
तुंग जाति का यह कस्बा बहुत बड़ा नहीं है। आम तौर पर ऐसे कस्बे में सौ से दो सौ परिवार रहते हैं। पर हरेक कस्बे के केंद्र में चौक होना अनिवार्य है। चौक के एक ओर ढोल इमारत होती है और दूसरी ओर एक बड़ा रंगमंच। जब कस्बे में कोई महत्वपूर्ण आयोजन होता है, तो समूचे कस्बे के निवासी यहां इकट्ठे होते हैं। जी हां, यह युवकों व युवतियों के प्रेमालाप का स्थल भी है। ढोल इमारत तुंग जाति के कस्बे का प्रतीक भी होती है। तुंग जाति के कस्बों में खड़ी ऐसी पगोडे रूपी ढोल इमारत चार, छै या आठ कोनों की होती हैं।
प्रिय दोस्तो , आप जानते ही हैं कि चीन की कुल 56 जातियों में हान जाति को छोड़कर अन्य 55 अल्पसंख्यक जातियां हैं। इनमें से अधिकतर चीन के सीमावर्ती क्षेत्रों में बसी हुई हैं। आज के चीन का भ्रमण कार्यक्रम में हम दक्षिणी चीन स्थित क्वांगशी च्वान जातीय स्वायत्त प्रदेश के तुंग जाति बहुल सान च्यांग क्षेत्र का दौरा करने जा रहे हैं।
जब हम कस्बे में बड़ी दिलचस्पी दिखाते घूम रहे थे , तो अचानक केंद्रीय चौक से किसी के गाने की आवाज सुनाई पड़ी। तुंग जाति का यह कस्बा बहुत बड़ा नहीं है। आम तौर पर ऐसे कस्बे में सौ से दो सौ परिवार रहते हैं। पर हरेक कस्बे के केंद्र में चौक होना अनिवार्य है। चौक के एक ओर ढोल इमारत होती है और दूसरी ओर एक बड़ा रंगमंच। जब कस्बे में कोई महत्वपूर्ण आयोजन होता है, तो समूचे कस्बे के निवासी यहां इकट्ठे होते हैं। जी हां, यह युवकों व युवतियों के प्रेमालाप का स्थल भी है। ढोल इमारत तुंग जाति के कस्बे का प्रतीक भी होती है। तुंग जाति के कस्बों में खड़ी ऐसी पगोडे रूपी ढोल इमारत चार, छै या आठ कोनों की होती हैं। उल्लेखनीय है कि इस प्रकार की बहुमंजिली लकड़ी की इमारतों के निर्माण में एक कील तक का प्रयोग नहीं किया जाता। यह तुंग जाति की विशेष भवन निर्माण शैली को जाहिर करता है। इस कस्बे के भवन निर्माता यांग स यु ने इस की चर्चा में कहा कि हमारी तुंग जाति इमारत का डिजाइन कागज पर नहीं करती, बल्कि बांस को चीर कर उस पर विशेष संकेतों से कोई डिजाइन तैयार किया जाता है। उनसे बातचीत करते-करते दिन ढलने लगा कि कस्बे के ढोल भवन पर स्थानीय निवासियों ने इकट्ठे होकर गायन प्रतियोगिता शुरू कर दी।
तुंग जाति नाचने-गाने में बड़ी निपुण है। दिन भर के परिश्रम के बाद उसके लोग अपनी थकावट दूर करने के लिए समूहगान गाते हैं या गायन प्रतियोगिता आयोजित करते हैं। तुंग जाति का संगीत बहुत मधुर व मर्मस्पर्शी होता है।
गीत गाने के बाद वे घर लौटकर खाना पकाने में व्यस्त हो जाते हैं। तुंग जाति को खट्टी चीजों से बहुत लगाव है। वे खट्टी मछली, खट्टा बत्तख, खट्टा मांस व खट्टी सब्जियां खाना पसंद करते हैं। जब भी कस्बे में कोई अहम गतिविधि आयोजित होती है, तो समूचे कस्बे के निवासी अपने यहां पकी सब से बढ़िया खट्टी मछली और खट्टे मांस आदि विभिन्न प्रकार के व्यंजन चौक पर लाकर लोगों को खिलाते हैं। इसे सौ परिवारों का भोज कहा जाता है। इस दौरान लोग खुशी से खाना खाते हैं और मदिरा पीते हैं और समूचे गांव के निवासी देर रात तक हर्षोल्लास के साथ नाचते-गाते हैं।
आम तौर पर तुंग जाति के गांव पहाड़ की तलहटी में बसे होते हैं और नदी ऐसे किसी गांव से होकर बहती है। पहाड़ पर उगे घने छायादार पेड़ों के बीच से झांकता ऐसा गांव अत्यंत शांत लगता है। पौ फटते ही नदियों के ऊपर कोहरा उमड़ता नजर आता है और देखते ही देखते एक पहाड़ी गांव उसमें डूब जाता है। इस वक्त लगता है कि यहां के निवासी रहस्यमय स्वर्ग में रह रहे हों। इतना मनोहर दृश्य देखने को मिलता ही नही , यहां के हरेक पुल के दोनों छोरों पर व बीचोंबीच मंडप होते हैं, ताकि लोग थकने पर वहां रुक कर आराम कर सकें और आंधी व वर्षा से बच सकें। इसलिए इस प्रकार के पुल को पवन-वर्षा पुल भी कहा जाता है। यह बड़ा मजेदार कहा जा सकता है । कस्बे के अलग-अलग क्षेत्रों में झूलती इमारतें खड़ी दिखाई दीं।इन इमारतों के बीच लहलहाते खेत, तालाब, बांस के जंगल और सब्जी की क्यारियां बिखरी हुई थीं। यहां के हर परिवार में अब तक पत्थर की चक्की और करघा आदि पुराने औजार सुरक्षित हैं। इन वस्तुओं को देखकर पुराने जमाने की याद ताजा हो गयी। तुंग जाति के इस कस्बे की सभी इमारतें काले खपरैलों से बनी हैं। इतना ही नहीं, स्थानीय निवासी भी काले रंग के कपड़े पहनते हैं। प्रशंसनीय बात है कि इस जाति की महिलाएं कसीदा करने में भी निपुण हैं । वे अपने कपड़ों पर बहुस सुंदर डिजाइन काढ़कर बनाती हैं ।
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