मिङ राजवंश के काल में कृषियोग्य भूमि के क्षेत्रफल और अनाज के उत्पादन, खास तौर से धान की फसल के रकबे व उत्पादन में उल्लेखनीय वृद्वि हुई। सिचाई के लिए बल ,आदमी या हवा से चलने वाले रहट का आविष्कार किया गया।
कपास की खेती का प्रसार ह्वाङहो नदी के इलाके में हुआ और अन्त में कपड़ा बुनने की मुख्य सामग्री के रूप में कपास ने सन की जगह ले ली। मिङ काल में चच्याङ प्रान्त का हूचओ नगर रेशम उत्पादन का प्रसिद्ध केन्द्र था, जिस का रेशम हूचओ रेशम के नाम से सारे चीन में मशहूर था।
रेशमकीटपालन का काम हूपेइ, हूनान , क्वाङशी व सछ्वान में और ह्वाएहो नदी के उत्तरी व दक्षिणी क्षेत्रों में व्यापक रूप से किया जाता था।
खान खुदाई और दस्तकारी ने भी बहुत प्रगति की। लोहा गलाने का काम एक निजी धन्धे के रूप में बहुत आम हो गया तथा उस की तकनीक भी काफी उन्नत हो गई।
उदाहरण के लिए, हपेइ प्रान्त के चुनह्वा नामक स्थान की लोहा गलाने की भट्ठी 12 फुट ऊंची थी और उसमें एक बार में 1000 किलोग्राम से अधिक लौहखनिज डाला जा सकता था। इस भट्ठी की धौंकनी 4 से 6 व्यक्तियों द्वारा एकसाथ चलाई जाती थी। इस में मिश्रधातु भी बनाई जा सकती थी।
वर्तमान पेइचिङ के पश्चिमी उपनगर के चङच्याच्वाङ नामक स्थान के च्वेशङ मन्दिर में , जो विशाल घंटा मन्दिर के नाम से भी प्रसिद्ध है, रखा कांसे का घंटा मिङ राजवंश के युङलो वर्षनाम की अवधि में बनाया गया था।
इस घंटे की ऊंचाई 7 मीटर , उस के मुख की परिधि 3.3 मीटर और वजन 43500 किलोग्राम है। भव्य आकार और मनोहर रूप वाले इस घंटे के अन्दर और बाहर दो लाख से अधिक चीनी रेखाक्षरों में बौद्धसूत्र खुदे हुए हैं।
मिङ राजवंश के मध्य काल से, कृषि और दस्तकारी के अनवरत विकास के आधार पर दक्षिणपूर्वी चीन के रेशमी और सूती उद्योगों में पूंजीवादी उत्पादन संबंध भी विकसित होने लगे। केवल सूचओ शहर में ही वस्त्रोद्योग की कई हजार कर्मशालाएं थीं, जिन में बड़ी तादाद में मजदूर काम करते थे।
इन कर्मशालाओं में काम का विभाजन बड़ी तफसील से किया गया था और उन का उत्पादन बहुत ज्यादा था। लेकिन जहां तक उन में काम करने वाले मजदूरों का सवाल था, उन के पास अपनी श्रमशक्ति और तकनीकी कौशल के अलावा अन्य कोई चीज नहीं थी, यहां तक कि एक करघा भी नहीं।
उन को जब काम मिलता तो वे अपनी जीविका चला सकते थे, लेकिन जब उन को काम न मिलता तो जीविका का कोई उपाय उन के पास न रह जाता। अपने मालिकों के साथ उन का संबंध वैसा ही था जैसा कि श्रम और पूंजी के बीच होता है, वह बहुत कुछ पूंजीवादी किस्म का संबंध था।
उस समय भी देश में कृषि और दस्तकारी उद्योग के संयोजन पर आधारित प्राकृतिक अर्थव्यवस्ता की ही प्रधानता थी।उत्पादन के पूंजीवादी संबंध अब भी अपनी प्रारम्भिक व शैशव अवस्था में ही थे और सामन्तवादी व्यवस्था द्वारा बाधित होने के कारण बहुत धीरे धीरे विकसित हो रहे थे।
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