
प्रिय दोस्तो , आप को मालूम हुआ होगा कि 26 लाख जनसंख्या वाली पु ई जाति उन में से एक है और इस जाति का आधा भाग आज दक्षिण पश्चिम चीन के क्वेचाओ प्रांत में बसा हुआ है । आज के चीन का भ्रमण कार्यक्रम में पु ई जाति बहुल गांव चंद्रमा गांव का दौरा जारी है । पहले हम ने आप को बता दिया है कि इस गांव को अपनी जातीय संस्कृति के अच्छे संरक्षण की वजह से प्रथम चीनी पु ई गांव माना जाता । इस जाति में प्रचलित आदरणीय मेहमानों के सम्मान में पेश की जाने वाली मार्गरोधी शराब भी बहुत मजेदार है और वह शकुन का प्रतीक भी है ।
चंद्रमा-गांव का हरेक घर घने बांसों व पेड़ों से घिरा हुआ है , चारों ओर शांत व साफ सुथरा वातावरण व्याप्त है , पास में कल-कल बहती चंद्रमा-नदी गांव को चार चांद लगाती है । इस नदी के पीछे एक मर्मस्पर्शी पौराणिक कहानी भी प्रचलित है । तब से ही यह नदी दूसरी नदियों से अलग होकर पश्चिम से पूर्व के बजाये पूर्व से पश्चिम की ओर बहने लगी । नदी के तट पर स्थित इस छोटे पहाड़ी गांव को तब से चंद्रमा नाम दिया गया ।
चंद्रमा-गांव में बहुत सी पु ई जातीय परम्पराएं हैं , जिन में तांबा ढोल सब से चर्चित है । जिस दिन हम चंद्रमा-गांव गये , उसी दिन चीनी पंचांग के अनुसार 6 जून को पुई जाति का परम्परागत पहाड़ी-गीत दिवस मनाया जा रहा था । दिवस की खुशियों में आयोजित समारोह में हम ने पु ई जाति का धरोहर तांबा-ढोल देखा ।
तांबा-ढोल पु ई जाति के पूजा पाठ समारोह में प्रयोग किये जाने वाला महत्वपूर्ण यंत्र है। पु ई जाति के हरेक गांव में एक तांबा-ढोल होना ज़रूरी है और वह आम तौर पर गांव के मुखिया या किसी बड़ी हस्ती के घर में सुरक्षित रखा जाता है । 70 वर्षीय बुजुर्ग छन चुंग हंग इस गांव के सब से वृद्ध अनुभवी ढोलकिया हैं । उन्हों ने तांबे ढोल का परिचय देते हुए कहा कि तांबा-ढोल हमारी पु ई जाति की धरोहर है और हमारी जाति तथा समूची जाति की एकता का प्रतीक भी है । बुजुर्ग छन चुंग हंग के अनुसार पुराने जमाने में इस प्रकार के तांबे ढोल का प्रयोग लड़ाइयों में किया जाता था ।
लेकिन इस प्रकार वाले तांबे ढोल के बारे में यह भी कहा जाता है कि भगवान ने यह तांबा-ढोल पु ई जाति को उपहार में दिया था । जब किसी वृद्ध का दम टूट जाता है , तो गांव के लोग जोर से ढोल पीटते हैं , ताकि भगवान ढोल की आवाज सुनकर उस वृद्ध की आत्मा स्वर्ग में ले जा सके । इस के अलावा नव वर्ष और परम्परागत अहम त्यौहारों में पूर्वजों की पूजा करने की रस्म में भी तांबा-ढोल ज़रूर पीटा जाता है , ताकि पूर्वज स्वर्ग से नीचे आकर अपनी संतानों के साथ त्यौहार मना सकें और पूरे परिवार की सुरक्षा व शानदार फसलें सुनिश्चित कर सकें । क्योंकि तांबा-ढोल पु ई जाति में अपना विशेष स्थान रखता है , इसलिये पु ई जाति में ढोल पीटने के कड़े नियम हैं । इन नियमों के अनुसार सिर्फ नव-वर्ष , अंत्येष्टि या महत्वपूर्ण भव्य त्यौहारों के उपलक्ष्य में ही तांबा-ढोल पीटने की इजाज़त दी जाती है । इतना ही नहीं , ढोल पीटने से पहले एक भव्य व रहस्यमय पूजा रस्म आयोजित होना भी अत्यावश्यक है ।
तांबा-ढोल की पूजा रस्म गांव में बड़ी धूमधाम से मनाई जाती है । पूजा रस्म में तांबा-ढोल के आगे प्रसाद के रूप में मुर्गा आदि का मांस रखा जाता है , फिर गांव के सब से वृद्ध पुरूष के नेतृत्व में सभी शादीशुदा पुरूष एक साथ तांबा-ढोल की पूजा करते हैं । बुजुर्ग छन चुंग हंग ने ढोल पूजा रस्म से अवगत कराते हुए कहा कि तांबा-ढोल हमारी पुई जाति का पवित्र ढोल है , हम उस का बहुत आदर करते हैं , इसलिये हर वर्ष इस वक्त सभी लोग ढोल पूजा के लिये मुर्गे व सुअर का प्रसाद लेने यहां इकट्ठे हो जाते हैं । पूजा रस्म में सब से पहले गांव के दीर्घायु वृद्ध तीन बार ढोल पीटते हैं । इस का अर्थ यह है कि पहली बार वायुमंडल देवता की पूजा के लिये ढोल पीटा जाता है , दूसरी बार भूमि-देवता की पूजा के लिए ढोल पीटा जाता है , जब कि तीसरी बार पवित्र तांबे ढोल की पूजा के लिये इसे पीटा जाता है । तीन बार ढोल पीटने के बाद पवित्र ढोल हमारे लिये शानदार फसल और अमन चैन को सुनिश्चित कर सकता है ।
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