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(GMT+08:00) 2007-11-02 09:40:26    
सिन्चांग के तावर जाति के प्रसिद्ध बढ़ई क्वो.सुफुथाई

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आप को पता चला होगा कि चीन की 55 अल्पसंख्यक जातियों में एक तावर जाति के लोग मूलतः उत्तर पूर्व चीन के हैलुंगचांग प्रांत में रहते हैं , लेकिन चीनी के छिंग राजवंश के आरंभिक काल में तावर जाति की एक शाखा सीमा रक्षा के लिए छिंग राजवंश के शासक द्वारा हैलुंगचांग से उत्तर पश्चिम चीन के सिन्चांग में स्थानांतरित किए गए और वे लोग सिन्चांग के ताछङ क्षेत्र में बस गए । तावर जाति के लोग आम तौर पर शिकार धंधे का काम करते थे , लेकिन उन में से कुछ लोग काष्ठ शिल्प में भी निपुण हैं । प्रस्तुत है चिन्चांग के तावर जाति के सुप्रसिद्ध बढ़ई क्वो . सुफुथाई की कहानी

सिन्चांग के थाछङ शहर के यमन टाउनशिप में रहने वाले बुजुर्ग क्यो .सुफुताई वहां एक काफी मशहूर व्यक्ति है । इस साल 66 वर्षीय तावर जाति के इस बुजुर्ग को किसी विशेष व्यवसायी शिल्पों का प्रशिक्षण तो नहीं मिला है , लेकिन तावर जाति की परम्परागत बढ़ईगिरी में वे एक माहिर माने जाते है । असल में तावर जाति की बढ़ईगिरी की विशेष तकनीक खात्मासन्न हो रही है , बुजुर्ग क्वो .सुफुथाई ने इस विशेष जातीय शिल्प की तकनीक अपनी कोशिश से सीखी और इस पर अधिकार भी किया । बुजुर्ग कारीगर क्वो. सुफुथाई के पास एक अद्भुत शिल्प कृति है , जो उस के पास दसियों वर्षों से सुरक्षित रही है । वह समूची लकड़ी से तराश कर ऐसे दो टुकड़ों में बनायी गयी है , जो बड़ी आसानी से एक दूसरे के साथ जोड़ी जाती है और एक दूसरे पर तह लगायी जा सकती है । लकड़ी के बीच भाग को जालीदार बनाया गया और ऊपर व नीचे के दो भागों को आपस में तह लगाया जा सकता है । लकड़ी की तख्ता ऊपर की ओर थोड़ा खींचायी गयी , तो वह एक छोटी बुक शैल्फ बन गया , जिस पर पुस्तकें रखी जा सकती है । यदि थोड़ा नीचे की ओर खींचाया जाए , तो वह एक ऐसी कुर्सी बन गयी है , जो भारी वजन को टेका सकता है । इस के अलावा वह बैठने की सुविधा के लिए तकिये का काम भी आ सकता है । इस प्रकार की अनुठा शिल्प कृति को बुजुर्ग बढ़ई क्वो . सुफुथाई हमेशा अपने पास रखते हैं । इस अनोखी चीज के बारे में श्री क्वो .सुफुथाई ने कहाः

मेरा दादा एक बढ़ई थे । गर्मियों के दिन दादा इस चीज को कुर्सी के रूप में बदल कर इस पर एक छोटा तकिया रखा , जो बैठने में गद्दी का काम आता है , जब रात को पुस्तक पढ़ते थे , तो तेल के दीप की रोशनी में इस से रूपांतरित कर बनी शैल्फ पर पुस्तक रख देते थे और आराम से पढ़ते थे ।

यह छोटी सी काष्ठ कुर्सी तीन पीढियों के लम्बे समय बीतने के बाद आज भी अच्छी तरह सुरक्षित है , इसे देख कर तावर जाति के बढ़ई की असाधारण बढ़ईगिरी तकनीक की तारीफ किए बिना नहीं रह सकता । श्री क्वो .सुफुथाई ने कहा कि अतीत में तावर जाति के लोगों के मकानों की दरवाजों और खिड़कियों पर तरह तरह के पशुपक्षियों , फुल पौधों , मानव आकृतिओं तथा नद पहाड़ों के चित्र तराश किए जाते थे । घर में उपयुक्त मेज , कुर्सी और हिन्डोला आदि बहुत सी चीजें खुद तावर बढ़इयों द्वारा बनाये जाते थे । क्वो . सुफुथाई के घर में रोजमर्रे के फर्नीचर स्वयं क्वो.सुफुथाई के हाथों निर्मित किए गए हैं । तावर की बढ़ई तावर जाति की वंशगत प्राचीन सांस्कृतिक परम्परा है , जो बुजुर्ग बढ़ई क्वो .सुफुथाई के दिलोदिमाग में समूल निहित हो गयी है । तावर जाति की काष्ठ चीजों की चर्चा में क्वो .सुफुथाई ने एक बात बतायीः

अतीत में लौहे का चादर नहीं मिलता था , हमारे यहां लकड़ी से खाने के बर्तन बनाये जाते थे । चरवाह गोबी रेगिस्तान पर बकरी चराते थे , दोपहर के समय वहां खाना खाते थे । आम तौर पर वे लकड़ी के कटोरे में बकरी के दुध डालते थे और आग से तपते हुए दो तीन छोटे पत्थर टुकड़े कटोरे में भी डालते थे , तपते पत्थरों से दुध उबला हो कर गर्म हुआ , तभी उसे पी लेते थे ।

बुजुर्ग बढ़ई क्वो .सुफुथाई ने वर्षों से जो काष्ठ की शिल्प वस्तुएं बनायी हैं , वे बहुधा अब तक सुरक्षित हैं । उन की पत्नी ते. फुह्वा पति द्वारा 40 साल पहले बनाया गया एक काष्ठ हिन्डोला लायी । यह एक विचित्र ढंग का हिन्डोला है , वह एक लम्बा पतला छोटा नाव जैसा है , जो कमरे के भीतर धरन पर लटकाया जा सकता है और इस में बच्चा रख कर सुलाया जाता है । हिन्डोला की तह पर बहुत से पशु हड्डियों से बने आभूषण भी है और उस पर एक लम्बी पतली चमड़े की रस्सी बंधी हुई है । मां जब किसी काम के लिए पलंग पर बैठी व्यस्त रही है , तो वह चमड़े की लम्बी पतली रस्सी को अपने पांव पर लपेट दे सकती है और पांव को थोड़ा सा हिलाती है , तो हिन्डोला धीरे धीरे हिलने लगता है और बच्चे को सुलाती रहती है । हिन्डोला के तह पर लगाए गए हड्डी के आभूषण भी साथ साथ हिलते रहे और वे आपस में टक्कर देते हुए हल्की मधुर आवाज भी देते है । इस पर ते .फुह्वा ने कहाः

जब बच्चा सोया, तो हिन्डोला को मकान की ऊपर धरन पर बांधा जाता है और उस पर एक पर्दा भी लगाया जाता है ,ताकि मक्खियों को अन्दर घुसने से रोका जाए और बच्चे को मक्खी से परेशान करने नहीं दिया जाता है । हिन्डोला को हिलाने के काम में आयी रस्सी बैल के चमड़े से बनी गयी है ।

अपने घर के दैनिक काम में आने वाली चीजें खुद क्वो .सुफुथाई द्वारा बनायी जाती है , इस के अलावा वे दूसरे तावर चरवाहों के लिए जीवन व उत्पादन के काम में आने वाले साधन बनाने में मदद भी करते हैं । उन्हों ने कहा कि टाउनशिप में बहुत से युवा चरवाह उन के हाथों बनायी गयी घोड़े की जीनों पर बैठे पले बढ़े हैं । बड़ी तादाद में छोटे बड़े औजार उन के बढ़ईगिरी वर्कशाप में तैयार कि गए हैं । क्वो .सुफुथाई के बढ़ईगिरी वर्कशाप में यूरोपीय ढंग का एक बड़ा हवा देने का काम आने वाला बोक्स है , बैल चमड़े से निर्मित भीमकाय मजबूत यह हवा देने वाला बोक्स तावर बढ़ई क्वो . सुफुथाई द्वारा विशेष तौर प घोड़े पर रखी जाने वाली जीन के लिए लौहे का ढांचा बनाने के लिए तैयार किया गया है । मौके पर उन्हों ने संवाददाता को हवा देने वाले बोक्स के काम का परिचय करते काम का तौर तरीखा भी दिखाया, उन्हों ने भट्टी में आग जलायी और एक हाथ में हवा देने वाले बोक्स को आगे पीछे खींचाते हुए दूसरे हाथ से एक पतले लौह डंडे पर हथौड़ा मार देते रहे । कुछ मिनटों में लौह डंडा अंग्रेजी अक्षर यु के आकार में बनाया गया । चरवाह इसकी तारीफ करते हुए कहते हैं कि इस प्रकार की जीन घोड़े की पीठ पर बिलकुल ठीक बैठती है और जिस से घोड़े की पीठ नहीं घिस सकती है ।

क्वो .सुफुथाई अपने हाथों से बनायी गयी हरेक वस्तु को अपनी संतान समझते हैं और अपनी तमाम चीजों को मूल्यवान समझते हुए अच्छी तरह संरक्षित करते हैं । सिन्चांग के विभिन्न तबकों ने भी तावर जाति की परम्परागत संस्कृति का संरक्षण , बचाव और विकास करने के लिए हससंभव कोशिश की , तावर सभ्याता के एक अंग के रूप में तावर जातीय बढ़ईगिरी की कला को संरक्षित और विकसित करने का निरंतर प्रयास किया जा रहा है । सिन्चांग के थाछङ शहर के अधिकृत प्रचार प्रसार विभाग के उप प्रधान श्री ली चिनयु ने कहाः

वृद्ध बढ़ई क्वो .सुफुथाई थाछङ शहर के सुपसिद्ध कारीगर हैं , उन की बढ़ईगिरी उत्तम और विशेष विरल है । उन की बढ़ईगिरी वंशगत रूप से बरकरार रही है , जिस का कई सौ साल लम्बा इतिहास रहा है । सदियों के भारी परिवर्तन के बावजूद यह कौशल सुरक्षित रहा और स्थानीय जातियों के लोगों को वह बेहद पसंद आया । जिस से साबित हुआ है कि इस प्रकार की सांस्कृतिक परम्परा जीवन शक्ति से परिपूर्ण है । स्थानीय सरकार उन की शिल्पी कला पर बहुत ध्यान देती है और इस प्रकार की परम्परागत संस्कृति को बचाने , संकलित करने तथा विकसित करने पर और अधिक काम करेगी । हमें विश्वास है कि यह लम्बा पुराना इतिहास वाली बढ़ईगिरी कला जरूर आगे संरक्षित होगी और उसे लुप्त होने नहीं दिया जाएगा ।

थाछङ शहर के अधिकारी ली का यह कथन हमारी अभिलाषा भी है , वतर्मान में विश्व भर में परम्परागत संस्कृति का संरक्षण करने और विकास करने पर महत्व दिया जाता है । और चीन में भी परम्परागत संस्कृति के बचाव और विकास पर खास ध्यान दिया जाता है । ऐसी उम्दा स्थिति में विभिन्न जातियों की विशेष व श्रेष्ठ परम्परागत संस्कृति का जरूर और बेहतर रूप में संरक्षित किया जा सकेगा और बुजुर्ग तावर बढ़ई क्वो . सुफुथाई का काष्ठशिल्पि कौशल भी आगे बराकरार रहेगा और बेहतर विकसित होगा ।