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(GMT+08:00) 2007-03-12 15:45:50    
स्वयंसेविका सुश्री चो-या

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सुश्री चो-या अपने जीवन-काल के 5 वें दशक में दाखिल हो गयी हैं। रिटायर्ड होने के बाद वह चीनी राजकीय संग्रहालय,पेइचिंग प्राचीन राज्य प्रासाद संग्रहालय औऱ चीनी शताब्दी मंच प्रदर्शनी-केंद्र में स्वयंसेविका के रूप में व्याख्याकार का काम कर रही हैं। अपने श्रेष्ठ प्रदर्शन से वे चीनी राजकीय संग्रहालय की पहली मानत कार्यकर्त्ता बन गई हैं। व्याख्या करने का उन का तरीका बौद्धिक व कलात्मक है। बहुत से दर्शकों का कहना है कि उन से व्याख्या सुनना एक आनन्ददायक अनुभव है।

कुछ समय पहले पेइचिंग के चीनी शताब्दी मंच प्रदर्शनी-केंद में 《इतावली कला प्रदर्शनी》 लगीं। इस में 18वीं शताब्दी के यूरोप की सांस्कृतिक व कलात्मक पुनरूत्थान काल की बहुत सी मूल्यवान कृतियां प्रदर्शित की गयीं थीं। जब तक प्रदर्शनी चालू रही,चीन के विभिन्न स्थानों से आए दर्शकों का वहां तांता लगा रहा। बेशक सुश्री चो-या ने इस प्रदर्शनी में चार चांद लगाए हैं।

सुश्री चो-या ने अपने समृद्ध ज्ञान,सुशील चरित्र और उत्साहपूर्ण रवैए से बड़ी संख्या में दर्शकों को अपनी ओर आकर्षित किया है और किसी भी प्रदर्शित कृति,उस के रचयिता और उस की ऐतिहासिक व सांस्कृतिक पृष्ठभूमि के बारे में विस्तृत जानकारी कहानी सुनाने जैसे दिलचस्प तरीके से दर्शकों को बताई है। व्याख्या करने के दौरान उन्हों ने प्रदर्शनी के विषय से जुड़े चीनी सांस्कृतिक अवशेषों के संरक्षण औऱ संबंधित शिक्षा की जानकारी से भी दर्शकों को अवगत कराया है।

व्याख्या में अपनी दिलचस्पी की चर्चा करते हुए उन्हों ने कहा:

"मैं सभी सुन्दर चीज़ों से पैदा होने वाली खुशियों को दूसरे लोगों के साथ बांटना चाहती हूं।हर चीज के प्रति अपने सौंदर्यबोध के अनुभव में लोगों को हिस्सेदार बनाना मेरे लिए बड़ी खुशी की बात है। श्रेष्ठ कलात्मक चीजों की शक्ति कल्पना से परे है,जिस के प्रभाव में आकर लोगों का मनोभाव कहीं अधिक निखर सकता है। मैं अपनी मेहनत से कलात्मक धूप को लोगों के जीवन में बिखेरना चाहती हूं, ताकि उन के जीवन में सुखद गर्माहट और खुशी पैदा हो। सुखी जीवन हरेक के लिए आगे चलते रहने की प्रेरक शक्ति होता है।"

सुश्री चो-या हंसमुख और मिलनसार हैं। उन के साथ बात करने में जरा भी असहजता का एहसास नहीं होता है। उन्हों ने बताया कि रिटायर्ड होने से पहले वे वाणिज्यिक काम करती थीं। मोटी कमाई होने के कारण वे आरामदेह जीवन बिताती थीं। दूसरों की नजर में वे अपने जीवन का बाकी समय ठाट-बाट से बिता सकती थीं, लेकिन खुद चो-या का मानना है कि आत्मानन्द को प्राप्त करना ही मनुष्य का अंतिम लक्ष्य है और उन के लिए आत्मानन्द कलात्मक सौंदर्य की प्राप्ति और प्रचार-प्रसार में मिल सकता है। इसलिए वे निश्चित समय से पूर्व अपनी संस्था से सेवानिवृत हो गयीं। तब से उन्हों ने वीडियो कैमरा साथ ले कर देश के विभिन्न क्षेत्रों और विदेशों का सैर-सपाटा शुरू किया। इटली पहुंचने के बाद उन्होंने सोने के समय में भी कमी की, क्योंकि वहां के कलात्मक मौहाल से वह इतनी प्रभावित हुईं कि हर गली-नुक्कड़ का दौरा करने से वह खुद को नहीं रोक पाईं। देश के सभी मुख्य पर्यटन-स्थलों और अनेक विदेशों की यात्रा से कला और सौंदर्य के प्रति उन का प्यार बेहद बढ गया। इस तरह उन्हों ने चीनी राजकीय संग्रहालय में स्वयंसेविका के रूप में व्याख्याकार बनने का निर्णय लिया। उन्हों ने कहा :

"मैं अपना मनपसंद काम करना चाहती हूं। संग्रहालय ही मेरी यह चाहत पूरी कर सकता है। इस संग्रहालय के प्रधान स्वर्गीय श्री य्वु वे-छाओ ने कहा था कि सभी ऐतिहासिक संरक्षणों में सांस्कृतिक अवशेष सब से आत्मायुक्त हैं। आप उन से बात कर सकते हैं और उन से बहुत कुछ सीख सकते हैं। वे आप के दृष्टिकोण को गहरा बना सकते हैं औऱ आप को हर मामले को अच्छी तरह समझने की प्रेरणा देते हैं।"

वास्तव में स्वर्गीय श्री य्वु वे-छाओ चीनी राजकीय संग्रहालय के प्रधान और एक मशहूर पुरातत्वविद् थे,जिन्हों ने चीनी सांस्कृतिक अवशेषों के बारे में अनेक प्रभावशाली निबंध लिखे थे। सुश्री चो-या बातचीत में अक्सर उन के जैसे सफल विद्वान और अन्य प्रसिद्ध कलाकारों का उल्लेख करती हैं। उन के विचार में ये सब उन के गुरू हैं और वे उन की लिखी पुस्तकों से बौद्धिक रस ग्रहण कर अर्थवान जिन्दगी व्यतीत करती हैं।उन का कहना है:

"व्याख्याकार का काम करने के बाद मुझे पता चला है कि मैं कितनी बड़ी बेवकूफ हूं।बहुत से विषयों में मेरी जानकारी कितनी सीमित है। मुझे हर रोज नयी चीज़ों का सामना करना पड़ता है। मुझे लगता है कि ढेर सारी जानकारियां प्रतीक्षा कर रहीं हैं कि मैं उन्हें प्राप्त करुं। उन्हें हासिल करने के लिए मैं समय की बहुत कमी महसूस करती हूं। इस बात से परेशान होकर मैं कभी रो बैठती हूं और खाना-पीना भी छोड़ देती हूं। नींद न आना मेरे लिए साधारण बात है। लेकिन मैं हार मानने वाली नहीं हूं। पुस्तकालय मेरा स्कूल बन गया है। फुर्सत मिलते ही मैं वहां जाती हूं। हर रोज नयी जानकारी पाने से मेरे जीवन को नयी शक्ति मिल सकती है। संग्रहालय के व्याख्याकारों को ज्ञान के सागर में तैरने में निपुण होना चाहिए,अन्यथा वे सागर में डूबकर मर जाते हैं। "

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