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(GMT+08:00) 2006-12-14 20:55:06    
डाक्टर कोटनीस की पत्नी श्रीमति क्वो छिंग लेन की अनोखी जीवन कहानी

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फरवरी 1939 में डाक्टर कोटनीस और भारतीय मेडिकल मिशन के अन्य सदस्यों के साथ येन एन, जहां तत्काल में जापानी आक्रमण विरोधी युद्ध का चीनी जनता का हेडक्वाडर था। पहुंचे और इस के बाद दुश्मन के पृष्ठ भाग में स्थित जापानी आक्रमण विरोधी युद्ध मोर्चे पर पहुंचे। जनवरी 1941 में डाक्टर कोटनीस नारमन बैथ्यून अंतरराष्ठ्रीय शान्ति अस्पताल के निदेशक नियुक्त हुए। इसी वर्ष 25 नवम्बर को उन्होंने नारमन बैध्यून मेडिकल स्कूल की अध्यापिका क्वो छिंग लेन के साथ विवाह किया। 9 दिसम्बर 1942 को बीमारी के कारण, डाक्टर कोटनीस का देहान्त उत्तरी चीन के ह पेई प्रांत की थांग श्येन काऊंटी में हुआ।

क्वो छिंग लेन का जन्म वर्ष 1916 में उत्तरी चीन के शान शी प्रांत की फंग यांग काऊंटी में एक गरीब क्रिश्चिन के घर में हुआ। बचपन से ही उन के पिता जी की मृत्यु हुई। माता जी, एक सूती कपड़े मिल में मजदूरिन थी। वर्ष 1932 में क्वो छिंग लेन काऊंटी शहर की मेडिकल स्कूल में पास हो कर शेन शी प्रांत की फंग यांग अस्पताल के अधीनस्थ एक नर्स स्कूल में पढ़ने लगी, चार वर्ष के बाद वे इस स्कूल से स्नातक हुई।

18 नवम्बर 1931 में जापानी साम्राज्यवादियों ने उत्तर पूर्वी चीन पर बड़े पैमाने वाला आक्रमण छेड़ दिया। इस घटना से प्रभावित हो कर उन्होंने नर्स स्कूल में देश भक्तिपूर्ण छात्र आन्दोलन में भाग लेना शुरु किया।

मार्च 1937 में वह पेइचिंग के युनिन अस्पताल में एक नर्स के रुप में काम करने लगी। 7 जुलाई 1937 में जापानी हमलावरों ने पेइचिंग के दक्षिण पश्चिम के लू गो छ्याओ के पास तैनात चीनी सैनिकों पर अचानक धावा बोला। चीनी सैनिकों ने डटकर मुकाबला किया, तब से जापानी आक्रमण विरोधी युद्ध चौदरफा तौर पर शुरु हुआ। इस वर्ष की मई में क्वो छिंग लेन जापानी हमलावरों का विरोध करने आठवीं राह सेना में शरीक हुई। आठवीं राह सेना चीनी कम्युनिस्ट पार्टी की रहनुमाई वाली सेना थी।

वर्ष 1939 के मई महीने से 1943 तक क्वो छिंग लेन ने शेन शी छा हार और ह पेई साडंयी छाहड़ ह पेई सीमांत क्षेत्र के बेथ्यून मेडिकल स्कूल में नर्सिंग अध्यापिका का काम किया। इसी दौरान, उन की टाक्टर कोटनीस से मुहब्बत हुई और शादी हुई।

अपने इस दौर के अनुभवों की याद करते हुए डाक्टर कोटनीस के साथ अपने प्रसन्नता भरे और न भूले जा सकने वाले क्षणों के बारे में क्वो छिंग लेन कह रही है।

दुश्मन की " सफाया मुहिम " को मात दे देने के बाद हमारी टुकड़ियां फिर से एकत्रित हुई। स्कूल परिसर की ओर लौटे हुए मेरी डाक्टर कोटनीस से मुलाकात हुई। उस रात पहाड़ी चोटियां और घाटियां चांदनी में नहा रही थीं। हम दुश्मन द्वारा उजाड़ दिये गए एक अनजान गांव में डेरा डालते हुए थे। हवा में अब भी झुलसी घरती की गंध थी औऱ सिहरा देने वाली शरद की ठंड़ अपेक्षाकृत ज्यादा ठंडी जग रही थी। हम एक अलाव जलाकर उस के पास पीठ से पीठ सटा कर बैठ गये। हवा का रुख कोटनीस के चेहरे की ओर था।

कोटनीस से मेरी हार्दिक बातें हुईं। उन्होंने मुझ से बड़े स्नेह से पूछा कि मुझे घर की याद आती है, क्या और कि मेरे परिवार में कितने लोग हैं। मैं तब केवल 24 साल की थी और पांच छ सालों से अपनी मां से नहीं मिली थी। युद्ध ने हर चीज़ को अस्तव्यस्त कर दिया था और चिट्ठी आना जाना तक बन्द था। मुझे घर कितना याद आता था।

मैंने उन्हें बताया कि मेरा जन्म शान शी प्रांत के फंग यांग नामक स्थान में हुआ था। जब मैं एख साल की थी, पिता चल बसे। मेरी मां ने मुझे पाला पोसा और पढ़ाई के लिए एक नर्सिंग स्कूल में भेजा। मैं वहां पार्ट टाइम्स काम भी करती थी।

अपने अन्य नौजवान देशविसियों की ही तरह , मुझे भी प्रतिरोध युद्ध का प्रचन्द वेग बहा ले गया। मई 1939 में न्यूज़ीलैन्ड की एक दोस्त कैथेरिन हॉल की मदद से मैं और येन चिंग युनिवर्सिटी की एक मेरी सहेली स्नातक पूर्व छात्रा आठवीं राह सेना में शामिल हो गई। थोड़े समय के लिए मैं तीसरे सैनिक उप क्षेत्र के क्लीनिक में काम करती रही, फिर अध्ययन के लिए बैथ्यून मेडिकल स्कूल में मेरा तबादला कर दिया गया।

इसी मोड़ पर मुझे कोटनीस ख्यालों में गहरे डूबे दिखाई पड़े। तब से वह मेरे प्रति अधिक से अधिक लगाव जताते रहे।

यह लगाव एक सच्चे साथी वाला लगाव था। धीरे धीरे मैं भी जानती चली गई कि कोटनीस चरित्र और व्यक्तित्व में एक श्रेष्ठ नौजवान चीनी की तरह ही हैं। वह सत्य की खोज को अर्पित थे और कार्य के प्रति जिम्मेदारी की। उन में उद्याम भावना थी।

गहरी दोस्ती और विचारों की सहभागिता से विभिन्न राष्ट्रीयताओं वाले हम युगल में धीरे धीरे सच्चा प्रेम करवटें लेने लगा। एक दिन नवम्बर 1941 में दुश्मन की शरदकालीन सफाया मुहिम के बाद मेडिकल स्कूल के परिसर में लौटने के अवसर पर प्रधानाचार्य यांग ई जन ने हमारे काम को लेकर मुझ से विचार विमर्श किया। उन्होंने कहा कि कोटनीस युद्ध और काम दोनों की दृष्टियों से काफी अच्छे चल रहे हैं। उन्होंने न केवल डाक्टर के तौर पर बल्कि एक अध्यापक के तौर पर भी अपना दायित्व पूरा किया, फिर चांग ई जन ने विष्य को घुमाते हुए मुझ से पूछा, उन के बारे में तुम्हारा क्या ख्याल है।

मैंने कहा, बिल्कुल ठीक है। हाल का सफाया मुहिम विरोधी अभियान तो मेरे लिए भी काफी कठिन रहा है। उन के लिए भला कैसे आसान होता। वह एक विदेशी है औऱ अपनी गरम जलवायु वाली मातृभूमि छोड़कर यहां उत्तर में हमारे साथ मिलाकर संग्राम कर रहे हैं। रोज उन के साथ काम करते हुए आप यह भूल जाएंगे कि वह एक विदेशी है।

चांग ई जन ने प्रसन्नता के साथ कहा, दूसरे शब्दों में तुम दोनों में प्यार हो गया है। ठीक है, आओ, तुम एक दूसरे की मदद और देखभाल करना । मेरा सुझाव है कि युद्ध के दौरान, तुम शादी कर लेना। हमारे जापान विरोधी युद्ध की विजय और तुम्हारे समान विचारों को साकार करने के लिए तुम दोनों का साथ साथ काम करना लाभकारी रहेगा।

दो दिन के बाद एक अधिकारी विवाह प्रमाण पत्र लेकर मेरे पास आए। कोटनीस बेहद खुश थे। जीवन में पहली बार हम ने युद्ध के दौरान विकसित हुए सच्चे प्यार का सुख महसूस किया। 25 नवम्बर को अस्थायी रुप से हमारे लिये खाली किये गए एक कमरे में विवाह की उस्सालपूर्ण रस्म आयोजित हुई। हमारे सहकर्मी और ग्रामवासी, बधाई देने आते रहे। ग्रामवासियों ने कोटनीस को " चीन के दामादे " की संज्ञा दी। गांव की खिलखिलाती हुई बुजुर्ग महिलाओं ने जल्द ही एक हष्ट –पुष्ट बालक के जन्मने की शुभकामना व्यक्त की।

बाद में कोटनीस ने अपने साथी विजय कुमार बसु के नाम पत्र में लिखा, मेरी पत्नी एक शिष्ट औऱ खूबसुरत चीनी युवती है। वह आम चीनी युवतियों की तरह संकोची औऱ शर्मीली नहीं है। वह खुले दिमाग की हैं और एक उत्साही नर्सिंग अधअयापिका है।

तीन साल बाद एक भारतीय लेखक ने कोटनीस और क्वो छिंग लेन की शादी पर टिपण्णी करते हुए लिखा कि चीनी जनता, इस शादी से अत्यंत पर्सन्न हैं, क्योंकि वह कोटनीस को अपने बंटे की तरह मानती रही है।

23 अगस्त 1942 में डाक्टर कोटनीस और क्वो छिंग लेन का बेटा पैदा हुआ। आठवीं राह सेना के शान शी、छआ हार、ह पेई प्रांत के कमांडर न्ये रोंग जन ने बेटे का नाम ख ईंग ह्वा रखा।ख का अर्थ है कोटनीस ईंग ह्वा का अर्थ है भारत और चीन। बेटा कोटनीस जैसा लगता था सांवला चेहरा और बड़ी बड़ी आखें । अपने बेटे पर उन्हें बहुत प्यार आया। लेकिन खदेजनक बात थी कि इसी साल डाक्टर कोटनीस अत्यान्धिक परिश्रम के फलस्वरुप गंभीर बीमार हो गये, भिरगी, बार बार उन पर प्रहार करते थे। और उस ने उन के मूल्यवान प्राण निगल ही लिया। देशवलान के वक्त उन की उम्र केवल 32 वर्ष थी। वर्ष 1943 में आठवीं राह सेना के कमांडर इन चीफ़ ने जू देई ने संदेश भेजकर मुझ से ईंग ह्वा को येन एन ले जाने को कहा। वर्ष 1943 से 1945 तक मैं येनआन अंतरराष्ट्रीय शान्ति अस्पताल के नर्सिंग विभाग के प्रधान के पद पर काम करती रही।

अगस्त 1945 में जापानी हमलावरों ने आत्म समर्पिन किया, चीनी जनता के जापानी आक्रमण विरोधी युद्ध की महान विजय प्राप्त की और इस तरह कोटनीस और लाखों शहीदों की आशाएं पूरी हुई।

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