Web  hindi.cri.cn
    आतंकवाद और औरत-दूसरा भाग
    2016-06-17 19:23:26 cri

    आतंकवाद सीधे तौर पर महिलाओं के लिए विकास और आजादी की सबसे गंभीर चुनौती बन गया है। कट्टरपंथ तो महिलाओं के लिए रोजाना नई आचार संहिता गढ़ रहा है। व्यक्ति की स्वतंत्रता के विरुद्ध ये एक खतरनाक परिस्थिति है। किसी भी देश में हुए आतंकी हमले से जो खौफ और दहशत का माहौल बनता है, उसका सबसे बुरा असर, हमले के शिकार परिवारों पर छाया खौफ और असुरक्षा की भावना है।

    महिलाओं में यह खौफ, अमेरिका जैसे विकसित समाज में भी है। अमेरिका में आतंकवादी हमले ने वहां भी महिलाओं की सुरक्षा भावना को डगमगा दिया है। अमेरिकी समाज की 25 फीसदी महिलाएं अपनी आर्थिक बदहाली के लिए आतंकवाद को जिम्मेदार मानती हैं। 15 फीसदी महिलाओं ने अपनी विदेश यात्राओं में कटौती कर दी है। एक अमेरिकी सर्वेक्षण के अनुसार 18-29 आयु वर्ग की 64 फीसदी महिलाएं अभी तक 9/11 के हादसे से उबर नहीं पाई हैं और उनमें से 28 फीसदी अनिद्रा और 25 फीसदी बेचैनी का शिकार हैं।

    अफगानिस्तान और पाकिस्तान के सीमांत प्रांतों में बारूदी धमाकों और गोलीबारियों ने महिलाओं को काली गठरियों में तब्दील कर दिया है। अफगानिस्तान में जो क्षेत्र अभी भी तालिबान के कब्जे में हैं, वहां महिलाएं बुरखे में सिमटे एक घरेलू सामान भर होकर रह गई हैं। जॉन गुडविन की एक किताब 'प्राइस ऑफ ऑनर' में अफगानी महिलाओं के नारकीय जीवन का एक बेहद वास्तविक लेखा-जोखा है। किताब में एक वाकये का जिक्र है कि एक मां, अपने बीमार बच्चे को डॉक्टर के पास ले जा रही थी तो एक तालिबानी गार्ड ने उसे गोली मार दी। वो भी केवल इसलिए कि तालिबानी कायदे के मुताबिक कोई भी महिला, किसी भी सूरत में घर से अकेले नहीं निकल सकती है।

    तालिबानी कब्जे वाले इलाके में महिलाओं से शिक्षा लेने व देने का अधिकार पूरी तरह से छीन लिया गया। तालिबानियों के सत्ता में आने से पहले काबुल में 70 फीसदी महिलाएं पढ़ाने का काम करती थीं, लेकिन अब हालात एकदम उल्टा है। तालिबान कब्जे वाले इलाके में अब एक भी महिला अध्यापिका नजर नहीं आती हैं। रोजगार और जीवन का मकसद छिन जाने से ना केवल महिलाओं के सामाजिक और आर्थिक आजादी पर प्रभाव पड़ता है, बल्कि इससे उनका शारीरिक, और मानसिक स्वास्थ्य भी छिन्न-भिन्न हो जाता है। आखिरकार तबाह परिवार और सामाजिक ताना बाना ही होता है। ये दोनों औरत की ही बनाई इकाई होती हैं।

    नाइजीरिया के बोको हराम के कब्जे वाले हिस्से में भी कुछ ऐसी ही दशा है। स्कूल के छात्रावासों से सैंकड़ों की तादाद में छात्राओं का अगवा कर लिया गया। और इनके साथ क्या हुआ ये सुनना बेहद तकलीफ देह है। इन बच्चों का वर्तमान और भविष्य सबकुछ अनिश्चितता के अंधेरे में डूब गया। ये तो आतंकवादियों की करतूतों का प्रभाव। लेकिन असर आतंकवादियों के लड़ने वाले सेनाओं की मौजूदगी की भी होती है। आपातकाल जैसी स्थिति में निपटने के लिए सुरक्षाबलों के पास बेहिसाब अधिकार होते हैं, ऐसे में उनसे कई बार आतंकवाद से निपटने के सिलसिले में महिलाओं से ज्यादातियां होती हैं। युद्ध जैसी स्थिति बन आने का नतीजा होता है अच्छे बुरे का फर्क मिट जाना और इससे त्रस्त होकर, लोगों का विस्थापन। आतंकवाद विरोध की यह बर्बरता तब और भी बढ़ जाती है जब हजारों परिवार इन अभियानों से विस्थापित होते हैं और गुजारे के लिए उन परिवारों की महिलाएं देह के बाजार का बिकाऊ सामान बनकर रह जाती हैं।

    ज्यादा दिन नहीं गुज़रे जब 2012 में ओसामा बिन लादेन की ह्त्या के बाद उसकी तीन पत्नियां, अपने बच्चों के साथ पकड़ी गईं थीं। इन तीन औरतों को अल क़ायदा से जुड़ा नहीं पाये जाने के बाद भी किसी देश की सरकार ने इन्हें पनाह देने के लिए तैयार नहीं थी। यहाँ तक कि सऊदी अरब की सरकार ने भी हाथ खड़े कर दिए। सवाल ये उठा कि इन स्त्रियों का अपराध केवल पत्नी होना था क्या? वो भी ऐसी पत्नियां जो बंधक अधिक है। आतंकियों के कब्जे में जो महिलाएं होती हैं, उन पर दोहरी मार पड़ती है। आतंकवादियों की बर्बरता का शिकार तो वो होती ही हैं, बाकी कि दुनिया भी उनसे किनारा कर लेती हैं।

    अब हर चीज ही जब किसी के विरुद्ध हो तो आखिरकार वो कब तक उम्मीद के भरोसे, सब ठीक हो जाने की आशा किए संयमित रह पाएगी। महिलाओं के साथ ऐसा ही हो रहा है। वो इस दौर से गुजर रही हैं, जब वो केवल पीड़ित होकर, उम्मीद किए बस सहते रहने की भूमिका से छोड़ रही हैं। वो पीड़ित होने के दो कदम आगे अब उत्पीड़क भी हो रही हैं। ये हो रहा है और किसी भी समाज के लिए बेहद निराशाजनक बात है।

    हाल ही के पेरिस हमले में आश्चर्यजनक रूप से एक महिला, हिंसक हमले में शामिल होकर अपनी जान गंवा दी, वो दहशत के इस पूरे समीकरण को ही बदलता नजर आता है। त्रासदी झेलने से हटकर अब ज़ेहाद में शामिल होने की उत्कंठा भी महिलाओं में उठने लगी है। शांति से अत्याचार सहते बेहतरी की उम्मीद करने वाला मन अगर हिंसक होकर आतंकवाद के पक्ष में खड़ा होने लगे, तो कुछ भीषण गड़बड़ी हो रही है। कहीं कुछ हाथ से फिसलता जा रहा है। समाज में बेहतरी की आशा का भरोसा खत्म हो रहा है। ये उम्मीद की किरण तक के खत्म होने जैसी बात है। हाल ही में भारत में कुछ लड़कियों के आईएस में भर्ती की इच्छा की बात सामने आयी है। ये क्रूरता की नई कहानी लिखे जाने की शुरूआत है क्योंकि जब संवेदनशील समझे जाने वाले दिल में नफ़रत भरी जायेगी तो वो अपने क्रूरतम रूप में होगी। इसका प्रत्यक्ष मिसाल है आईएस के खिलाफ खड़ी हुई महिला सैन्य बलों के कारनामें। आतंकवादियों के खिलाफ हथियार उठा चुकी ये महिलाएं लड़ने में अपने पुरुष सहकर्मियों से ज्यादा निर्मम और नृशंस हैं। ऐसा कि आईएस के वे लड़ाके भी इनसे थर्राते हैं, जो कभी इनका ही बाजार लगाते थे।

    2016 के नए साल के जश्न में जब जर्मनी डूबा हुआ था तब हजारों शरणार्थियो ने 600 से अधिक जर्मन महिलाओं को अभद्रता का शिकार बनाया था। ऐसा उन्हीं महिलाओं के साथ हुआ जिनके साथ वो घर दुकान बाजार साझा करते थे। कई औरतो के अन्तः वस्त्र फाड़े गए। कइयों से ज्यादाती की गई। आतंकवाद का एक परिणाम ये भी था जो बर्बर कबायली इलाके से सीधे सभ्य शहर की चौखट पर आ खड़ा हुआ है। दुनिया के सभी विकसित और सभ्य देश इस पर निंदा के बाद मौन है तो प्रश्न केवल ये उठता है कि राजनितिक धार्मिक और आर्थिक महत्वकांक्षाओं की परिणति, आखिर परिवार की जिंदगी में क्यों दखल देती है वो भी औरतों की? वो दास बना दी जाएँगी, या मार दी जाएँगी या खुद आतंकवाद का हिस्सा बन जाएँगी भले इनमे से एक भी उनकी इच्छा हो या न हो। जब तक हिंसा का दबदबा स्वार्थ के साथ अपना हित साधते रहेगा तब तक औरत की त्रासदी कम होती नहीं लगती।

    इस लेख की लेखिका हैं स्वधा शर्मा, जो ऑल इंडिया रेडियो में कार्यरत हैं।

    © China Radio International.CRI. All Rights Reserved.
    16A Shijingshan Road, Beijing, China. 100040