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(GMT+08:00) 2007-09-10 12:18:09    
चीन के पूर्वतत्व-विशारद ची श्यैन-लिन

cri
दोस्तो,अक्तूबर 2006 में चीनी अनुवादक संघ ने चीन के मशहूर 95 वर्षीय अनुवादक एवं शिक्षक प्रोफेसर ची श्यैन-लिन को अनुवादित संस्कृति के सर्वोच्च पुरस्कार से सम्मानित किया,ताकि चीन और विदेशों के बीच सांस्कृतिक आदान-प्रदान खासकर भारतीय संस्कृत के अनुवाद में उन के असाधारण योगदान की प्रशंसा की जाए।

वर्ष 1911 में ची श्यैन-लिन का जन्म पूर्वी चीन के शानतुंग प्रांत के एक गरीब किसान-परिवार में हुआ था। 19 वर्ष की उम्र में उन्हें चीन के दो सर्वोच्च उच्च शिक्षालयों--पेइचिंग विश्वविद्यालय और छिंगह्वा विश्वविद्यालय में साथ-साथ दाखिला मिला। पश्चिमी संस्कृति व भाषाओं में बड़ी रूचि होने के कारण उन्हों ने अंततः छिंगह्वा विश्वविद्यालय में पढने का फैसला लिया और वह पश्चिमी भाषा व साहित्य विभाग के एक विद्यार्थी बने।पढने के दौरान उन्हों ने संस्कृत व बौद्धसूत्रों के अनुवाद के बारे में प्रारंभिक शिक्षा ली।वर्ष 1935 में जीवन के 24 वसंत देखने के तुरंत बाद उन्हें जर्मनी के कथिंगगन विश्वविद्यालय में आगे अध्ययन के लिए भेजा गया। वहां उन्हों ने विश्वप्रसिद्ध संस्कृत के विशेषज्ञ प्रोफेसर एर्नस्ट वाल्ड्सचमिथ और टोघारोई भाषा के विशेषज्ञ प्रोफेसर एमिल सिएग के निर्देशन में अध्ययन शुरू किया।जर्मनी में 10 साल तक पढ़ने के बाद उन के जीवन में बड़ा परिवर्तन आया और पूर्वतत्व के अनुसंधान में उन की विशेषज्ञता की नींव पड़ी।

चीन में तुनह्वांग व तुरूफ़ान इंस्टिट्यूट प्राचीन काल की मध्य व पश्चिमी एशिया की संस्कृतियों व भाषाओं का अनुसंधान करने वाली विशेष संस्था है,जिस के संस्थापक श्री ची श्येन-लिन हैं और वह लम्बे अरसे से अध्यक्ष के पद पर रहे है। इस इंस्टिट्यूट के महासचिव प्रोफेसर छाई च्येन-हुंग ने कहा कि जर्मनी में प्राप्त अच्छी शिक्षा ने प्रोफेसर ची श्येन-लिन पर भारी प्रभाव डाला है और इस से प्रेरित होकर उन्हों ने चीन और विदेशों के बीच सांस्कृतिक आदान-प्रदान में ढेरों काम किए हैं। प्रोफेसर छाई च्येन-हुंग ने कहाः

" इस समय चीन में टोघारोई भाषा के जानकार लोगों की संख्या केवल दो,तीन है।

प्रोफेसर ची श्येन-लिन ने जर्मनी में खासी मेहनत से इस भाषा पर अधिकार प्राप्त किया था और इस के अनुसंधान में विश्वध्यानकर्षक उपलब्धियां हासिल कीं थीं।

दूसरी ओर प्राचीन काल की भारतीय साहित्यक रचनाओं के अनुवाद में उन्हों ने जो किया,वह भी सराहनीय है। पूर्वतत्व के अनुसंधान में उन्हों ने अपना ध्यान मुख्यतः प्राचीन काल की भारतीय संस्कृति,चीन और भारत के बीच सांस्कृतिक आदान-प्रदान के इतिहास,चीन और तमाम पूर्वी देशों यहां तक कि पश्चिमी देशों के बीच सांस्कृतिक आदान-प्रदान पर केंद्रित किया। इन क्षेत्रों में उन्हों ने जो ढेरों अनुसंधान के काम किए,वे अकादमिक जगत में महान योगदान माने गए हैं "

2004 में प्रोफेसर ची श्येन-लिन ने जर्मनी में अपने अध्ययन-जीवन पर एक संस्मरणात्मक किताब《 जर्मनी में 10 साल》प्रकाशित करवायी। इस में वे लिखते हैं कि जर्मनी जाने का मेरा सपना था ज्यादा पुस्तकें पढ़ना और प्राचीन काल के मानव की शानदार संस्कृतियों से वाकिफ होना। मेरे विचार में चीनी संस्कृति पर भारतीय संस्कृति का भारी प्रभाव पड़ा है।अगर चीन और भारत की संस्कृतियों का गहन व सर्वोतोमुखी अनुसंधान किया जाए,तो अवश्य ही कुछ नया प्राप्त होगा।इस कारण मैं ने संस्कृत को अध्ययन का विषय चुना और साथ ही पाली भाषा,अंग्रेजी साहित्य एवं स्लाफ़ भाषाएं सीखी।संस्मरणात्मक किताब में उन्हों ने यह भी लिखा है कि जर्मनी में ही मैंने अपने जीवन का रास्ता ढ़ूंढा और इस रास्ते पर मैं आधी शताब्दी से भी अधिक समय तक चलता रहा,अब भी चल रहा हूं और आगे भी चलता रहूंगा।

सन् 1941 में ची श्येन-लिन को डॉक्टरेट की डिग्री प्राप्त हुई। लेकिन द्वितीय विश्व युद्ध के कारण वह स्वदेश नहीं लौट पाए। उन्हें कथिंगगन विश्वविद्यालय में रहकर वर्ष 1945 में इस युद्ध की समाप्ति तक अनुसंधान का काम करना पड़ा। स्वदेश लौटने के बाद उन्हों ने पेइचिंग विश्वविद्यालय में पूर्वी भाषा व साहित्य विभाग कायम किया,जो चीन में पूर्वतत्व का अनुसंधान करने वाला एकमात्र केंद्र बना। अब तक इस विभाग से 6000 से अधिक विद्यार्थियों ने शिक्षा ली है और उन में से कोई 30 व्यक्तियों ने विदेशों में स्थित चीनी राजदूतों के पद संभाले हैं। 85 वर्ष की आयु तक प्रोफेसर ची श्येन-लिन कक्षाओं में पढाते रहे। उन के सहयोगियों और विद्यार्थियों को प्रभावित करने वाली बात यह है कि वह युवा लोगों को अकादमिक अनुसंधान का निर्देशन करने के साथ-साथ उन्हें विदेशों में आगे अध्ययन के मौके मुहैया कराने की हरसंभव कोशिश भी करते रहे हैं। उन के सहयोगी प्रोफेसर छाई च्येन-हुंग के अनुसार प्रोफेसर ची श्येन-लिन ने युवा विद्वानों की जो मूल्यवान मदद की है,वह अद्वितीय है।उन का कहना हैः

"प्रोफेसर ची श्येन-लिन ने अनुसंधान-काम में युवा लोगों को तरह-तरह की सहायता दी है। उदाहरणार्थ चीन में संस्कृत या टोघारोई भाषा से जुडी पश्चिमी चीनी अल्पसंख्यक जातियों की संस्कृतियों का अनुसंधान-काम जर्मनी से पिछड़ा रहा है।सो संबंधित युवा लोगों को इस काम में हुई नवीनतम प्रगति से अवगत कराने के लिए उन्हों ने उन्हें जर्मनी भेजने का बड़ा प्रयास किया। जिस विद्यार्थी या विद्वान ने जर्मनी में आगे अध्ययन करने की इच्छा व्यक्त की,उन्हों ने उस की मदद करने में कोई कसर नहीं छोड़ी। उन के कई विद्यार्थियों ने उन की सहायता से जर्मनी में पढाई पूरी कर डॉक्टरेट की डिग्री प्राप्त की और अंतर्राष्ट्रीय अकादमिक जगत में अपनी पहचान बनायी है।"