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मोना रेडियो लिस्नेर्स क्लब के विजय कुमार सरोज ने सी .आर .आई के हिन्दी विभाग के नाम लिखे पत्र में एक एक छोटी कथा लिखी, शीर्षक है सारस और बत्तख।
बहुत पहले की बात है । एक डाक्टर था , वह एक कुशल सर्जन भी था । एक बार उस ने बाजार से एक जिन्दा बत्तख और सारस खरीदा । जब भी वह उन दोनों को देखता , तो उसे बड़ा अजूबा सा लगता , क्यों कि सारस तो लम्बा था और बत्तख छोटी सी । इसलिए उस ने सोचा कि ये दोनों देखने में अच्छे और एक जैसे लगे , इस के लिए पैर काट कर बराबर की नाप के कर दे ।
डाक्टर ने सारस के लम्बे पैरों को काट कर आधा कर दिया और बचे पैरों को बत्तख के पैरों के साथ जोड़ कर सिल दिया । दोनों बराबर ऊंचाई देख कर वह अपनी सफलता पर बहुत खुश हुआ और दोनों से बोलाः तुम दोनों को अब अपनी बराबर की ऊंचाई पा कर खुश होना चाहिए । मैं तुम दोनों को आजाद करता हूं , ताकि अन्य पक्षी तुम्हें देखे और मेरे कौशल की प्रशंसा करें ।
लेकिन यह हमारे लिए खुशी की नहीं , दुख की बात है । दोनों ने एक साथ कहा ।
लेकिन क्यों ।
इसलिए कि सारस ने अपनी लम्बी नुकीली चोंच दिखाते हुए कहा , देखिए अब छोटी टांगों के कारण मैं नदी में खड़ा नहीं रह सकता और इसी कारण मछली नहीं पकड़ सकता , तो जिन्दा कैसे रहूंगा ।
बत्तख ने भी अपनी चोंच दिखाते हुए कहा , आप जानते हैं , मैं पानी तैर कर शिकार करती थी , अब मैं इन बड़े पैरों के कारण तैर नहीं सकती
डाक्टर को अपनी करनी पर बड़ा अफसोस हुआ ।
निष्कर्ष था कि नैतिक नियमों के विरूद्ध कार्य करने के परिणाम बूरे ही होते हैं ।
मुजफ्फरपुर बिहार के वंदना कुमारी ने हमें एक कविता भेजी , नाम है मच्छर चालीस
जय मच्छर भगवान उजागर ,
जय अगणित लोगों के सागर .
नीम-हकीम के तुम रखवारे
डाक्टर के भी अनिशय प्यारे ।
मलेरिया के तुम ही दाता ,
खटमल के छोटे भ्राता ।
सकरा है तुम की प्यारा ,
एक छत्रराज तुम्हारा ।
हर दफ्तर में आदर पाते ,
बिना इजाजत तुम घुस जाते ,
रूप कुरूप न तुम ने जाना ,
छोटा बड़ा न तुम ने माना ।
जय जय मच्छर भगवाना ,
माफ करो सारा जुर्माना ,
तुम से डरता घर हमारा ,
जल्द उजारो अपना डेरा ।
रामपुराफुल पंजाब के कुशम कुमार ने भी एक कविती भेजी , शीर्षक है बिरहन शाम ।
सिन्दुरी रंगत बिखराती , फिर आई मुस्काती शाम ,
मीठेमीठे , राग लिए छुन छुन पायल छुनकाती शाम ।
चिल चिल करती धूप के मारे थके हुए हर पंक्षी के ,
तपते मन को जलते तन को शीतलता पहुंचाती शाम ।
सूरज डूबा बीस समुंद्र पंछी लौटे अपने घर ,
सुबह सुबह जिस से तौबा की भूल वही दुहराती शाम ।
दर्पण सन्मुख रूप संवारे , पिया मिलन की आस लिए ,
मदमाती आंखों में कैसे कैसे सज सजाती शाम ।
दोपहरी में मिले पत्र को छुपा छुपा घर वालों से ,
कच्ची प्रति कंवारी पढ़ती मन ही मन मुस्काती शाम।
एक पल हंसती एक पल रोती ,हंसती रोती ,रोती हंसती,
बिरहन के कानों में जाने क्या फुस फुस कर जाती शाम ।
स्वागत हित गुमनाम पथिक के बीते पल कोई दुल्हन ,
कुंकुंम भरती भाल ,द्वार पर दीपक नया जलाती शाम ।
वाल्ड वाइस लिस्नेर्स कल्ब के शकील अहमद अंसारी ने कुछ गजल लिख कर भेजे। इन में से एक का भावार्थ इस प्रकार है।
पानी भरने लगा है नाव में ,
कैसे बच पाएगे वहान में ।
मुस्करा के यह कह रहा है कमल ,
कुछ भी रखा नहीं लगाव में ।
किस को फुर्सत है दोस्ती के लिए ,
आग ठंडी पड़ी अलाव में ।
वो जो आये थे हम को समझाते ,
जी रहे है बड़े तनाव में ।
दो दिनों की इस जिन्दगी के लिए ,
लोग मसरूफ है बनाव में ।
उस ने चाहा कि झूट ही कह दूं ,
दिल नहीं आ सका दबाव में ।
खुद ही दरिया यह कह रहा हम से ,
मत बहो तुम मिरे बहाव में ।
हम ने दुस्मन को दोस्त समझा है ,
हम से गलती हुई है चुनाव में ।

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