दोस्तो, परंपरागत चीनी चित्रकला के विशेषज्ञ श्री लो शी-बाई के जन्म की 90वीं वर्षगांठ मनाने के लिए कुछ समय पूर्व पेइचिंग स्थित चीनी ललितकला भवन में उन के बने चित्रों की एक प्रदर्शनी लगाई गई जिस की ओर सारे देश के ललितकला जगत का ध्यान आकर्षित हुआ।श्री लो शी-बाई के गुरू चीन के अन्य एक अत्यंत मशहूर चित्रकार छी बाई-शी थे।उन्हों ने अपने गुरू की कामयाबियों के आधार पर नया सृजन किया है और 90 साल की उम्र में भी चित्र बनाने की कोशिश कर रहे हैं।
चीन में परंपरागत चित्रकला का इतिहास 1000 वर्ष से भी अधिक पुराना है और चित्रकला का संस्कृति एवं इतिहास से अटूट संबंध रहा है।चीनी बुद्धिजीवी उसे अपनी आध्यात्मिक दुनिया की अभिव्यक्त का एक कलात्मक और सुशील साधन मानते हैं।परंपरागत चीनी चित्रों में जो फूल-पौधे,परिंदे,मानव-आकृतियां और प्राकृतिक दृश्य हैं,उन सब में बुद्धिजीवियों की कलाभावना और सुशीलता छिपी हुई है।इस श्रेणी के कलाकारों में से अब सिर्फ लो शी-बाई जीवित हैं,अन्य दिग्गज इस दुनिया से चल बसे हैं।लो शी-बाई के गुरू छी बाई-शी वैश्विक स्तर के विख्यात चीनी चित्रकार थे।उन्हों ने परंपरागत चीनी चित्रकला की सुशीलता प्रधान बारीकी जैसी विशेषता में प्रबल प्राकृतिक जीवन-शक्ति का संचार किया,जो अभूतपूर्व माना गया है। वैश्विक चित्रकला के इतिहास में छी बाई-शी स्पेन के चित्र मास्टर पिकासो के समकक्ष थे। पिकासो ने परंपरागत चीनी चित्रकला सीखने के लिए छी बाई-शी की कृतियों की नकल की थी। इस से जाहिर है कि छी बाई-शी की कृतियां कितना कलात्मक मूल्य रखती हैं।
उन के शिष्य लो शी बाई का जन्म सन् 1918 में मध्य चीन के हूनान प्रांत के ल्यू यांग शहर में हुआ था। उन्हों ने 14 साल की उम्र में छी बाई-शी से परंपरागत चीनी चित्रकला सीखना शुरू किया था और 25 सालों तक यानी कि छी बाई-शी के निधन से पहले तक वह छी बाई-शी से सीखने के साथ-साथ उन के जीवन की भी देखरेख करते रहे। छी बाई-शी अपने इस शिष्य पर पूरा विश्वास करते थे। वास्तव में लो शी-बाई का मूल नाम लो शाओ-ह्वाई था,लेकिन परंपरा के अनुसार चीनी बुद्धिजीवियों में कलात्मक तौर पर सुशील उपनाम रखने का प्रचलन था,इसलिए छी बाई-शी ने अपने इस प्रिय शिष्य को लो शी-बाई का उपनाम दिया,जिस का मतलब है छी बाई-शी का शिष्य।अपने सम्मानित गुरू की चर्चा करते हुए श्री लो शी-बाई ने कहा:
"गुरू छी बाई-शी से चित्रकला सीखने के दौरान मैं फूरन विश्वविद्यालय के ललितकला विभाग का छात्र बना। लेकिन मैं ने जो सीखा,वह विश्वविद्यालय से ज्यादा गुरू से प्राप्त हुआ। गुरू अक्सर विश्वविद्यालय के निमंत्रण पर कक्षाएं चलाते थे। उन्हों ने मुझे अपना बेटा माना और मेरी भलाई के लिए मुझ से दूसरे छात्रों से अधिक सख्त मांगें कीं।।जब मैं ने चित्र अच्छा नहीं बनाया,तो उन्हों ने मेरी कड़ी आलोचना की।एक दिन मैं ने अपना बनाया हुआ मछली का एक चित्र उन्हें परखने के लिए दिया और सोचा कि मैं इस बार बिना किसी दिक्कत के पास हो जाऊंगा,च्योंकि मछली मछली ही है, मैं ने जो मछली देखी,उसे तूलिका से कागज़ पर उतारा था।
लेकिन अप्रत्याशित रहा कि गुरू ने चित्र देखकर मुझ से दुबारा चित्र बनाने को कहा।`गलती कहां हुई?`मैं ने आश्चर्य से पूछा।उन्हों ने समझाया कि एक मझौले आकार की मछली की रीढ़ पर आम तौर पर 32 छिलके होते हैं।तुम ने कितने बनाए?उन्हों ने यह भी कहा कि बिना बारीकी से निरीक्षण किए पराकाष्ठा पर पहुंचना नामुमकिन है।"
लो शी-बाई ने अपने गुरू छी बाई-शी से न केवल चित्रकला बल्कि लिपिकला और कविता लेखन भी सीखी ।छी बाई-शी के बहुत से शिष्यों में से केवल लो शी-बाई ने उन के कलात्मक कौशल और स्वस्थ सौंदर्य-बौध को सौ फीसदी ग्रहण किया है।गुरू छी बाई-शी ने कहा था कि मेरे इस शिष्य की चित्र बनाने की शैली मुझ से मिलती-जुलती है,बल्कि उस का स्वभाव भी मेरे स्वभाव जैसा है। परंपरा और सृजन दोनों में वह अपनी पहचान बना सकता है।
|