तीन राजवंशों के काल में ऊ राज्य के दूतों खाडं थाए और चू इडं ने दिन्दचीन प्रायद्वीप के कुछ राज्यों, जैसे काम्पा(वर्तमान वियत नाम के मध्यवर्ती भाग में स्थित) और फूनान(वर्तमान कम्पूचिया) की यात्रा की औऱ स्वदेश लौटकर क्रमशः " विदेशों की कहानियां " और " फूनान की मूल्यवान वस्तुएं " नामक पुस्तकें लिखीं।
फूनान राज्य में भी अपने दूत अनेक बार चीन भेजे। दक्षिणी राजवंशों के सम्राट ल्याडं के शासनकाल में फूनान राज्य का संघपाल नामक एक बौद्धभिक्षु चीन आया, और यहां उस ने अनेक बौद्ध ग्रन्थों का अपनी भाषा में अनुवाद किया। इसी काल में स्थापत्य और कागजनिर्माण व वस्त्रोत्पादन की तकनीक चीन से वियतनाम पहुंची। इंडोनेशिया द्वीपसमूह और मलय प्रायद्वीप के अनेक राज्यों के दूत भी उपहार लेकर चीन की यात्रा पर आए।
399 में फा श्येन नामक बोद्धभिक्षु 65 वर्ष की अवस्था में छाडं आन से पश्चिमी क्षेत्रों और सिन्धु प्रदेश(वर्तमान भारत, पाकिस्तान औऱ बंगलादेश) की यात्रा पर गया। वह वहां तीन वर्षों तक रहा औऱ उस ने अनेक स्थानीय भाषाएं सीखीं तथा बौद्धग्रन्थों का अध्ययन किया। उस ने नेपाल में बुद्ध के जन्मस्थान की यात्रा भी की औऱ समुद्री मार्स से स्वदेश लौटने से पूर्व सिंहला राज्य(वर्तमान श्रीलंका) में दो वर्षों तक प्रवास किया।
चौदह वर्षों की अपनी इस यात्रा के दौरान, उस ने जो कुछ देखा सुना व अनुभव किया, उस के आधार पर स्वदेश लौटने पर "बौद्ध देशों का विवरण " नामक पुस्तक लिखी, जो मध्य एशिया, दक्षिण एशिया और दक्षिण पूर्वी एशिया के देशों के इतिहास, भूगोल और रीति रिवाजों को समझने की दृष्टि से अत्यन्त उपयोगी सिद्ध हुई।
कुमारजीव नामक एक भारतीय बौद्ध भिक्षु जिस का जन्म शिनच्याडं के खूछा नामक स्थान में हुआ था, उत्तरकालीन छिन राज्य काल (384-417) में छाडं आन आया, जहां उस ने अपने प्रवास के दौरान, लगभग 300 बौद्धग्रन्थों का अनुवाद किया। भारत व चीन के बीच सांस्कृतिक आदान प्रदान की वृद्धि में कुमारजीव का योगदान उल्लेखनीय है।
यह इतिहास का वह काल था जबकि भारतीय चिकित्सा विज्ञान, कला और स्वरविज्ञान का चीन में प्रवेश हुआ। पूर्वी चिन राजवंशकाल में सिंहला राज्य का एक दूत चीन आया, जिस ने बुद्ध की 4.2 फुट ऊंची प्रतिमा सम्राट आनती को भेंट की। दक्षिणी राजवंशों के काल में भारत के गुप्तवंशीय राजाओं का चीन के सुडंवंशीय सम्राट वनती के साथ पत्रों का नियमित रुप से आदान प्रदान होता रहता था।
तीन राजवंशों, पूर्वी व पश्चिमी चिन राजवंशों और दक्षिणी व उत्तरी राजवंशों के समूचे काल में , मध्य एशिया व पश्चिम एशिया के अनेक देशों के दूत चीन की सद्भावना यात्रा पर आते रहे। फारस (ईरान) के ससान राजवंश का चीन के उत्तरी वेई व पश्चिमी वेई राजवंशों के साथ घनिष्ठ संबंध था तथा उस के बीच दूतों व यात्रियों का निरंतर आवागमन होता रहता था।
मुक्ति के बाद चीन के प्राचीन नगर काओछाडं(वर्तमान शिनच्याडं के तुरफान नगर के निकट) में और शानश्येन(हनान प्रांत में) व इडंते(क्वाडं तुडं) के प्राचीन मकबरों की खुदाई में ससानवंशीय स्वर्णमुद्राएं प्राप्त हुई हैं, जो फारस में चौथी व छठी शताब्दियों में प्रचलित थीं।
तीन राजवंशों के काल में ताछिन (तत्कालीन रोमन सामर्ाज्य जो 395 के बाद पश्चिमी व पूर्वी रोमन साम्राज्यों में विभाजित हो गया) से एक व्यापारी चीन आया और उस ने ऊ राज्य के सम्राट सुन छ्वेन से भेंट की। पश्चिमी चिन काल में ताछिन साम्राज्य द्वारा समय समय पर अपने दूत चीन भेजे जाते रहे। हाल ही में उत्तरी छी राजवंश के एक प्राचीन मकबरे की खुदाई में, जो वर्तमान हपेई प्रान्त की चान ह्वाडं काउन्टी में है, पूर्वी रोमन साम्राज्य की तीन स्वर्णमुद्राएं प्राप्त हुई हैं। इन में सब से पुरानी मुद्रा की ढलाई 437 में की गई थी।
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