शहरी बस्तियों में रहने वाले बच्चों के सन्दर्भ में बात करें, तो पीडब्ल्यूसी इंडिया और सेव दि चिल्ड्रन द्वारा 2015 में जारी रिर्पोट ''फॉरगॉटेन वॉयसेसः दि वर्ल्ड ऑफ अर्बन चिल्ड्रन इंडिया'' के अनुसार शहरी बस्तियों में रहने वाले बच्चे देश के सबसे वंचित लोगों में शामिल हैं। कई मामलों में तो शहरी बस्तियों में रह रहे बच्चों की स्थिति ग्रामीण इलाकों के बच्चों से भी ज्यादा खराब है। रिपोर्ट के अनुसार शहरी क्षेत्रों में जिन स्कूलों में ज्यादातर गरीब एंव निम्न मध्यवर्गीय परिवारों के बच्चे शिक्षा के लिए जाते हैं, उन स्कूलों की संख्या बच्चों के अनुपात में कम है, इस कारण 11.05 प्रतिशत स्कूल डबल शिफ्ट में लगते हैं, जहाँ शहरी क्षेत्रों में एक स्कूल में बच्चों की औसत संख्या 229 है, वहीं ग्रामीण क्षेत्रों में यह संख्या 118 है। शहरी क्षेत्रों के इन स्कूलों में बच्चों की ड्रॉप आउट दर भी अधिक हैं। इसी तरह से 5 साल से कम उम्र के 32.7 प्रतिशत शहरी बच्चे कम वजन के हैं। बढ़ते शहर बाल सुरक्षा के बढ़ते मुद्दों को भी सामने ला रहे हैं। वर्ष 2010-11 के बीच बच्चों के प्रति अपराध की दर में 24 प्रतिशत की वृद्धि हुई थी, जबकि 2012-13 में 52.5 प्रतिशत तक बढ़ी है। चाइल्ड राइटस एंड यू (क्राई) के अनुसार 2001 से 2011 के बीच देश के शहरी इलाकों में बाल श्रम में 53 फीसदी की वृद्धि दर्ज की गई है। उपरोक्त सन्दर्भों में बात करें, तो शहरी भारत में बड़ी संख्या में बच्चे बदहाल वातारण में रहने को मजबूर हैं और उनके लिए जीवन संघर्षपूर्ण और चुनौती भरा है।
सरकारों द्वारा शहरों के नियोजन के लिए पंचवर्षीय योजनाओं में प्रावधान किये जाते रहे हैं। केन्द्र एवं राज्य सरकारों द्वारा समय-समय पर आवास नीतियाँ भी बनायी गई हैं। पिछले दशकों में "जवाहर लाल नेहरू राष्ट्रीय शहरी नवीनिकरण मिशन"और "राजीव गांधी आवास योजना"में शहरी नियोजन, विकास से लेकर शहरी गरीबों की स्थिति सुधारने, मूलभूत सुविधाएं देने के लम्बे चौड़े दावे किये गये थे, लेकिन इन सब के बावजूद आज भी ना तो शहरों का व्यवस्थित नियोजन हो सका है और ना ही झुग्गी-बस्तियों में जीवन जीने के लायक न्यूनतम नागरिक सुविधाएं उपलब्ध हो सकी हैं। आवास का मसला अभी भी ज्यों का त्यों बना हुआ है। जेएनयूआरएम के तहत शहरी गरीबों को जो मकान बना कर दिये गये थे, वे टूटने-चटकने लगे हैं।
इन सब नीतियों और योजनाओं में बच्चों की भागीदारी और सुरक्षा के सवाल नदारद रहे हैं। वर्ष 2012 में एक सामाजिक संगठन द्वारा भोपाल में किये गये एक अध्ययन में पाया गया कि जे.एन.एन.यू.आर.एम. के तहत बनाये गये मकान बच्चों की सुरक्षा के लिहाज से खतरनाक हैं। इन आवासीय ईकाइयों में छत पर आने जाने के लिए सीढ़ी नहीं बनायी गईं, साथ ही साथ इन छतों पर बाउंड्रीवाल भी नहीं बनाया गया, जिसके कारण कई बच्चे दुर्घटना के शिकार हुए।
स्मार्ट सिटी परियोजना में भी बच्चों से संबंधित मुद्दों एवं उनके हितों को लेकर बातें सिरे से गायब हैं। स्मार्ट सिटी बनाने की प्रक्रिया में बच्चों की भागीदारी के नाम पर क्विज, सद्भावना मैराथन दौड़ और निबंध व पेंटिंग प्रतियोगिता जैसे कार्यक्रम का आयोजन करके खानापूर्ति की गयी है, लेकिन इसमें भी झुग्गियों में रहने वाले बच्चों की भागीदारी नहीं के बराबर है।
कोई भी शहर तब तक स्मार्ट सिटी नहीं बन सकता, जब तक वहां बच्चे सुरक्षित न हो। उनके लिए खेलने की जगह और जीवन जीने के लिए बुनियादी नागरिक सुविधाओं का होना बेहद जरूरी है। हमें स्मार्ट शहर के साथ-साथ चाइल्ड फ्रेंडली और बच्चे के प्रति संवेदनशील शहर बनाने की जरुरत है। शहर की प्लानिंग करते समय बच्चों की समस्याओं को दूर करने के उपाय किये जाने चाहिए और उनसे राय भी ली जानी चाहिए और यह सिर्फ कहने के लिए ना हो बल्कि एक ऐसी औपचारिक व्यवस्था बनायी जाये जिसमें बच्चे शामिल हो सकें। ऐसा प्रयोग केरल और कर्नाटक में किया जा चुका है।
सबसे बड़ी चुनौती बिना झुग्गी-बस्तियों में रहने वाले शहरी गरीबों और बच्चों की है। बिना उनकी समस्याओं को दूर किये स्मार्ट सिटी नहीं बन सकती। लेकिन फिलहाल सारा जोर तो बढ़ते मध्यवर्ग, इन्वेस्टर्स की अभिलाषाओं की पूर्ति पर ही लगा है। जरुरत इस बात की है कि सरकार, कार्पोरेट और खाये अघाये मध्य वर्ग को मिलकर शहरी गरीबों और बच्चों की समस्याओं, उनके मुद्दों को दूर करने के लिए आगे आना चाहिए। तभी वास्तविक रुप से ऐसा शहर बन सकेगा जो स्मार्ट भी हो और जहां बच्चों के हित भी सुरक्षित रह सकें।