चीन और भारत दोनों शानदार प्राचीन सभ्यता वाले देश हैं , दोनों के बीच दो हजार वर्ष ज्यादा पुरानी सांस्कृतिक आवाजाही भी चली आयी है । भारत की सांस्कृतिक श्रेष्ठता और असाधारण कला परम्परे से बड़ी संख्या में चीनी विद्वान आकर्षित हुए , जिन में प्राचीन चीनी बौद्ध भिक्षु ह्वेनसांग एक आदर्श मिसाल के रूप में याद किए जाते हैं । यहां भी एक चीनी विद्वान चीन और भारत के बीच सांस्कृतिक आदान प्रदान के लिए अथक कोशिश में जुटे हुए हैं , जो भारत की भूमि में मैत्री का बीज बोल रहे हैं।
चीनी विद्वान प्रोफेसर माओ शिछांग ने हमें बताया कि भारत मेरे लिए कभी एक दूर का सपना जैसा था , लेकिन अब मेरा यह सपना साकार हो गया , जो वर्षों से मेरे दिल में संजोए हुए निहित रहा है । मेरे लिए यह शब्दों से एक वर्णनातीत खुशी है । भारत के असाधारण सांस्कृतिक गुढ़ से मैं पूरी तरह मोहित हुआ ।
इस साल 50 साल के प्रोफेसर माओ शिछांग एक मिलनसार और खुशमिजाजी व्यक्ति है । शरीर पर पुराना कमीज है , पांवों पर भारतीय चप्पल । सिर पर बाल थोड़ा बिखरे हुए , लेकिन आंखों की ज्योति में तेज चमकता है । उन्हों ने मुझे बताया कि मुझे बालावस्था में ही भारत के प्रति लगाव हुआ । मैं ने भारतीय फिल्मों से यहां की रीति रिवाज जाने और चीन के थांग राज्यवंश के महान बौद्ध भिक्षु ह्वेनसांग की भारत यात्रा की वृतांत तथा चीन के प्रसिद्ध प्राचीन उपन्यास पश्चिम की ओर तीर्थ यात्रा पढ़ कर महान और रहस्यमय भारत के बारे में मेरी गहरी रोचि पैदा हुई ।
प्रोफेसर माओ शिछांग चीन के कान्सू प्रांत के लानचाओ विदेशी भाषा कालेज में पाश्चात्य साहित्य के अध्ययन का काम करते हैं । भारत आने से पहले वे नहीं सोच सकते थे कि उन का भारत देखने का सपना पूरा हो सकता है । आज से एक साल पहले जब उन्हें भारत में अध्ययन विद्वान के रूप में दौरा करने का मौका मिला , तो उन की खुशी का ठिकाना नहीं रहा । वे बड़े उत्साह और तमन्ना के साथ भारत की रहस्यमय धरती पर पधारे ।
प्रोफेसर माओ शिछांग ने मुझे बताया कि जब भारत में आया था , तो उस समय यहां का मौसल बहुत गर्म था । खानपान में भी दोनों देशों के बीच बहुत बड़ा अन्तर होता है और आवास की स्थिति भी ठीक नहीं है । मैं यहां केवल दस वर्ग मीटर के छात्रावास के एक कमरे में रहता हूं , कमरे में बस एक पलंग ,एक छोटी मेज , एक छोटा पंखा तथा एक छोटी अल्मारी है । यहां रहन सहन की सुविधा बहुत सरल है । लेकिन मुझे जरा भी असुविधा नहीं लगी । पार्क जैसे सुन्दर जवाहरलाल नेहरू युनिवर्सिटी में पढ़ना उनके लिए एक प्रकार का विशेष आनंद है । एक साल का अध्ययन काम पूरा करने के बाद प्रोफेसर माओ शिछांग ने भारत में आगे अध्ययन के लिए आवेदन किया और इस तरह वे यहां फिर निरंतर तीन साल ठहरे ।
रोज अवकाश समय, प्रोफेसर माओ शिछांग विश्वविद्यालय के परिसर में घूमना पसंद करते हैं , इस दौरान वे पड़ोसियों के साथ गपशप किया करते हैं । भारतीय बच्चे उन्हें चाचा कह कर पुकारते हैं और जब किसी घर में साइकिल के टायर में हवा भरने के लिए ट्यूब की जरूरत हो , तो घर का बच्चा जरूर उधारने के लिए माओ के यहां भाग आता है । प्रोफेसर माओ का कहना है कि भारतीय लोग सीधे सादे और नेकहृद्य वाले हैं , वे चीनी लोगों के साथ बहुत स्नेहपूर्ण व्यवहार करते हैं । भारत में उन का जीवन बहुत संतोषजनक और आरामदेह है ।
प्रोफेसर माओ शिछांग जवाहरलाल नेहरू युनिवर्सिटी में रविन्द्रनाथ ठागौर के कला साहित्य पर अध्ययन करते हैं , क्योंकि महान भारतीय साहित्यकार ठागौर और चीन के बीच गहरे स्नेह का रिश्ता था । इस की चर्चा में प्रोफेसर माओ शिछांग ने कहाः जहां तक मुझे पता है कि चीन के सुन राज्यवंश के काल से चीन और भारत के बीच सांसकृतिक आवाजाही टूट पड़ी । वर्ष 1924 में जब रविन्द्रनाथ ठागौर चीन की यात्रा पर गए , तो वास्तव में इस बात ने ह्नेनसांग के बाद चीन भारत की टूटी हुई सांस्कृतिक आवाजाही की कड़ी जोड़ दी ।
प्रोफेसर माओ शिछांग का कहना है कि भारत की संस्कृति महान , विशाल और गुढ़ भरी है , जिस की भूमि से विश्वविख्यात महान साहित्यकार रविन्द्रनाथ ठागौर का जन्म हुआ । रविन्द्रनाथ ठागौर के कला साहित्य पर अध्ययन के लिए भारत की संस्कृति जानने समझने की खास जरूरत है । भारतीय संस्कृति की तह तक पहुंचने के उद्देश्य में प्रोफेसर माओ शिछांग ने भारत की भूमि पर चपा चपा दौरा किया । उन्हों ने हिन्दू धर्म , जैन धर्म तथा सिख संप्रदाय के तीर्थ स्थलों का दौरा किया , सारनाथ और बुद्धगया में उन्हों ने प्राचीन काल के बौद्ध धर्म के फलता फूलता विकास को साकार महसूस किया , नालांदा के भग्नावशेष के दर्शन से महान प्राचीन चीनी बौद्ध यात्री ह्नेनसांग की याद ताजा हो गयी । भारत के विभिन्न स्थानों में व्याप्त सुन्दर सांस्कृतिक माहौल में प्रोफेसर माओ शिछांग ने समय का गुजरा भी भूला । भारतीय दोस्तों के साथ बातचीत में प्रोफेसर माओ अकसर कहते है कि भारत आने पर उन का बचपन का सपना साकार हो गया है । इस से जो असाधारण आनंद और खुशी मिले हैं , उस का वर्णन शब्दों से नहीं किया जा सकता है । भारत में जितना लम्बा समय ठहरा , उतना अधिक भारत का दीवाना बन गया । वे भारत में और ज्यादा समय ठहरने की जी करते हैं ।
उन का कहना हैः मैं भारत की संस्कृति को अत्यन्त बड़ा पसंद करता हूं । यहां मुझे एक प्रकार का मानसिक आनंद मिल सकता है । असल में भौतिक उपभोग का कोई खास महत्व नहीं है । मुझे अनुभव हुआ है कि मैं मानसिक रूप से एक लखपति हूं । इस पर मत ध्यान दे कि मेरा वेशभूषा भिखारी की भांति है , लेकिन मेरा दिमाग समृद्ध मानसिक खजाने से परिपूर्ण है । मैं अपने मानसिक आनंद से अत्यन्त खुश हूं ।
रविन्द्रनाथ ठागौर और चीन के बीच रिश्ते के अध्ययन के लिए दिवंगत थान युन शान की चर्चा की आवश्यकता है । 19 वीं शताब्दी के तीस वाले दशक में श्री थान युनशान ने ठागौर के निमंत्रण पर भारत के शांतिनिकेतन विश्वविद्यालय में चीन कालेज स्थापित किया था , जो भारत का अपनी किस्म का एकमात्र चीन प्रतिष्ठान है । चीनी विद्वान के नाते प्रोफेसर माओ शिछांग श्री थान युनशान की असीम कदर करते हैं , उन्हों ने माना कि श्री थान युनशान ने चीन और भारत के बीच सांस्कृतिक आदान प्रदान के लिए असाधारण योगदान किया था । प्रोफेसर माओ शिछांग ने कहाः प्राचीन काल में महान चीनी बौद्ध यात्री ह्नेनसांग ने चीन और भारत के बीच सांस्कृतिक आदान प्रदान की कड़ी मजबूत कर दी थी । आधुनिक युग नें दिवंगत थान युनशान ने इस प्रकार के सांस्कृतिक आदान प्रदान के सिलसिले को जोड़ कर आगे बढ़ाया । बौद्ध आचार्य ह्नेनसांग ने भारत में आ कर भारत की संस्कृति गृहित की थी , जबकि दिवंगत थान युन शान ने भारत में चीनी संस्कृति का प्रचार प्रसार किया। मैं उन से नतमस्तक रहता हूं ।
वर्तमान में जवाहरलाल नेहरू युनिवर्सिटी में कला साहित्य अध्ययन के अलावा प्रोफेसर माओ शिछांग हर हफ्ते में नेहरू विश्वविद्यालय के चीनी भाषा विभाग के छात्रों को चीनी भाषा भी पढ़ाते हैं । उन्हों ने कहा कि वे दिवंगत थान युनशान की ही तरह चीन और भारत के बीच सांस्कृतिक आदान प्रदान के लिए अपना योगदान करने की कोशिश करेंगे । उन्हों ने कहाः मैं चीन और भारत के बीच सांस्कृतिक आदान प्रदान के दूत के रूप में काम करने के कटिबद्ध हूं । मैं भारत से ली गई सांस्कृतिक जानकारियों से चीनी जनता को अवगत करने की भरसक कोशिश करता हूं ।
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