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(GMT+08:00) 2005-08-19 08:57:05    
दक्षिणी राजवंशों के सामाजिक और आर्थिक विकास

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दक्षिणी राजवंशों के जमाने में चीन ने आर्थिक क्षेत्र में विकास के लम्बे डग भरे। कृषि के क्षेत्र में, प्रचुर जल-उपलब्धि और अनुकूल मौसम का लाभ उठाकर साल में धान की दो फसलें उगाई जाने लगीं। कृषि-उप्तपादन बढ़ने के साथ साथ छाङच्याङ नदी के दक्षिण का विशाल क्षेत्र समूचे देश का महत्वपूर्ण धान्यागार बन गया।

दस्तकारी उद्योग ने भी तेजी से प्रगति की। कताई-बुनाई की तकनीक में इस हद तक सुधार किया गया कि य्वी चाङ ( वर्तमान च्याङशी प्रान्त का नानछाङ शहर) जैसे क्षेत्रों में शाम को भिगोए गए सूत से अगली सुबह कपड़ा बनाया जा सकता था। कागज, नमक, लैकर तथा चीनीमिट्टी की वस्तुएं बनाने की विधि तथा पोतनिर्माण की तकनीक में सुधार हुआ। व्यापार पनपने के साथ-साथ नगरों का भी विकास हुआ तथा वहां खुशहाली आई।

च्येनखाङ उस काल में दक्षिणी चीन का एक प्रमुख व्यापार-केन्द्र था। वैदेशिक व्यापार भी पीछे नहीं रहा। फ़ानय्वी (वर्तमान क्वाङचओ) दक्षिणपूर्वी एशिया के साथ चीन के व्यापार का प्रमुख केन्द्र बन गया। दक्षिणी चीन के इस आर्थिक विकास में वहां की व्यापक मेहनतकश जनता ने पर्याप्त योगदान किया, उस के ही कठोर परिश्रम की बदौलत दक्षिणी चीन आर्थिक विकास की दृष्टि से उत्तरी चीन के बराबर पहुंच सका।

उत्तरी वेइ राजवंश के अधीन ह्वाङहो नदीघाटी के तमाम इलाकों के एकीकरण से वहां आकर बसने वाली सभी जातियों की जनता के आपसी संबंध मजबूत हुए और इस प्रकार समूची जनता की एकता सुदृढ़ हुई।

थ्वोपा हुङ अर्थात उत्तरी वेइ राजवंश के सम्राट श्याओवन (शासनकाल 471-499) ने हान जाति के जमींदार वर्ग के राजनीतिक अनुभव से प्रभावित होकर सिलसिलेवार अनेक सुधार किए। 485 ई. में उसने भूमि के समान वितरण की नीति अपनाई, जिसके अन्तर्गत किसान परिवारों को उनकी सदस्य-संख्या व श्रमशक्ति के आधार पर सरकारी जमीन वितरित की गई। बदले में, किसान सरकार को लगान के रूप में अनाज तथा नजराने के तौर पर रेशम या कपड़ा देते थे। उन्हें राजकीय कार्यों में अपना श्रम भी देना पड़ता था और सैनिक सेवा करनी पड़ती थी।

भूमि के समान वितरण की नीति के लागू होने से ऐसी तमाम जमीन, जो बेकार पड़ी हुई थी, भूमिहीन किसानों को मिल गई। फलस्वरूप, उत्तरी चीन की अर्थव्यवस्था के स्वस्थ विकास का आधार तैयार हो गया, सरकारी राजस्व में वृद्धि हुई और किसानों से बेगार लेने में भी कुछ सुविधा हो गई। 494 ई. में उत्तरी वेइ राजवंश अपनी राजधानी फिङछङ से हटाकर ल्वोयाङ ले आया और इस प्रकार उसने मध्यवर्ती मैदान पर अपना नियंत्रण सुदृढ़ कर लिया।

 इसी बीच उत्तरी वेइ सम्राट ने हान जाति की जनता से सीखने का एक कार्यक्रम चलाया, जिसके अन्तर्गत श्येनपेइ जाति के कुलीन लोगों को हान जाति के कुलनाम व वेशभूषा अपनाने, उनकी भाषा बोलने तथा उनके साथ विवाह-संबंध स्थापित करने को प्रेरित प्रोत्साहित किया गया। यहां तक कि उत्तरी वेइ की राजनीतिक व्यवस्था भी हान व्यवस्था के ढांचे के अनुसार निर्मित की गई। उत्तरी वेइ राजवंश द्वारा किए गए इन तमाम उपायों का उद्देश्य हान जाति के जमींदारों का समर्थन प्राप्त करना था। वस्तुगत रूप से, इन उपायों ने श्येनपेइ समाज के सामन्तीकरण की गति तेज कर दी और उत्तरी चीन की तमाम जातियों के समागम में सहायता की।

उत्तरी वेइ राजवंश के अन्तिम काल में सामाजिक अन्तरविरोध तीव्र हो गए और इस तीव्रीकरण की परिणति उत्तरी वेइ शासन के विरुद्ध ह्वाङहो नदी के उत्तर की विभिन्न जातियों की जनता के एक बड़े विद्रोह में हुई। यह विद्रोह असफल रहा, किन्तु उसके बाद स्वयं उत्तरी वेइ राजवंश के शासकों के बीच परस्पर भ्रातृहत्या का सिलसिला शुरू हो गया और अन्त में राजवंश में फूट पड़ गई। 577 ई. में उत्तरी चओ राजवंश ने समूचे उत्तरी चीन को एक किया और अपने नए राज्य में अनेक प्रकार के सुधार किए। इस के फलस्वरूप उसकी आर्थिक व सैन्य शक्ति इतनी बढ़ गई कि वह दक्षिणी चीन के अपने समकालीन प्रतिद्वंद्वी छन राजवंश को समाप्त कर समूचे चीन का एकीकरण करने की स्थिति में पहुंच गया।