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    मंदिर में "की"
    2016-07-08 13:43:57 cri

    दुनिया में अंडा पहले आया या मुर्गी? यह एक ऐसी बहस है जो निरंतर चली आ रही है और इसका कोई निश्चित जवाब नहीं है। लेकिन हां, इस बात में कोई दो राय नहीं है कि स्त्री और पुरूष दोनों का जन्म एक ही समान जैविक प्रक्रिया से हुआ है और जन्म के आधार पर दोनों में कोई भेद नहीं है सिवाय जीविय भेद के। अब बात आती है समाज में विद्यमान तमाम लैंगिक भेदभावों की तो इस तर्क से यह बात पूरी तरह से साबित हो जाती है कि यह तमाम भेदभाव और असामनता पूरी तरह निर्मित है और इन्हें समय-समय पर संरचित किया गया है।

    यह एक विडम्बना ही है कि महिलाओं को अपने उन अधिकारों के लिए भी लड़ना पड़ रहा है जो कि उसे प्राकृतिक तौर पर ही मिले हुए हैं और उन्हें खारिज करने का किसी के पास कोई पुख्ता जायज तर्क भी नहीं है। जबकि हम सब यह भी जानते हैं कि मंदिर में महिलाओं के प्रवेश का अधिकार मात्र प्रतीकात्मक अधिकार ही है जिसका असल लैंगिक समानता से बहुत अधिक वास्ता नहीं और अब जबकि महिलाओं को महाराष्ट्र के शनि शिंगणापुर मंदिर में प्रवेश का अधिकार मिल चुका है तो ये महिलाओं के जीवन से जुड़ी अन्य असमानताओं के खात्मे का कोई वायदा भी नहीं है। और इसी बात की एवज में बहुत से लोगों ने इसका विरोध भी किया और ऐसी एक भोचरी बहस की संज्ञा भी दी। लेकिन मेरा इस पर निजी विचार हमेशा से यही रहा है कि ठीक है, मंदिर में प्रवेश करने भर से महिला पुरूष की समानता तय नहीं होती लेकिन महिलाओं को यह अधिकार देने से भी तो समाज में कोई असमानता नहीं आ जाएगी। और अगर ये प्रतीकात्मक समानता है तो भी कुछ खोखली नहीं चूंकि कुछ प्रतीकों में भी काफी कुछ अन्य स्तर के बदलाव लाने का माद्दा होता है और फिर ये तर्क तो पुरूषों पर भी लागु होता है। क्योंकि अगर महिलाओं का मंदिर में जाकर भला नहीं हो सकता तो उस तरह तो पुरूषों का भी मंदिर में जाकर शायद ही भला हुआ है।

    मंदिर में प्रवेश करने का मुद्दा केवल शनि शिंगणापुर का ही नहीं बल्कि भारत में अलग-अलग जगहों में बसे ऐसे तमाम मंदिरों का है जहां किसी न किसी कारण को आड़े लाकर महिलाओं का उसमें प्रवेश वर्जित माना जाता है फिर भले ही वो शनि शिंगणापुर मंदिरा को हो, केरल के सबरीमाला मंदिर का, त्रिंबकेश्वर मंदिर का या फिर कोल्हापुर के अम्बाबाई मंदिर का। असल में यह मुद्दा केवल हिन्दू धर्म विशेष से ही नहीं जुड़ा हुआ है, बल्कि तमाम तरह के विद्यामान धर्मों से जुड़ा है। फिर चाहे वह इस्लाम धर्म हो या ईसाई धर्म हो या कोई अन्य धर्म। तकरीबन हर धर्म में शुद्ध-अशुद्ध या पवित्र-अपवित्र जैसे बेबुनियादी तर्कों के सहारे महिलाओं पर तरह-तरह के प्रतिबंध कसे हुए हैं। और इन भेदभावों को जायज ठहराने के तमाम तर्कों-कुतर्कों का सहारा लिया जाता है। और ये सब तब है जबकि भारतीय संविधान जिसे कि सर्वोच्च माना गया है उसमें समानता के अधिकार के तहत इसे सुनिश्चित भी किया गया है।

    अब बात करेंगे महाराष्ट्र के अहमदनगर में बसे शनि शिंगणापुर मंदिर की जो भगवान शनि को समर्पित है। शनि शिंगणापुर मंदिर में भले ही 8 अप्रैल 2016 को मंदिर के ट्रस्ट ने भी महिलाओं को शनि शिला पर तेल चढ़ाने और पूजा-अर्चना का अधिकार दे दिया। साथ ही साथ मंदिर में पूजन की 400 ऐसी पुरानी मान्यताओं को समाप्त कर दिया जिसमें औरतों को शनि मंदिर के मुख्य चबूतरे पर प्रवेश का अधिकार नहीं था। लेकिन इस निर्णय के पीछे काफी लम्बा संघर्ष और विरोधों की राजनीति छिपी हुई है। पूरा विवाद उस समय शुरू हुआ जब गत वर्ष नवम्बर 2015 में एक महिला ने जबरन चढ़ाई की और पूजा-अर्चना की। इसका मंदिर के ट्रस्ट सदस्यों समेत ग्रामीण लोगों ने भरसक विरोध किया और इसे अशुद्धता के कठघरे में रखते हुए शुद्धिकरण करने का ऐलान किया। इसके चलते ही मंदिर समिति हरकत में आयी और उसने 7 सुरक्षाकर्मियों को निलंबित कर दिया। इस पूरी घटना के विरोध में ग्रामीणों और समिति सदस्यों ने मूर्ति का दूध से अभिषेक और घटना के विरोध में सुबह बंद का आह्वान किया।

    इस घटना ने एक के बाद एक विरोध प्रदर्शन और आवाज उठाने की और अग्रसर किया जिसमें भूमाता रणरागिनी ब्रिगेड की अध्यक्ष तृप्ती देसाई इसकी नायिका बनकर उभरी। 26 जनवरी 2016 को 400 सदस्यों ने प्रतिबंध का उल्लंघन करने की योजना बनाई और इसे लैंगिक असामनता का प्रतीक करार दिया। जिन्हें मंदिर से 40 किलोमीटर दूर ही रोक दिया गया और हिरासत में ले लिया। इसमें 1 अप्रैल 2016 का बॉम्बे हाईकोर्ट का फैसला सबसे महत्वपूर्ण रहा जिसमें कोर्ट ने कहा कि मंदिरों में प्रवेश को लेकर कोई भेदभाव नहीं है। हर वह मंदिर जहां पुरूषों को प्रवेश की अनुमति है वहां महिलाएं भी जा सकती हैं। और यह 1956 में बने पूजा करने के अधिकार से संबंधित है। इसका उल्लंघन करने वालों को 6 महीने की सजा का प्रावधान किया गया है। सरकार को यह आदेश दिया गया कि वह इस अधिकार को अमलीजामा पहनाने में बढ़कर सहायता करे। इतने पर भी जब 2 अप्रैल 2016 को महिलाओं को तृप्ति देसाई के नेतृत्व में जाने से रोका जाना वाकई निंदनीय और आक्रोश को बढ़ावा देना वाला रहा।

    तृप्ति देसाई की इस यात्रा ने इस मुद्दे को राष्ट्रीय जनजागृति का मुद्दा साबित कर दिया जिससे ये मीडिया और सोशल मीडिया में लगातार सुर्खियों में बना रहा। "राइट टू वर्शिप" के हैशटेग के साथ सोशल मीडिया पर विभिन्न प्रतिक्रियाओं के रूप में उभरा रहा।

    अंततः ये तमाम बहस, विरोध, आंदोलनों के बीच मंदिर ट्रस्ट को 8 अप्रैल 2016 को झुकना पड़ा जिसमें प्रतीकात्मक ही सही पर महिलाओं को उनके पुरूष के समान होने का उनका प्राकृतिक अधिकार हासिल हो गया। वो कहते हैं न, जब बात सही हो तो आवाज अपने आप जोर पकड़ने लगती है और यह जीत इसका एक नायाब उदाहरण बनकर उभरा।

    केरल के सबरीमाला मंदिर और मुंबई की हाजी अली दरगाह में महिलाओं के प्रवेश का विवाद भी शनि शिंगणापुर से कोई अलग नहीं। यहां भी समस्या की जड़ वही है बस रंग अलग-अलग है, किस्सा वही पवित्रता और अपवित्रता का। सबरीमाला मंदिर के मामले में माहवारी से रहने वाली महिलाओं को अपवित्र करार देते हुए उनके प्रवेश को वर्जित माना जाता है। ये भी कम विवाद का मसला नहीं जब मंदिर अधिकारी ने इस बात पर जोर दिया कि मंदिर के प्रवेश द्वार पर महिलाओं के पवित्र-अपवित्र होने की जांच की मशीन लगाई जाए। ये मामला भी सुप्रीम कोर्ट तक पहुंचा।

    वहीं मुंबई की हाजी अली दरगाह में मजार तक महिलाओं के जाने की मांग ने तूल पकड़ा हुआ है और यह मसला भी मुंबई उच्च न्यायालय में एक जनहित याचिका के तहत पहुंच चुका है। इसके लिए भारतीय मुस्लिम महिला आन्दोलन लगातर सक्रिय है और इनके धरने को मुंबई स्थित सूफी विचार मंच और भूमाता ब्रिगेड ने समर्थन दिया।

    महिलाओं के इन तमाम अधिकारों की आवाज जंगल की आग की तरह लगातार फैलती जा रही है। साथ ही रह रहकर भारत के अलग-अलग कोनों से इन परंपरा को तोड़ने और बंधे-बंधाए रीति रिवाजों को चुनौती दी जा रही है। महाराष्ट्र के त्रिंबकेश्वर मंदिर और कोल्हपुर के अम्बाबाई मंदिर में भी ऐसी परम्पराओं को चुनौती देने का सिलसिला चल पड़ा है।

    इन सब गर्म हवाओं के बीच सिनेमा जगत के निर्देशक आर. बाल्की निर्देशित फिल्म "की एंड का" एक सर्द हवा का झोंका साबित हुई है जिसने सचमुच रटी-रटाई परंपराओं और रूढ़ियों को बदलने के विचार पर सोचने के लिए मजबूर किया है। साथ ही इस बात को भी उभारा है कि हमें उन परंपराओं को और रूढ़ियों को बदलना होगा जो केवल सदियों से यूं ही ढोई जा रही हैं। साथ ही साथ "की" और "का" का फर्क हमारी दिमागी उपज है। अगर मानवीय स्तर पर रहकर सोचा जाए तो दोनों ही किसी भी तरह एक दूसरे से कम या ज्यादा नहीं बल्कि एक दूसरे के पूरक हैं।

    खालिस यह सोचकर की "समाज क्या कहेगा?" हमें अपनी जिंदगियों को गर्त में जाने से बचाना होगा। एक वो सोच जो चली आ रही है परिपाटी से अलग है हमें उस पर भी चिंतन-मनन करना होगा। साथ ही साथ समय रहते सही आवाज उठाना ही समाज को एक सकारात्मक दिशा दे सकता है जिसमें इंसान को उसकी इंसानियत पर आंका जाएगा न कि उसके लिंग के आधार पर।

    इस लेख की लेखिका पूजा नागर हैं, जो एक स्वतंत्र पत्रकार हैं।

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