र और राज्य सरकारों को ठोस कदम उठाने की जरूरत है।