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(GMT+08:00) 2005-07-15 15:02:03    
छिन-हान काल में विदेशों के साथ सांस्कृतिक व आर्थिक आदान-प्रदान

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छिन-हान काल में चीन और विदेशों के बीच सांस्कृतिक व आर्थिक आदान-प्रदान में उल्लेखनीय प्रगति हुई थी। सम्राट ऊती के शासनकाल में ही द्वीपीय देश जापान के साथ सम्पर्क कायम करना शुरू हो गया था। 57 ईसवी में यामातो नामक एक जापानी राज्य ने अपना एक दूत उपहारसहित चीन भेजा था।

पूर्वी हान राजवंश के सम्राट क्वाङऊ ने उसके राजा को एक सोने की मुहर भेंट की थी, जिसका पता 1784 में जापान के क्यूशू द्वीप में लगा था। चीन में तैयार कांसे, लोहे और रेशम की चीज़ें जापान भेजी जाती रहीं और जापान के हथियार व दूसरे उत्पाद चीन लाए जाते रहे।

पश्चिमी हान राजवंश के काल में चीन ने दक्षिणपूर्वी एशिया और दक्षिणी एशिया के अनेक देशों के साथ सम्पर्क कायम किया। उस समय लोग समुद्री रास्ते से आज के क्वाङतुङ प्रान्त की श्वीवन काउन्टी या आज के क्वाङशी स्वायत्त प्रदेश की हफू काउन्टी से रवाना होकर, दक्षिणी चीन सागर (नानहाए सागर) के द्वीपों से होते हुए, मलय प्रायद्वीप और बर्मी समुद्रतट के किनारे के कई देशों या भारत के कांची राज्य तक जाया करते थे।

चीन के पश्चिमी क्षेत्रों के स्थलमार्गों से पश्चिमी एशिया के अनेक देशों के साथ भी सम्पर्क कायम किए गए थे। जब चाङ छ्येन को एक विशेष दूत की हैसियत से पश्चिमी क्षेत्रों में भेजा गया था, तो वह आज के पाकिस्तान और अफगानिस्तान के उत्तरी भाग में स्थित ता य्वे चि (इन्दोसाइद) से होकर गया था। उसके सहायक ने"सिंधु"(बाद में"हिंदु"के नाम से प्रसिद्ध और आज के नेपाल व भारत में स्थित) तथा कासमिरा (वर्तमान कश्मीर का एक भाग) की यात्रा की थी। उस काल में बौद्धधर्म नेपाल और भारत से चीन के पश्चिमी क्षेत्रों में पहुंच चुका था और बाद में वह चीन के भीतरी क्षेत्रों में भी पहुंच गया। उस समय चीन के सछ्वान में बने कपड़े भारत में पाए जा सकते थे।

चाङ छ्येन और उसके सहायक ने पश्चिमी क्षेत्रों की अपनी यात्रा के दौरान बाकत्रिया (वर्तमान अफगानिस्तान के उत्तरी भाग में स्थित), पारथिया (आज के ईरान व ईराक की सीमा में स्थित) और दूसरे देशों का भ्रमण भी किया था। तब से चीन और इन देशों के बीच दूतों का अक्सर आदान-प्रदान होने लगा और दोनों पक्षों के व्यापारियों का आवागमन भी शुरू हो गया।

लोहा गलाने और कुआं खोदने की चीनी विधियां इसी काल में इन देशों में लाई गई थीं। चीनी रेशम, लोहा और इस्पात इन देशों में बहुत लोकप्रिय हो गया था और इन में से कुछ चीज़ें तो वहां से आगे रोम तक भी भेजी जाती थीं। इस के साथ ही, पश्चिमी एशिया की कृषि-पैदावार और कलाकृतियां भी चीन लाई जाती थीं। चाङ छ्येन की पश्चिमी क्षेत्रों की यात्रा के बाद, वहां के अनेक देश नियमित रूप से छाङआन में अपने दूत भेजने लगे। एक बार रोम के एक विशेष दूत के साथ वहां का एक जादूगर भी छाङआन आया था, जो"तलवार निगलने और आग उगलने"की उम्दा कला प्रदर्शित कर सकता था।

उस काल में पश्चिमी हान राजवंश की राजधानी छाङआन से एक व्यापारिक मार्ग शुरू होता था, जो कानसू गलियारे और तारिम बेसिन के उत्तर व दक्षिण में स्थित नखलिस्तानों से होता हुआ, पामीर पठार को पार करने के बाद मध्य और पश्चिमी एशिया से होकर, भूमध्यसागर के पूर्वी तट पर स्थित बन्दरगाहों तक पहुंचता था। इस मार्ग की लम्बाई 7000 किलोमीटर से भी अधिक थी तथा वह प्राचीन काल में विश्व का सब से लम्बा और अत्यन्त महत्वपूर्ण व्यापारिक स्थलमार्ग था। उसके जरिए चीन से रेशमी कपड़े का निर्यात किया जाता था, इसलिए इतिहास में यह"रेशम मार्ग"के नाम से प्रसिद्ध हुआ।

 अन्तहीन प्रतीत होने वाले इस रास्ते पर असंख्य दूत और व्यापारी अपने घोड़ों व ऊंटों के कारवांओं के साथ पहाड़ों व रेगिस्तानों को पार करते हुए आया-जाया करते थे। निस्सन्देह, इस रास्ते के आसपास के सभी देशों की जनता ने अन्तरराष्ट्रीय वाणिज्य को बढ़ावा देने तथा राष्ट्रों के बीच मित्रता और आपसी समझ में वृद्धि करने में भारी योगदान किया था।