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(GMT+08:00) 2007-03-02 08:49:10    
वेवूर चित्रकार यालिकुन .हाजी की कहानी

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इस साल 48 वर्षीय वेवूर चित्रकार श्री यालिकुन.हाजी कद में लम्बे नहीं है , लेकिन वे बहुत तंदुरूस्त और मजबूत नजर आए हैं । उन के पिता जी सिन्चांग के एक मशहूर वेवूर जातीय चित्रकार हैं और वेवूर जाति के तेल चित्र कला के प्रवर्तक माने जाते हैं । श्री यालिकुन का चित्रकार जीवन अपने पिता से प्रेरित हो कर शुरू हुआ । बचपन में वे अकसर अपने पिता के लिए मॉडल के रूप में काम करते थे , जिस से उन के दिल में चित्र कला से गहरा प्यार गर्भित हो गया ।

वर्ष 1979 में श्री यालिकुन उत्तर पश्चिम जातीय विश्वविद्यालय के ललित कला विभाग के छात्र बने और चार साल तक तेल चित्र कला सीखी । वेवूर लोगों में रंगों को पकड़ने की जन्मसिद्ध प्रतिभा होती है । ऊपर से यालिकुन को चीनी परम्परागत चित्रकला का भी ज्ञान प्राप्त हुआ , इसलिए उन्हों ने कला सृजन की अपनी विशेष पहचान बनायी । इस पर उन्हों ने कहाः

चित्रकला की यह विशेषता है कि चित्र के विषय अन्तर्निहित और अस्पष्ट होना चाहिए और अधिक ठोस रूप लेने से बचना चाहिए , ताकि दर्शक चित्र से कल्पना कर सके और अपना सपना देख सके । कुछ भाववाचक चित्र इसलिए दर्शक पर ज्यादा प्रभाव डाल सकता है , क्योंकि वह दर्शक को परिकल्पना की गुंजाइश देता है और दर्शक को चित्र के इमेज के अन्दर ले सकता है । यही चित्रकला का ध्येय है ।

वर्ष 1986 में श्री यालिकुन .हाजी के सिन्चांग के सुन्दर दृश्यों को प्रतिबिंबित करने वाले तेल चित्र पेइचिंग की ललित कला कृति प्रदर्शनी में सम्मिलित हुए और उन की चीनी तेल चित्र जगत से प्रशंसा मिली । सिन्चांग के प्रथम कला उत्सव में यालिकुन के आठ तेल चित्र प्रदर्शित किए गए और सभी आठ चित्र हांगकांग के चीनी कला केन्द्र द्वारा खरीद कर सुरक्षित किए गए । इस के बाद यालिकुन ने चीनी ललित कलाकारों के रेशम मार्ग दौरा मंडल के सदस्य के रूप में बीस हजार किलोमीटर का रास्ता तय कर सिन्चांग के प्राकृतिक छटाओं और ऐतिहासिक अवशेषों का सर्वेक्षण किया और सिन्चांग की लम्बी पुरानी संस्कृति को और गहराई से समझा । इस के आधार पर उन्हों ने विशाल कागज का चित्र महा बाजार खींचा , इस चित्र में सिन्चांग के महा बाजार के बारीक दृश्य सजीव रूप से दर्शाए गए , रौनक बाजार के पृष्टभाग पर पीली मिट्टी के चित्रण से चित्र में अदृश्य लक्षित अनंत रेगिस्तान और इतिहास में रहस्यमय रूप से लुप्त समृद्ध प्राचीन लोलान नगर की कल्पना की जा सकती है ।

अपने तेल चित्र का स्तर उन्नत करने के लिए श्री यालिकुन ने कजाखस्तान आदि मध्य एशिया के देशों व रूस में भी अध्ययन किया , इस के दौरान उन्हें पता चला कि रूसी कला जगत को चीन की परम्परागत संस्कृति से गहरा लगाव है , तो वे समझ गए कि जब उन के तेल चित्र में वेवूर जाति की श्रेष्ठ संस्कृति अभिव्यक्त होती है , तो वह जरूर हमेशा जीवन शक्ति रख सकेगी । उन्हों ने इस की चर्चा करते हुए कहाः

रूस के लोग चीनी चित्रों को बहुत पसंद करते हैं , चाहे तेल चित्र अथवा चीनी परम्परागत शैली के चित्र क्यों न हो । सभी चित्रों में चीनी राष्ट्र की विशेषता होना चाहिए । केवल चीनी राष्ट्रीय व जातीय पहचान वाले चित्र अनुकृत नहीं माने जाते है । चित्र कला में मूलसृजन सर्वमान्य होता है ।

विदेशों में कला अध्ययन से श्री यालुकुन ने और अधिक गहरा समझ लिया कि चित्रकला अपनी राष्ट्रीय संस्कृति से घनिष्ठ रूप से जुड़ी हुई है । इस के बाद वे हमेशा जीवन की हर बात को बारीक से अवलोकित करते है और सड़कों पर और बाजारों में लोगों के हाव भाव को गौर से देखते हैं । सिन्चांग के उत्तर पश्चिमी भाग के पामीर पठार पर बसी अल्पसंख्यक जातियों के जीवन को चित्र में उतारने के लिए वे पांच हजार मीटर से ज्यादा ऊंचे बर्फीले पहाड़ों पर भी चढ़े । और पठारी रोग का सामना करते हुए हजारों व्यक्तियों की आकृतियों का निरीक्षण किया और अपनी तूलिका से इन आकृतियों को सजीव रूप प्रदान किया ।

फिलहाल , श्री यालिकुन की कलाकृतियों में लाल रंग को प्रधानता दी गयी है । उन के तेल चित्र क्वीछी की युवतियां में विभिन्न नाचने वाली युवतियां विविध भंगिमा में दिखाई देती हैं , चित्र में उल्लास और उमंग का वातावरण छाया रहा है , जो दर्शकों को इतना कदर तक मदहोश कर सकता है कि वे भी चित्र में प्रवेश कर नाच उठें । यह चित्र राष्ट्रीय कला प्रदर्शनी में प्रथम पुरस्कार से सम्मानित किया गया । श्री यालिकुन ने कहाः

प्राकृतिक सौंदर्य बहुत रमणिक और आकर्षक तो सही , पर वे अपने आप में कला विशेष नहीं है । सिन्चांग के सौंदर्य का चित्रण महज प्राकृतिक खूबसूरती तक सीमित नहीं होता है । प्रकृतिवादी चित्रण भावालंकार में फीका लगता है । हमें जीवन को जीता जागता प्रतिबिंबित करना चाहिए और मन में समाए सिन्चांग को दर्शाना चाहिए । इस पहलु में हमें और प्रयास करना चाहिए ।

वर्षों से यालिकुन पुस्तक पढ़ने और वास्तक जीवन और प्रकृति से स्केच करने के आदि रहे हैं । वे कोशिश करते रहे हैं कि उन की तूलिका से स्वच्छंद व स्वतंत्र रूप से अपेक्षित उत्तम चित्र उभरें । उन की रचनाओं में सिन्चांग की अल्पसंख्यक जातियों की गाढ़ी खासियत झलकती है । उन की रचनाएं देश में अनेक राष्ट्रीय स्तरीय प्रतियोगिताओं में पुरस्कृत हुई हैं , उन की बहुत सी रचनाएं जापान , अमरीका , कजाखस्तान और तुर्कमानिस्तान आदि देशों में प्रदर्शित की गयीं और विदेशी संग्रहकों द्वारा खरीदी गयीं । उन की रचानाओं पर समीक्षा करते हुए सिन्चांग ललित कला प्रतिष्ठान के चित्रकार श्री ह्वांग च्यान शिन ने कहाः

श्री यालिकुन के चित्रों में बड़े अच्छे रूप से सिन्चांग की वेवूर जाति की भावना अभिव्यक्त हुई है । उन्हों ने चीनी परम्परागत चित्र कला से भी अच्छी तरह चित्रण के कौशल सीखे। वे गहन रूप से वेवूर जाति का सौंदर्य बौध और सौंदर्य मूल्य समझते हैं । उन के चित्र सिन्चांग की अल्पसंख्यक जातियों के खुले, उदारता और ओजस्वी की भावना का प्रतिनिधित्व कर सकते हैं ।

मुक्त भाव से चित्र कला का सृजन करना और अपनी जाति की संस्कृति के विकास पर पूरा तन मन लगाना श्री यालिकुन. हाजी की मानसिक श्रेष्ठता है । वे एक श्रेष्ठ वेवूर चित्रकार का आदर्श रखते हुए अथक कोशिश कर रहे हैं और करते भी रहेंगे ।