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(GMT+08:00) 2005-06-17 18:49:03    
चीन के मशहूर प्रोफेसर वू पेई ह्वेई

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प्रोफेसर वू पेई ह्वेई ने हमारे श्रोताओं को चीन में भारतीय दर्शन शास्त्र के अनुसंधान के बारे में कुछ परिचय दिया। उन के अनुसार, भारतीय संस्कृति की सार, भारतीय दर्शनशास्त्र है। भारतीय दर्शनशास्त्र की व्यवस्था, ब्राहम्ण दर्शनशास्त्र और बाद में इस का विकृत रुप बौद्ध दर्शन शस्त्र से बनती है। आम तौर पर चीनी विद्वान भारतीय दर्शनशास्त्र के अनुसंधान से बौद्ध दर्शन शास्त्र का अध्ययन करना शुरु करते हैं। इस के बाद भारतीय दर्शनशसास्त्र का अनुसंधान करने लगते हैं। मैं ही इस की एक मिसाल हूं।

यह पूछे जाने पर कि आप किस कारण से और कब भारतीय दर्शनशास्त्र में रुचि लेने लगे। वे कह रहे हैं। वर्ष नौ दिसम्बर 1919 में मेरा जन्म, हांगकांग के एक आम नागरिक के परिवार में हुआ। मेरे पिता जी की युवावस्था में ही मृत्यु हुई। मैं और मेरा छोटा भाई, नौकरानी का काम करने वाली माता जी की देखभाल में पले बढ़े। शुरु में मैं हांगकांग के एक परोपकारी संस्था द्वारा स्थापित एक स्कूल में पढ़ता था, और ब्रिटिश प्राइमरी औऱ मिडिल शिक्षा पाता था। माता जी एक श्रद्धालु बोद्ध अनुयायी थी। उन के प्रभाव में आकर बोद्ध सूत्रों के अध्ययन में मेरी रुचि बढ़ती गई। तब से मैं अक्सर बौद्ध संघ द्वारा आयोजित बौद्ध दर्शनशास्त्र के अध्ययन संबंधी गतिविधियों में भाग लिया करता था। वर्ष 1940 में चीनी बौद्ध संघ के एक संगठन की सहायता से पढ़ने के लिए मैं विश्वभारती गया। आप लोग जानते हैं कि विश्व भारती की स्थापना सन 1918 में हुई। इस विश्वविद्दालय के चासलर भारतीय महा कवि श्री रवीन्द्रनाथ ठाकुर थे। रवीन्द्रनाथ ठाकुर ने विश्वभारती को अंतरराष्ट्रीय सांस्कृतिक आदान प्रदान का एक पुल और खजाना बना लिया था। जो भारत और अन्य देशों के बीच सांस्कृतिक संबंधों के अध्ययन करने वाले देशी विदेशी निद्धानों को आवश्यक सुविधा और सहायता प्रदान करता था। विश्वभारती के दो महत्वपूर्ण विभाग थे यानी B .A के लिए चार वर्षों का कोर्स वाला विभाग और एम ए के लिए दो वर्षों का कोर्स वाला विभाग। महा कवि, रवीन्द्रनाथ ठाकुर चीन भारत के सांस्कृतिक संबंधों को बहुत महत्व देते थे। उन्होंने चीना भवन की स्थापना की, प्रोफेसर 谭云山 इस भवन के प्रथम प्रधान के पद पर नियुक्त हुए।

वर्ष 1942 में मैं विश्व भारती में प्राचीन भारत के दर्शन शास्त्र, संस्कृत, बौद्ध संस्कृत औऱ हेतु विद्या, प्राचीन भारत की सभ्यता के इतिहास, हिन्दी औऱ फ्रांसिसी भाषा का अध्ययन करता रहा। वर्ष 1946 में मैंने बी ए पास किया औऱ वर्ष 1948 में मैंने एम ए का डिग्री प्राप्त किया। सन् 1949 में मैं इसी विश्विद्यालय में पढ़ाने लगा। और 1950 में पी एझ डी के लिए बम्बेई के पूना युनिवर्सिटि में पढ़ने लगा। सन् 1952 में मैं भारत से स्वदेश लौट आया। शुरु में मैं पेइचिंग विश्विद्यालय में लेक्चर के रुप में हिन्दी पढ़ाने लगा। फिर 1958 में मैं the commercial press में संपादक के रुप में काम करने लगा। मेरे कार्य काल के दौरान हिन्दी चीनी शब्द कोष , हिन्दी पाठ्य पुस्तक, हिन्दी मुहावरा कोष, संस्कृत पाठ्य पुस्तक तथा संस्कृत काव्य का आरेख आदि प्रकाशित किया गया।

यह पूछे जाने पर कि भारतीय दर्शनशास्त्र के अनुसंधान में आप ने कौनसी सफलताएं प्राप्त की। वे कह रहे हैं, वर्ष 1978 में मैं व्यापारी प्रेस में चीनी सामाजिक विज्ञान अकादमी के दर्शन शास्त्र अनुसंधान शाला में आकर भारतीय दर्शन शास्त्र के अनुसंधान के लिए तैयारी का काम करने लगा। वर्ष 1983 में मुझे पूर्वी दर्शन शास्त्र अनुसंधान विभाग के प्रधान के पद पर नियुक्त किया गया। इसी दौरान, मैंने भारतीय दार्शनिक विचारों के स्रोत के बारे में एन्गर्स के विवरणों का संजीदगी से अध्ययन किया। और भारतीय दर्शन शास्त्र के चार क्षेत्रों के अनुसंधान की योजना बनायी। एक वेद दर्शन शास्त्र, दो उपनिषद औऱ वेदांत , तीन, प्राचीच भारत की श्रद्धांत्मक विचार धारा। चार नयाया बिन्दू हेतु विद्या। वर्ष 1983 से भारतीय दर्शनशास्त्र पर अनुसंधान ऊपर के क्षेत्रों में केंद्रित हुआ। आज तक कोई बीस वर्ष गुजर और कुछ उपलब्धियां भी हासिल हुई हैं। इसी बीच मैंने अनेक निबंध प्रकाशित करवाये। उन में से प्रमुख निबंध हैं।

एक, वेद संस्कृत दार्शनिक काव्य संग्रह, वेद औऱ दर्शन शास्त्र। दो , ऋग्वेद सौदर्य संबंधी कविता संग्रह, वेद सामसारा का अध्ययन , पुरुष उपनिषद की खोज।तीन, भारतीय वेदांत वाद का दर्शन, उपनिषद तथा उस का भौतिकवाद का दर्शन। चार , भारतीय तर्क शास्त्र का इतिहास, संस्कृत हेतु विद्या नयाया वन्दु।

सारांश में कहा जाए कि मेरी कामयाबियां मुख्य रुप से मेरी तीन रचनाओं पर अभिव्यक्त है, यानी भारतीय दर्शन और बौद्ध धर्म पर, भारतीय दर्शन शास्त्र।

वर्ष 1984 में विश्व भारती ने भारतीय दर्शन पर मेरी उपलब्धियों की प्रशस्ति में विशेष रुप से मुझे मान सेवी डाक्टर औऱ सर्वोच्च सम्मानीय प्रोफेसर की उपाधि प्रदान की। इस के प्रमाण पत्र पर तत्कालीन विश्वभारती के प्रधान, भारतीय प्रधान मंत्री श्री राजीव गांधी ने हस्ताक्षर किये थे।

मैंने भारतीय दर्शनशास्त्र के अनुसंधान में जो कामयाबियां हासिल की हैं, वह चीन भारत के बीच सांस्कृतिक आदान-प्रदान औऱ विकास में दिया गया योगदान कहा जा सकता है। मेरी उम्र नब्बे वर्ष की होने वाली है। यदि संभव हो तो मैं वेद की अनुवाद और अनुसंधान करने को तैयार हूं।