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(GMT+08:00) 2006-08-03 17:24:48    
प्राचीन काल से सुरक्षित मंदिर

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चीन के पुराने शहर शी एन में एक दा ज़ी अन मंदिर है, जहां चीनी भिक्षु थांग श्वेन चांग ने भारत से लाए धार्मिक शास्त्रों का अनुवाद किया था। आज के कार्यक्रम में आप लोग हमारी संवाददाता के साथ शी एन की दा ज़ी अन मंदिर जाइये और थांग श्वेन चांग की कहानी सुनिये।

दक्षिण शी एन में दा ज़ी अन मंदिर स्थित है, जो पुराने चीन के थांग राजवंश में राजाओं का मंदिर माना जाता था। श्वेन चांग दा जी अन मंदिर के प्रथम महाभिक्षु थे। श्वेन चांग की भावना का प्रसार करने के लिए दा जी अन मंदिर ने अनुयाइयों के चंदे और बैंक के कर्जों से कुल 4 करोड़ 10 लाख से ज्यादा चीनी य्वान की पूंजी जमा कर 5 हजार वर्गमीटर बड़े विशाल श्वेन चांग सेन चांग व्येन का निर्माण किया। उन्होंने 11 वर्षों के लिए अनुयाइयों व भिक्षुओं को एकत्र करके धार्मिक शास्त्रों का अनुवाद किया। श्वेन चांग के नेतृत्व में निर्मित की गयी दा येन मीनार भी 1300 से ज्यादा वर्षों से हवा व वर्षा के थपेड़े सहती अभी भी खड़ी है। श्वेन चांग सेन चांग व्येन दा प्येन च्वेई थांग, क्वांग मींग थांग और बेन र थांग तीन महलों से गठित है, जिस की अंदरुनी दीवारों के चित्रों के सब रुपांकन महाभिक्षु जडं छिन द्वारा तैयार किए गये हैं।

दा जी अन मंदिर के भिक्षु दाओ शी ने श्वेन चांग सेन चांग व्येन का परिचय दिया, श्वेन चांग सेन चांग व्येन थांग राजवंश की शैली वाली इमारत है, और धार्मिक संस्कृति व मूल्यवान वास्तु कला का प्रतिबिंब है,जिस का क्षेत्रफल 10 हजार वर्गमीटर से अधिक है। इस के निर्माण का मकसद थांग राजवंश की वास्तु कला की शैली को प्रतिबिंबित करने के साथ-साथ, दीवारों पर चित्रों के तरीकों से लोगों को उस समय के इतिहास, यानी श्वेन चांग के जीवन में प्रवेश करने को आमंत्रिण करना है। इस से श्वेन चांग के प्रति लोगों में प्रेम भावना उत्पन्न होगी और उन के जातीय आत्म विश्वास का प्रशिक्षण भी हो सकेगा।

श्वेन चांग सेन चांग व्येन में हम ने श्वेन चांग के जीवन के बारे में अच्छी तरह जानकारी प्राप्त की। श्वेन चांग का जन्म सन 600 में उत्तरी चीन के हनान प्रांत की येश काऊंटी में हुआ। वह चीन के थांग राजवंश काल के एक सुप्रसिद्ध बौद्ध आचार्य थे। श्वेन चांग का कुलनाम छन ई था। उन्हें त्रिपिटक आचार्य से सम्मानित किया गया। तेरह वर्ष की उम्र में उन्होंने प्रव्रज्या प्राप्त की औऱ अपना नाम बदल कर श्वेन चांग रखा। बाद में बौद्ध सूत्रों के अध्ययन के लिए उन्होंने उत्तरी चीन के ह पेई, ह नान, शान शी औऱ दक्षिण पश्चिमी चीन के सी छ्वान आदि क्षेत्रों का भ्रमण कर 13 सुविज्ञ भिक्षुओं से "महा परिनिर्वाण सूत्र" तथा अन्य अनेक सूत्र सीखे। तिस पर भी बुद्धत्व की समस्या पर उन्हें एक सुनिश्चित औऱ सर्वसम्मत उत्तर नहीं मिल सका। अनेक समस्याओं पर श्वेन चांग और विभिन्न आचार्यों के मत अलग-अलग थे। जबकि मध्य और पश्चिम एशिया से प्राप्त संस्कृत बौद्ध सूत्रों के अनुदित पाठ समझना कठिन था औऱ सूक्ष्म तत्वों का सम्यक अनुवाद नहीं किया गया था। बौद्ध धर्म के सूक्ष्म तत्वों का अध्ययन करने और उन का सटीक अर्थ मालूम करने के लिए उन्होंने तत्कालीन सरकार से भारत जाने की अनुमति मांगी, पर उन की मांग अस्वीकार कर दी गयी।

वर्ष 629 में श्वेन चांग ने निषेधाज्ञा का उल्लंघन कर छांग एन से प्रस्थान कर पश्चिम दिशा में बढ़ते हुए व्यू मन दर्रे से गुज़र कर मध्य भारत में नालन्दा संधाराम की ओर अभियान आरम्भ कर दिया। रास्ते में नाना कष्ट झेले और अकाल्पनिक कठिनाइयों का सामना किया। कई बार वे मरते-मरते बचे। उन्होंने जल विहीन रेगिस्तान पार किया, वर्ष भर बर्फ से ढके रहने वाले ऊंचे-ऊंचे पहाड़ों और हिम नदियों को पार किया। अन्त में वे मध्य भारत में मगध के राजगृह पहुंच गए औऱ बौद्ध धर्म के केंद्र नालन्दा संधाराम के भिक्षुओं ने उन का स्वागत किया।

नालंदा संधाराम भारत में बौद्ध धर्म का सर्वोच्च विद्यालय था। इस के स्थविर आचार्थ शीलभद्र की आयु तब नब्बे वर्ष से अधिक हो चुकी थी। वे असंग औऱ बसुबंधु के सिद्धांत ग्रहण कर योगाचार, विज्ञानवाद, हेतु विद्या औऱ शब्द विद्या में प्रवीण थे। वे बौद्ध धर्म के अधिकारिक विद्वान माने जाते थे। श्वेन चांग ने उन से योगाचार पर व्याख्यान सुने, सभी बौद्ध सूत्र पढ़ डाले और ब्राह्मण सूत्रों व ग्रंथों का सर्वागीण अध्ययन किया। पांच वर्ष तक कड़ी मेहनत करने के बाद उन की शिक्षा पूरी हुई। फिर उन्होंने समूचे भारत की यात्रा आरम्भ की। इसी बीच उन्होंने सुप्रसिद्ध बौद्ध आचार्य से शिक्षा ली। यात्रा पूरी होने पर वे फिर नालन्दा लौट गये। शीलभद्र की अनुशंसा पर श्वेन चांग ने "महायान संपरिग्रह शास्त्र""विज्ञापति मात्र सिद्धि त्रिशंक कारिका शास्त्र "पर व्याख्यान दिये।

शी एन की लड़की ल्यू येन ने परिचय देते हुए बताया, भारत में श्वेन चांग न केवल धार्मिक शास्त्र पढ़ते थे, बल्कि उन्होंने चीनी संस्कृति को भारत तक प्रसारित करने की कोशिश भी की थी। वे चीन व भारत के सांस्कृतिक आदान-प्रदान के दूत हैं। उन्होंने पुराने चीन के दर्शनशात्र लाओ ज़ के दाओ दे शास्त्र का संस्कृति में अनुवाद किया था। इतना ही नहीं, श्वेन चांग शांति के दूत भी हैं। उन्होंने भारत में बौद्ध धर्म की विभिन्न शाखाओं के बीच विवादों को दूर करने में भी मदद दी। भारत में उन का पूरा सम्मान किया गया था।

भारत में उन्होंने भारतीय भाषा में बोलते हुए शास्त्रों के सूक्ष्म तत्वों पर प्रकाश डाला और सुबोध रुप से मतों को स्पष्ट किया। उन के व्याख्यान सुनने वालों का जमघट लग गया था । इस तरह उन की ख्याति समूचे भारत में फैल गई। श्वेन चांग ने तीन हजार श्लॉकों में "वाद-प्रतिवाद का विश्लेषण "प्रतिपादित कर योगाचार के सिद्धांतों का विकास किया तथा योगाचार व माध्यक इन दो संप्रदायों का संमिश्रण किया। उन्होंने ब्राह्मण शास्त्रकारों के साथ तर्क-वितर्क में विजय पाई। इस बात की ओर मगघ के राजा शीलादित्य का ध्यान आकर्षित हुआ। श्वेन चांग ने राजा शिलादित्य को चीन की राजनीति, अर्थतंत्र औऱ संस्कृति का परिचय दिया। उन्होंने खासकर थांग राजवंश के सम्राट थ्येई जुंग का गुणगान किया। वर्ष 642 में राजा शीलादिल्य ने कान्यकुब्ज में श्वेन चांग के लिए पंच वार्षिक परिषद का आयोजन किया। परिषद में श्वेन चांग ने महायान के सिद्धांतों पर व्याख्यान दिया। परिषद में भारत के 18 राजा तीन हजार से अधिक महायानी भिक्षु, दो हजार ब्राह्मण औऱ नालंदा के एक हजार भिक्षु शरीक हुए थे। यह सब , अभूतपूर्व था। परिषद 18 दिन चली औऱ श्वेन चांग वाद-विवाद में विजयी हुए। उन्हें "महायान देव "और "मोक्ष देव"की उपाधियों से अलंकृत किया गया।

वर्ष 645 के वसंत में श्वेन चांग थल मार्ग से स्वदेश लौट आए। शी एन की लड़की ल्यू येन के अनुसार,छान एन में उन का शानदार स्वागत किया गया। वे अपने साथ 12 घोड़ों पर 657 संस्कृत बौद्ध सूत्रों और बड़ी संख्या में बुद्ध मूर्तियों को लाद कर लाए थे। श्वेन चांग की मान्यता थी कि उन की शंकाएं भारत में दूर हो चुकी थीं। इसलिए, उन्होंने स्वदेश लौटकर फा श्यांग चुंग यानी धर्म लक्षण शाखा स्थापित की। इस के साथ-साथ श्वेन चांग ने बौद्ध सूत्रों का चीनी में अनुवाद करना शुरु किया। चीनी सम्राट थेई जुंग ने एक संघाराम को उन का निवास बनाया और एक वृहद बौद्ध सूत्र अनुवाद प्रतिष्ठान की स्थापना के लिए देश के विभिन्न स्थानों से ज्ञानी भिक्षुओं के चयन में उन्हें सहायता दी। इस प्रतिष्ठान के अध्यक्ष औऱ प्रमुख अनुवादक , स्वयं श्वेन चांग ही थे। इस प्रतिष्ठान में 19 वर्षों में 75 बौद्ध सूत्रों का चीनी में अनुवाद किया गया, जिन के चीनी शब्दों की कुल संख्या एक करोड़ तीन लाख थी। उन के अनूदित पाठ प्राचीन भारत की विचारधारा और संस्कृति के अध्ययन के लिए अमूल्य सामग्री बन गए ।

चीन के बौद्ध धर्म के इतिहास में उन्होंने अतीत और भविष्य को साथ जोड़ कर अपना अत्यन्त महत्वूपर्ण स्थान बना लिया था। श्वेन चांग ने सम्राट थेई जुंग की आज्ञानुसार, महा थांग राजवंश काल में पश्चिम की तीर्थ यात्रा का वृतांत लिखा। इस पुस्तक का ,संस्कृति के इतिहास में अनुपम औऱ अमूल्य स्थान है। यह पुस्तक भारत के प्राचीन यानी ईसा की सातवीं शताब्दी से पूर्व के इतिहास के संदर्भ में एक सर्वाधिक मूल्यवान कृति है। आज भी प्राचीन भारत के अध्ययन के लिए , इस रचना का सहारा लेना पड़ता है। इस रचना के कुल 12 खंड है। उस में उन 110 राज्यों, जिन की श्वेन चांग ने यात्रा की थी और 28 अन्य राज्यों का विवरण दिया गया है। श्वेन चांग ने जिन विशाल क्षेत्रों का वर्णन किया है, वे उत्तर पश्चिम चीन से पश्चिम में ईरान तक भूमध्य सागर के पूर्वी तट, दक्षिण में भारत प्रायद्वीप और श्रीलंका , उत्तर में मध्य एशिया के दक्षिण भाग व उत्तर अफगानिस्तान औऱ पूर्व में हिन्द चीन प्रायद्वीप औऱ इन्डोनेशिया तक फैले हुए है। उस काल में भारत कुल 80 राज्यों में विभाजित था, उन में से 75 राज्यों का श्वेन चांग ने भ्रमण किया था।

स्वदेश लौटने के बाद उन के द्वारा लिखवाये गये " महा थांड राजवंश काल में पश्चिम की तीर्थ यात्रा का वृत्तांत " में भारत और मध्य एशिया के उन 110 राज्यों , जिन की श्वेन चांग ने यात्रा की थी औऱ श्रुत अट्ठाईस राज्यों का श्रेणीबद्ध रुप से विवरण दिया गया है। प्राचीन भारत के ऐतिहासिक अभिलेखों का अभाव होने के कारण यह यात्रा वृत्तांत अपनी व्यापक विषय वस्तु, सुस्पष्ट वर्णन औऱ सही विवरण से मध्य एशिया, अफगानिस्थान पाकिस्तान तथा भारत के प्राचीन इतिहास और भूगोल के अध्ययन के लिए सब से महत्वपूर्ण प्रत्यक्ष संदर्भ सामग्री बन गया है।

दा ज़ी अन मंदिर में हमारी मुलाकात भिक्षु दाओ शी से हुई। उन्होंने श्वेन चांग का उच्च मूल्यांकन किया।उन के अनुसार, सब चीनी लोग शाक्यमुनि को जानते हैं, जबकि भारत में सभी लोग श्वेन चांग को जानते हैं। भारत पर लिखी गई शायद ही ऐसी कोई कृति हो, जिस में श्वेन चांग के यात्रा वृतांत से उद्धरण न लिया गया हो। भारत की प्राइमरी व मिडिल स्कूलों की पाठ्य पुस्तकों में श्वेन चांग की तीर्थ यात्रा ज़रुर होती है। साथ ही इतिहास विद्वानों ने भी श्वेन चांग द्वारा लिखी गयी " महा थांड राजवंश काल में पश्चिम की तीर्थ यात्रा का वृत्तांत " से भारत का इतिहास जानने की कोशिश की है।दा ज़ी अन मंदिर के भिक्षु दाओ शी के विचार में श्वेन चांग ने बौद्ध सूत्रों के अनुवाद को बड़ा महत्व दिया था। चीन के बौद्ध धर्म जगत में चार प्रमुख अनुवादक हैं, श्वेन चांग इन में से एक हैं। बिना अत्युक्ति के कहा जा सकता है कि अनुवाद के इतिहास में वे प्रथम विभूति भी थे और अंतिम विभूति भी। उन्हीं के तत्वावधान में बौद्ध सूत्रों के 1335 खंडों का चीनी में अनुवाद किया गया। चीन और भारत के बीच सांस्कृतिक आदान-प्रदान के इतिहास में श्वेन चांग सर्वश्रेष्ठ दूत थे। भारत में प्रवास के दौरान वे महायान के प्रचार के सुप्रसिद्ध आचार्य बन गये औऱ स्वदेश लौटने के बाद उन्होंने जिस फा श्यांग चुंग यानी धर्म लक्षण शाखा की स्थापना की, वह ल्वो यांग तथा शीएन में दसियों वर्षों तक प्रचलित रही।

पिछले एक हजार वर्ष से अधिक समय में पुरातत्व के क्षेत्र में नई-नई खोजों और इतिहास के अध्ययन में निरंतर प्रगति के साथ-साथ , श्वेन चांग के यात्रा वृत्तांत का महत्व सिद्ध होता गया है।पुरातत्वेताओं ने उन के उल्लेखों के अनुसार, राजगृह के खंडहरों, मृगदाव अजन्ता और नालन्दा में खुदाई की औऱ भारी उपलब्धियां प्राप्त कीं। हालांकि श्वेन चांग एक हजार वर्ष से पहले के महा पुरुष थे, फिर भी आज उन का नाम भारतीय औऱ चीनी जनता की जुबान पर है। वे चीन-भारत मैत्री के एक जीवन्त प्रतीक बन चुके हैं।