थाङ राजवंश के अन्तिम काल में राजपरिवार के सदस्यों, कुलीनों, उच्चा अफसरों और जमींदारों में अधिक से अधिक जमीन हथियाने की जबरदस्त होड़ शुरु हो गई। ज्यादातर किसानों के हाथ से उनकी जमीन निकलती गई और वे शिकमी काश्तकार बन गए या फिर बेघर-बेसहारा होकर जीविका की तलाश में दर-दर भटकने लगे।
लगान बढ़कर बहुत ज्यादा हो गया। फसल अभी पककर तैयार भी नहीं होती थी की सरकार किसानों से "हरे पौधों" के टैक्स की उगाही शुरु कर देती थी। ऊपर से शानतुङ और हनान में बार-बार सूखा पड़ता रहा और असंख्य किसानों के सामने रोटी-रोजी की समस्या अत्यन्त भयानक रूप में आ खड़ी हुई। आखिरकार सब तरफ से निराश होकर उन्होंने विद्रोह का रास्ता अपनाया।
874 में वाङ श्येनचि के नेतृत्व में किसानों के एक दल ने छाङय्वान (वर्तमान हनान प्रान्त में स्थित ) में विद्रोह किया। अगले वर्ष, छाओचओ (वर्तमान शानतुङ प्रान्त के छाओश्येन के उत्तर में) के किसानों ने भी ह्वाङ छाओ के नेतृत्व में ऐसा ही किया।
कुछ समय बाद ये दोनों दल मिलकर एक हो गए। लड़ाई में वाङ श्येनचि की मृत्यु हो जाने के बाद उसके समर्थक ह्वाङ छाओ के अनुयायी बन गए। ह्वाङ छाओ ने, जो अपने को "स्वर्ग पर धावा बोलने वाला सेनाधिपति" कहता था, चलायमान युद्ध की रणनीति अपनाई।
उसकी युद्ध नीति थी अपने से कमजोर दुश्मन पर हमला करना और ताकतवर दुश्मन से न उलझना। उसने अपने एक लाख सैनिकों के साथ छाङच्याङ नदी को पार किया और आनह्वेइ, च्याङशी तथा फ़ूच्येन में दुश्मन से लोहा लिया।
वह आगे बढ़ता हुआ क्वाङचओ तक पहुंच गया। 880 में उसने अपने छै लाख सैनिकों सहित छाङच्याङ नदी को दुबारा पार किया और उत्तर की ओर अभियान करते हुए पहले ल्वोयाङ, फिर थुङक्वान पर कब्जा कर लिया। थाङ सम्राट बिना किसी तैयारी के छाङआन से भागकर सछ्वान चला गया। 881 में ह्वाङ छाओ और उसकी किसान सेना ने विजयपूर्वक अभियान करते हुए छाङआन में प्रवेश किया, जहां उसने अपने किसान शासन की स्थापना की। दुर्भाग्यवश, उसने थकी-हारी व छिन्न-भिन्न थाङ सेना का सरगर्मी से पीछा करने और उसको पूरी तरह पछाड़ने के बजाय फिर से गोलबन्द होने का मौका दे दिया।
थाङ सेना ने जमींदारों की सशस्त्र मिलिशमया की मदद से जवाबी हमला किया। चूंकि विद्रोही किसान सेना चलायमान युद्ध करती आ रही थी, इसलिए उसका अपना कोई मजबूत आधार-क्षेत्र नहीं बन पाया था।
थाङ सेना ने छाङआन को सब तरफ से घेर लिया, जिससे विद्रोहियों की खाद्य-सप्लाई कट गई और उन तक किसी प्रकार की फौजी कुमक पहुंचने की उम्मीद भी नहीं रही। इस नाजुक मौके पर ह्वाङ छाओ के एक सहायक चू वन ने विश्वासघात कर थाङ सरकार के सामने आत्मसमर्पण कर दिया। 883 में विद्रोहियों को छाङआन छोड़ने के लिए मजबूर होना पड़ा। उसके अगले वर्ष ह्वाङ छाओ थाएशान पर्वत के निकट हूलाङकू की लड़ाई में मारा गया, फिर भी उसके बचे-खुचे सैनिक कई सालों तक लड़ते रहे।
यद्यपि ह्वाङ छाओ की किसान सेना अन्त में पराजित हो गई, फिर भी उसने थाङ सरकार को जबरदस्त धक्का अवश्य पहुंचाया और उसके विनाश की गति को तीव्र कर दिया।
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