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(GMT+08:00) 2005-06-28 17:02:55    
ह्वानसांग और उन की अमर रचना महा थांड राजवंश काल में पश्चिम की तीर्थयात्रा का वृतांत

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श्री सुन बाऔ गांक ह्वानसांग अनुसंधान केंद्र के महा सचिव भी हैं। वे कह रहे हैं। ह्वानसांग का जन्म सन 600 में उत्तरी चीन के हनान प्रांत की येश काऊंटी में हुआ। वह चीन के थांग राजवंश काल के एक सुप्रसिद्ध बौद्ध आचार्य थे। चीन के बौद्ध धर्म के इतिहास में उन्होंने अतीत और भविष्य को साथ जोड़ कर अपना अत्यन्त महत्वूपर्ण स्थान बना लिया था। बौद्ध धर्म के विस्तृत अध्ययन के लिए वे भारत में 17 वर्षों तक रहे।

स्वदेश लौटने के बाद उन के द्वारा लिख वाये गये और उन के शिष्य प्यैची द्वारा संकलित " महा थांड राजवंश काल में पश्चिम की तीर्थ यात्रा का वृत्तांत " में भारत और मध्य एशिया के उन 110 राज्यों , जिन की ह्वानसांग ने यात्रा की थी औऱ श्रुत अट्ठाईस राज्यों का श्रेणीबद्ध रुप से विवरण दिया गया। प्राचीन भारत के ऐतिहासिक अभिलेखों का अभाव होने के कारण यह यात्रा वृत्तांत अपनी व्यापक विष्य वस्तुओं का सुस्पष्ट वर्णन औऱ सही विवरण से मध्य एशिया, अफगानिस्थान पाकिस्तान तथा भारत के प्राचीन इतिहास और भूगोल के अध्ययन के लिए सब से महत्वूप्रण प्रत्यक्ष संदर्भ सामग्री बन गया है।

ह्वानसांग ने बौद्ध सूत्रों के अनुवाद को बड़ा महत्व दिया था। बिना अत्युक्ति के कहा जा सकता है कि अनुवाद के इतिहास में वे प्रथम विभूति भी थे और अंतिम विभूति भी। उन्हीं के तत्वावधान में बौद्ध सूत्रों के 1335 खंडों का चीनी में अनुवाद किया गया। चीन और भारत के बीच सांस्कृतिक आदान-प्दान के इतिहास में ह्वानसांग सर्वश्रेष्ठ दूत थे। भारत में प्रवास के दौरान वे महायान के प्रचार के सुप्रसिद्ध आचार्य बन गये औऱ स्वदेश लौटने के बाद उन्होंने जिस फाश्यांगजूंग यानी धर्म लक्षण शाखा की स्थापना की, वह लोयांग तथा शीएन में दसियों वर्षों तक प्रचलित रही।

चीन और भारत इन दो प्राचीन सभ्यता वाले देसों के बीच बहुत पुराने काल में ही संबंध स्थापित हो चुके थे। थांग राजवंश काल में दोनों देशों के बीच संस्कृति का आदान-प्रदान और भी सुगम रुप से होने लगा। चीन के इतिहास में थांड राजवंश एक शानदार काल रहा। तब चीन में स्थिरता थी औऱ अर्थतंत्र व संस्कृति अपनी पराकाष्ठा पर पहुंच चुके थे। तत्कालीन राजधानी छांग एन उस काल का पूर्व का एक महा नगर था। अन्य देशों के दूतों विद्वानों औऱ व्यापारियों का शानएन में जमराट रहा था। और छांग एन तत्कालीन अंतरराष्ठ्रीय आर्थिक व सांस्कृतिक आदान-प्रदान का एक महत्वूप्रण केंद्र बन गया था। थांग राजवंश ने खुली नीति अपनायी। उस समय चीन मध्य एशिया, दक्षिण एशिया, अरब , यहां तक अफ्रीका के साथ भी व्यापक रुप से व्यापार करता था और आर्थिक व सांस्कृतिक आदान-प्रदान करता रहता था। विशेषकर चीन भारत संबंध उस समय में एक शिखर पर पहुंच गया था। थांग राजवंश के दौरान, 52 चीनी भिक्षु बौद्ध धर्म के अध्ययन के लिए भारत गए औऱ भारत से 16 आचार्य चीन आए। भारत से बौद्ध धर्म के साथ साथ साहित्य, कला, संगीत, हेतु विद्दा, शब्द किया। यहां तक कि ज्योतिष, पंचांग व चिकित्सा भी चीन आए।

परन्तु थांग राजवंश काल में ईसा की चौथी औऱ पांचवीं शताब्दी में उत्पन्न महा यानिक योगाचार सम्प्रदाय ने प्रचार से चीन में बौद्ध धर्म की विभिन्न शाखाओं के बीच अंतर विरोध व मतभेद औऱ तीव्र हो गये। महायान और हीनयान के बीच पहले से ही तकरार थी और फिर महायान के योगाचार व शून्यवाद के बीच भी भिड़न्त होने लग गयी। प्रमुख मतभेद बुद्धत्व को लेकर था।

बुद्धत्व की समस्या ह्वानसांग के लिए भी एक चिन्तन का विष्य था और इसी समस्या ने उन्हें भारत जाने को प्रेरित किया था। ह्वानसांग का कुलनाम छन ई था। उन्हें त्रिपिटक आचार्य से सम्मानित किया गया। तेरह वर्ष की उम्र में उन्होंने प्रव्रज्या प्राप्त की औऱ अपना नाम बदल कर ह्वानसांग रखा। बाद में बौद्ध सूत्रों के अध्ययन के लिए उन्होंने उत्तरी चीन के ह पेई, ह नान, शान शी औऱ दक्षिण पश्चिमी चीन के सी छ्वान आदि क्षेत्रों का भ्रमण कर 13 सुविज्ञ भिक्षुओं से "महा परिनिवर्ण सूत्र" तथा अन्य अनेक सूत्र सीखे। तिस पर भी बुद्धत्व की समस्या पर उन्हें एक सुनिश्चित औऱ सर्वसम्मत उत्तर नहीं मिल सका। अनेक समस्याओं पर ह्वानसांग और विभिन्न आचार्यों के मत अलग अलग थे। जबकि मध्य और पश्चिम एशिया से प्राप्त संस्कृत बौद्ध सूत्रों के अनुदित पाठ समझना कठिन लगता था औऱ सूक्षम तत्वों का सम्यक अनुवाद नहीं किया गया था। बौद्ध धर्म के सूक्ष्म तत्वों का अध्ययन करने और उन का सटीक अर्थ मालूम करने के लिए उन्होंने तत्कालीन सरकार से भारत जाने की अनुमति मांगी, पर उन की मांग अस्वीकार कर दी गयी। वर्ष 629 में ह्वानसांग ने निषेधाज्ञा का उल्लंखन कर छांग एन से प्रस्थान कर पश्चिम की दिशा में बढ़ते हुए व्यू मन दर्रे से गुजर कर मध्य भारत में नालन्दा संधाराम की ओर अभियान आरम्भ कर दिया। रास्ते में नाना कष्ट झेले और अकाल्पनिक कठिनाइयों का सामना किया। कई बार वे मरते मरते बचे। उन्होंने जल विहीन रेगिस्तान पार किया, वर्ष भर बर्फ से ठके रहने वाले ऊंचे ऊंचे पहाड़ों और हिम नदियों को पार किया। अन्त में वे मध्य भारत में मगध के राजगृह पहुंच गए औऱ बौद्ध धर्म के केंद्र नालन्दा संधाराम के भिक्षुओं ने उन का स्वागत किया।

नालंदा संधाराम भारत में बोद्ध धर्म का सर्वोच्च विद्दालय था। इस के स्थविर आचार्थ शीलभद्र की आयु तब नब्बे वर्ष से अधिक हो चुकी थी। वे असंग औऱ बसुबंधु के सिद्धांत ग्रहण कर योगाचार, विज्ञानवाद, हेतु विद्या औऱ शब्द विद्दा में प्रवीण थे। वे बोद्ध धर्म के अधिकाधिक विद्वान माने जाने थे। ह्वानसांग ने उन से योगाचार भूमि शास्त्र पर व्याख्यान सूने, सभी बौद्ध सूत्र पढ़ डाले और ब्राहमण सूत्रों व ग्रंथों का सर्वागीण अध्ययन किया। पांच वर्ष तक कड़ी मेहनत करने के बाद उन की शिक्षा पूरी हुई। फिर उन्होंने समूचे भारत की यात्रा आरम्भ की। इसी बीच उन्होंने सुप्रसिद्ध बौद्ध आचार्य से शिक्षा ली। यात्रा पूरी होने पर वे फिर नालन्दा लौट गये। शीलभद्र की अनुशंसा पर ह्वानसांग ने "महायान संपरिग्रह शास्त्र""विज्ञापति मात्र सिद्धि त्रिशंक कारिका शास्त्र "पर व्याख्यान दिये।

उन्होंने भारतीय भाषा में बोलते हुए शास्त्रों के सूक्ष्म तत्वों पर प्रकाश डाला औऱ सुबोध रुप से मतों को स्पष्ट किया। उन के व्याख्यान सुनने वालों का जमघट लग गया। इस तरह उन की ख्याति समूचे भारत में फैल गई। ह्वानसांग ने तीन हजार श्लॉकों में "वाद प्रतिवाद का विश्लेषण "प्रतिपादित कर योगाचार के सिद्धांतों का विकास किया तथा योगाचार व माध्यक इन दो संप्रदायों का संमिश्रण किया। उन्होंने ब्राहमण शास्त्रकार के साथ तर्क वितर्क में विजय पाई। इस बात की ओर मगघ के राजा शीलादित्य का ध्यान आकर्षित हुआ। ह्वानसांग ने राजा शिलादिल्य को चीन की राजनीति, अर्थतंत्र औऱ संस्कृति का परिचय दिया। उन्होंने खासकर थांग राजवंश के सम्राट ताइजूंग का गुणगान किया। वर्ष 642 में राजा शीलादिल्य ने कन्याकुब्ज में ह्वानसांग के लिए पंच वार्षिक परिषद का आयोजन किया। परिषद में ह्वानसांग ने महायान के सिद्धांतों पर व्याख्यान दिया। परिषद में भारत के 18 राजा तीन हजार से अधिक महायानी भिक्षु, दो हजार ब्राहमण औऱ नान्दा के एक हजार भिक्षु शरीक हुए थे। यह सब , अभूतपूर्व थी। परिषद 18 दिन चली औऱ ह्वानसांग वाद विवाद में विजयी हुए। उन्हें "महायान देव "और "मोक्ष देव"की उपाधियों से अलंकृत किया गया।

वर्ष 645 के वसंत में ह्वानसांग स्थलीय मार्ग से स्वदेश लौट आए। छान एन में उन का शानदार स्वागत किया गया। वे अपने साथ 12 घोड़ों रक 657 सस्कृत बौद्ध सूत्रों और बड़ी संख्या में बुद्ध मूर्तियों को लाद कर लाए थे। ह्वानसांग की मान्यता थी कि उन की शंकाएं भारत में दूर हो चुकी थी। इसलिए, उन्होंने स्वदेश लौटकर फाश्यांगजूंग यानी धर्म लक्षण शाखा स्थापित की। इस के साथ साथ ह्वानसांग ने बौद्ध सूत्रों का चीनी में अनुवाद करना शुरु किया। चीनी सम्राट ताइजूंग ने एक संघाराम को उन का निवास बनाया और एक वृहद बौद्ध सूत्र अनुवाद प्रतिष्ठान की स्थापना के लिए देश के विभिन्न स्थानों से ज्ञानी भिक्षुओं के चयन में उन्हें सहायता दी। इस प्रतिष्ठान के अध्यक्ष औऱ प्रमुख अनुवाद , स्वयं ह्वानसांग ही थे। इस प्रतिष्ठान में 19 वर्षों में 75 बौद्ध सूत्रों का चीनी में अनुवाद किया गया, जिन के चीनी शब्दों की कुल संख्या एक करोड़ तीन लाख थे। उन के अनूदित पाठ प्राचीन भारत की विचारधारा और संस्कृति के अध्ययन के लिए अमूल्य सामग्री हो गए ।

ह्वानसांग एक सक्रिये सामाजिक कार्यकर्ता भी थे। सम्राट ताइजूंग मध्य व पश्चिम एशिया औऱ भारत की उपजों औप प्रथाओं के विष्य में उन से अनेक प्रश्न किये।और उन्होंने तुरंत भी विस्तृत उत्तर दिये। सम्राट ताइजूंग ने उन से एक पुस्तक लिखने तथा फिर गृहस्थ होकर राजकीय कामकाज निपटाने में योगदान देने का आग्रह किया। ह्वानसांग ने पुनः गृहस्थ होने से इन्कार कर दिया।

ह्वानसांग ने सम्राट ताइजूंग की आज्ञानुसार, महा थांग राजवंश काल में पश्चिम की तीर्थ यात्रा का वृतांत लिखा। इस पुस्तक का , संस्कृति के इतिहास में अनुपम औऱ अमूल्य स्थान है। यह पुस्तक भारत के प्राचीन यानी ईसा की सातवीं शताब्दी से पूर्व के इतिहास के संदर्भ में एक सर्वाधिक मूल्यवान कृति है। आज भी प्राचीन भारत का अध्ययन के लिए , इस रचना का सहरा लेना पड़ता है।

इस रचना के कुल 12 खंड है। उस में उन 110 राज्यों, जिन की ह्वानसांग ने यात्रा की थी और 28 अन्य राज्यों का विवरण किया गया है। ह्वानसांग ने जिन विशाल क्षेत्रों का वर्णन किया है, वे उत्तर पश्चिम चीन से पश्चिम में ईरान तक भूमध्य सागर के पूर्वी तट, दक्षिण में भारत प्रायद्वीप और श्रीलंका , उत्तर में मध्य एशिया के दक्षिण भाग व उत्तर अफगानिस्तान औऱ पूर्व में हिन्द चीन प्रायद्वीप औऱ इन्दोनेशिया तक फैले हुए है। उस काल में भारत कुल 80 राजयों में विभाजित था, उन में से 75 राजयों का ह्वानसांग ने भ्रमण किया था।

पिछले एक हजार वर्ष से अधिक समय में पुरातत्व के क्षेत्र में नई नई खोजों और इतिहास के अध्ययन में निरंतर प्रगति के साथ साथ , 玄奘 के यात्रा वृत्तांत का महत्व सिद्ध होता गया है।

पुरातन्वेताओं ने उन के उल्लेखों के अनुसार, राजगृह के खंडहरों, मृगदाव अजन्ता और नालन्दा में खुदाई की औऱ भारी उपलब्धियों प्राप्त की। भारत पर लिखी गई शायद ही ऐसी कोई कृति मिल सकती है, जिस में ह्वानसांग के यात्रा वृतांत से उद्धारण न लिया गया हो। हालांकि ह्वानसांग एक हजार वर्ष से पहले के महा पुरुष थे, फिर भी आज भी उन का नाम भारतीय औऱ चीनी जनता की जुबान पर है। वे चीन भारत मैत्री के एक जीवन्त प्रतीक बन चुके हैं।