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(GMT+08:00) 2005-06-28 17:01:47    
सत्य की तलाश करने की राह पर नापते रहे यात्री

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दो हजार वर्ष से अधिक समय तक चीन और भारत के असंख्य यात्रियों ने विभिन्न भार्गों से एक दूसरे के देश की यात्रा की। कठिनाइयों और खतरों के सामने अविचलित रहते हुए उन्होंने चीन और भारत की जनता की मैत्री को सृदृढ़ बनाने के लिए अनेक प्राकृतिक और मानव निर्मित बाधाओं को दूर किया। चीन और भारत के ये यात्री सांस्कृतिक आदान प्रदान के पुल बन गये। हालांकि उन में से अधिकांश लोगों के नाम अब विलुप्त हो चुके हैं, फिर भी उन की उपलब्धियों को आज भी देखा जा सकता है।

उन में वैज्ञानिक कलाकार, श्रृद्धालु तीर्थयात्री , नाविक, व्यापारी औऱ सरकारी दूत सभी प्रकार के लोग थे। उन्होंने अनेक शताब्दियों तक वैचारिक औऱ तकनीकी आदान-प्रदान के लिए कठोर परिक्रम किया और दोनों देशों के बीच सम्पर्क और सांस्कृतिक आदान-प्रदान बढाकर दोनों देशों की जनता की मैत्री का निर्माण किया और उसे सुदृढ़ बनाया । दोनों देशों के राजनीतिक संबंधों से केवल उन की जनता की मैत्री ही प्रतिबिंबित होती थी।

प्राचीन काल में भारत जाने वाले कुछ चीनी यात्रियों की कहानियां आज भी ज्ञात हैं। क्योंकि उन में से कुछ लोगों ने अपनी भारत यात्रा का ब्यौरा तथा वहां जाकर देखी सुनी चीजों का ब्यौरा लिपिबद्ध किया था। ये विवरण अधिकांशतः बिलकुल सही हैं और इन का भारी एतिहासिक मूल्य है। साथ ही ये इस बात का प्रमाण भी है कि इन लेखकों का रवैया कितना गंभीर और वैज्ञानिक था। इन में से कुछ लेखक सुयोग्य इतिहारकार भी थे, जिन की ख्याति अब समूचे विश्व में फैल चुकी है और जिन्हें भारतीय इतिहास के छात्र अत्यंत प्रामाणिक मानते। ऐसे लेखकों में फैश्यैन,जूंगयून , ह्वानसांग , वांग श्वैनत्से और ईजींग के नाम विशेष रुप से उल्लेखनीय हैं। उन में ह्वेचाओ नामक एक कोरियाई भी थे। फैश्यैन,ह्वानसांग और ईजींग के विवरण पूर्ण तथा सुरक्षित हैं, जबकि दूसरे लोगों के विवरण केवल आंशिक रुप से उपलब्ध है। शेष विवरण पूरी तरह विलुप्त हो चुके हैं। औऱ उन के केवल नाम ही बाकी ही रह गये हैं।

वांग श्वैनत्से और अन्य एकाध लोगों ने राजनीतिक मिशन पर भारत यात्रा की थी। अधिकांश चीनी यात्री, जिन की रचनाएं आज भी सुरक्षित हैं, बौद्ध तीर्थ यात्रा के लिए भारत गये थे। बौद्ध धर्म का अध्ययन करने के लिए चीन से पश्चिम की ओर तीर्थ यात्रा करने का सिलसिला ईसा की तीसरी शताब्दी में वेई वेई राजवंश के शासन काम में शुरु हो गया था। और सोंग सूंग शासन काल तक कमोबेश जारी रहा। ईसा की तीसरी शताब्दी के मध्य से आठनीं शताब्दी के मध्य तक लगभग पांच सौ वर्श की अवधि में कोई 170 बोद्धों के भारत की ओर जाने के उल्लेख प्राप्त हुए हैंष। इन में से कोई एक तिहाई लोगों के नाम अज्ञात हैं। कुछ रोग ऐसे भी हैं, जो अपने गंतव्य तक पहुंच पाए। 1033 ईसवी तक अनेक तीर्थ यात्री भारत गये पर उन की उलपब्धियां अपेक्षाकृत कम उल्लेखनीय हैं।

इन यात्रियों ने बौद्ध ग्रंथों के अनुवाद में शानदार योगदान करने के अलावा भारत और चीन के मैत्रीपूर्ण संबंधों के विकास में भी महत्वूपर्ण भूमिका अदा की। इस सराहनीय कार्य में उन्हें भारी कठिनाइयों और खतरों का सामना करना पड़ा था।

ईसा की तीसरी शतबदी से पहले चीन से कोई तीर्थ यात्री बारत गया था या नहीं, इस के बारे में विश्वासनीय प्रमाण उपलब्ध नहीं है। लेकिन, उस काल में भी चीन के शिन च्यांग से कुछ यात्री भारत अवश्य गये होंगे। चीन के तिब्बत से अधिकांश तीर्थ यात्री थांग काल औऱ सुंग काल में यानी ईसा की सातवीं औऱ ग्यारहवीं शताब्दी के बीच भारत गये। ईसा की बारहवीं शताब्दी के बाद चीन से भारत जाने वाले तीर्थ यात्रियों का सिलसिला बन्द हो गया, क्योंकि तब तक भारत से बौद्ध धर्म लगभग विलुप्त हो चुका था।

भारत पहुंचने और महत्वपूर्ण उपलब्धियां प्राप्त करने वाला प्रथम चीनी भिक्षु पूर्वी चिन सन् 317 --420 के काल का फाश्यैन ही था, जिन की गणना भारत जाने वाले अत्यंत महत्वूपर्ण यात्रियों में की जाती है। पूर्वी चिन राजवंश के काल में अड़तीस बौद्ध भिक्षुओं ने पश्चिम की ओऱ यात्रा की थी। उन में से उन्नीस लोगों के नाम विलुप्त हो चुके हैं। कुछ लोग बारत नहीं पहुंच पाए, औऱ कुछ लोगों की भारत पहुंचने से पहले ही मृत्यु हो गई और कुछ लोगों का स्वदेश लौटते समय देहांत हो गया। बहुत कम लोग अपने उद्देश्य से कामयाब हो सके औऱ लौटने के बाद अपने अनुभवों को लिपिषद्द कर सके। फाश्यान से चार वर्ष पहले थांग मडं चीमंग नाम के एक भिक्षु चीन से भारत की ओऱ रवाना हुआ था। लेकिन इस के बारे में केवल यह मालूम है कि वह भारत गया औऱ वहां से लौट आया था। जी मडं चीमंग नामक एक अन्य बौद्ध भिक्षु भी चौदह भिक्षुओं के साथ भारत गया था. लेकिन, उन में से नौ भिक्षु पामीर पठार से आगे नहीं जा पाए थे और एक भिक्षु का रास्ते में ही देहांत हो गया था। इस तरह केवल चीमंग तथा उस के चार साथी ही गन्तव्य तक पहुंच पाए थे। भारत में उन्होंने अनेक स्थानों की यात्रा की। लेकिन स्वदेश लौटते समय रास्ते में उन के तीन अन्य साथियोंकी मृत्यु हो गई। केवल जी मडं औऱ उस के अन्य एक साथी ही शेष रह गए। ह्वे रे नामक एक भिक्षु ने, जो भारतीय भाषा सीखने दक्षिण भारत गया था, स्वदेश लौटकर कुछ अनुवाद कार्य किया।

फाश्येन के दो साथियों के नाम विशेष रुप से उल्लेखनीय है। उन में से एख का नाम बौयून था। बौयून संस्कृत भाषा का विद्वान था, उन के द्वारा किये गए बोद्ध सूत्रों के अनुवादों को काफी बड़ी प्रशंसा प्राप्त हुई। चि येन चीयैन एक अन्य भिक्षु था। जिस ने केवल तीन वर्ष की अवधि में आठ दस वर्ष से भारत में अध्ययन करने वाले लोगों से कहीं ज्यादा सीखा था। भिक्षुओं औऱ भारतीय मित्रों ने उस की भरपूर प्रशंसा की थी। स्वदेश लौटने के बाद उस ने भारतीय विद्वान बुद्धभद्र को चीन आने का निमतंर्ण दिया। बुद्धभद्र ने चीन आकर अनुवाद कार्य और अध्ययन कार्य में भारी योगदान किया। चि येन और बाओ व्न ने मिलकर एक बौद्ध सूत्र का अनुवाद किया। फिर चि येन समुद्र मार्ग से दूसरी बार भारत गया। दूसरी यात्रा के बाद स्वदेश लौटते समय कश्मीर में उस की मृत्यु हुई।

ईसा की पांचवीं औऱ छठी शताब्दी में उत्तरी और दक्षिणी राजवंशों के काल में 70 से ज्यादा भिक्षुओं ने पश्चिम की ओऱ यात्रा की थी। उन में से अधिकांश लोग 420 से 478 ईसवी के बीच गये थे।

भारत जाने वाले इन तीर्थ यात्रियों में उन के पूर्व गामी तीर्थ यात्रियों की ही तरह सभी तीर्थ यात्री ऐसे नहीं थे, जो अपनी यात्रा पूरी कर सके। उन में से कुछ लोगों की रास्ते में ही मृत्यु हो गई थी। जो लोग सकुशल लौट सके, उन के द्वारा लिखे गये विवरणों के भी केवल कुछ ही छिटपुट अंश उपलब्ध है। अपनी यात्रा का वृत्तांत लिखने वालों में फा व्न फायून भी था। वह स्थल मार्ग से भारत गया और समुद्र मार्ग से स्वदेश लौटा था। उस के साथ 24 व्यक्ति औऱ गये थे, जिन में से केवल पांच ही लोग स्वदेश लौट सके। ताऔफू एक अन्य यात्री था। उस ने भारत के कोने कोने की यात्रा की तथा संस्कृतक और अन्य भारतीय भाषाएं सीखी थी। लेकिन अपनी दूसरी भारत यात्रा के दौरान उस की मृत्यु हो गई। इन के अलावा, और अनेकों के नाम भी उल्लेखनीय है, पर यहां हम इन का जिक्र नहीं करेंगे।

थांग राजवंश के काल में ईचींग ने भारत जाकर एक ऐसा बौद्ध विहार देखा था, जो चीन -विहार कहलाता था। उसे पता चला था कि इस विहार का निर्माण कई सौ वर्ष पहले उन बीच से अधिक चीनी भिक्षुओं के लिए किया गया था, जो सी छ्वान सीछ्वान से स्थल मार्ग से वहां पहुंचे थे। इन भिक्षुओं की बाद में भारत में ही मृत्यु हो गयी थी। इस बात से यह मालूम है कि भारत जाने वाले यात्रियों की संख्या एतिहासिक अभिलेखों में प्राप्त संख्या से कहीं अधिक थी। तथा दूर देश से आने वाले इन यात्रियों का भारतीय जनता ने खूब स्वागत किया।

थांग राजवंश के शासनकाल में सातवीं से नवीं शताब्दी के बीच भारत जाने वाले तीर्थ यात्रियों की संख्या 50 से ज्यादा मानी जाती है। उस काल में भआरत जाने वाले यात्री विभिन्न रास्तों से यात्रा कर सकते थे। मध्य एशिया के रास्ते तिब्बत व नेपाल के रास्ते औऱ दक्षिणी सागर के रास्ते । अनेक चीनी भिक्षुओं ने भारत जाने से पहले जावा औऱ सुमात्रा जाकर बौद्ध सूत्रों का अध्ययन किया था।

थांग राजवंश के शासन काल में भारत यात्रा करने वाले दो चीनी भिक्षु सब से प्रसिद्ध थे। भारत जाने वाले तीर्थ यात्रियों में ईचींग ने तिब्बत और शिन च्यांग के लोगों की चर्चा भी की है। सुंग राजवंश के शुरु में यानी ईसा की दसवीं शताब्दी के उत्तरार्ध में चीनी शासकों ने अनेक भिक्षुओं को अध्ययन करने भारत भेजा। ऐतिहासिक उल्लेखों के अनुसार, 964 ईसवी में तीन सौ भिक्षु और 966 में 157 भिक्षु भारत गए थे। उन्होंने कोई उल्लेखनीय उपलब्धि प्राप्त नहीं की। चीये नामक भिक्षु द्वारा लिपिवद्द विवरण के उद्धारणों में कहा गया है कि वह पश्चिमी मार्ग से भारत गया था तथा नेपाल व तिब्बत के रास्ते स्वदेश लौटा था।

भारत के बोध गया में पांच चीनी शिलालेख उपलब्ध है। उन पर अंकित है सुंग राजवंश के शुरु में एक भिक्षु दल पांच बार भारत गया था । ये शिलालेख आज भी सुरक्षित है।

ईसा की तीसरी शताब्दी से बारहवीं शताब्दी तक कोई एक हजार वर्ष की अवधि में असंख्य तीर्थ यात्री लम्बे और कठिन रास्ते पार कर के अनवरत रुप से चीन से भारत जाते रहे। उन का मकसद ज्ञान विज्ञान की खोज और बौद्ध धर्म का प्रचार प्रसार करना था। दुनिया के इतिहास में इस की मिसाल अन्य जगह में कहीं नहीं मिलती। यह विलक्षण ऐतिहासिक घटनाक्रम न सिर्फ चीन और भारत की जनता की मैत्री का बेहतरीन प्रमाण है, बल्कि हमारे पूर्वजों के श्रेष्ठ गुणों का साक्षी भी है।