चीन से भारत जाने वाले यात्रियों में श्वेन जांग को छोड़कर फा श्येन और ई जिंग के नाम सब से अधिक प्रसिद्ध हैं।
चार सौ तेरह ईसवी के आसपास एक पानी जहाज हिन्द महा सागर में श्रीलंका से पूर्व की ओऱ चल पड़ा। समुद्र में केवल दो दिन यात्रा करने के बाद पानी जहाज को जबरदस्त तूफान का सामना करना पड़ा और उस में सूराख हो गया। छोटी किश्ती में चढ़ने के लिए यात्रियों में होड़ मच गई। शीघ्र ही वह इतनी भर गई कि उस पर सवार यात्रियों ने जहाज से किश्ती को जोड़ने वाली रस्सी काट दी। जो व्यापारी जहाज में रह गये, उन्हें अपना माल असबाब समुद्र में फेंकना पड़ा ताकि जहाज़ का बोझ कुछ हल्का हो जाए। उन के साथ यात्रा करने वाले एक चीनी भिक्षु ने एक छोटी सी पोटली के सिवाए सारा सामान समुद्र में फेंक दिया। पर पोटली को फेंकने के लिए वह बिल्कुल तैयार नहीं हुआ, तेरह दिन के बाज जब तुफान शान्त हो गया औऱ जहाज एक द्वीप में पहुंच गया तब भी उस भिक्षु के पास अपनी कीमती पोतली मौजूद थी।
उस बौद्ध भिक्षु का नाम था फा श्येन औऱ जिल कीमती पोटली की उस ने इतने जतन से रक्षा की थी। उस में बौद्ध ग्रन्थ थे। जिन्हें वह भारत औऱ श्रीलंका से स्वदेश ले जा रहा था।
पानी जहाज़ की मरम्मत की गई औऱ वह आगे की ओर चल पड़ा। अपनी यात्रा का वर्णन फा श्येन ने इन शब्दों में किया।
उस सागर में समुद्री डाकुओं की भरमार थी। उन के चंगुल में फंसने पर कोई नहीं बच सकता था। चारों ओर महासागर असीमित रुप से फैला हुआ था। पूर्व औऱ पश्चिम के बीच फ़र्क करना असम्भव था। नाविक केवल सूरज और चांद सितारों को देख कर ही विशाज्ञान कर पाते थे। बादल या वर्षा होने पर हमारा पानी जहाज केवल हवा के रुख के साथ बहता रहता। अंधेरी रातों में सिर्फ ऊंची ऊंची लहरें उठती गिरती दिखाई देती। वे आग की तरह चमकती रहती तथा बड़े बड़े कछुवों, समुद्री दैत्यों और अन्य अजीबोगरीब चीजों को समेट रहतीं। नाविक नहीं जानते थे कि वे कहां जा रहे हैं। सागर बेअन्त गहरा था। सो लंकर डालने की कोई संभावना नहीं थी। जब तक आस्मान साफ न हो जाता। तब तक उन्हें दिक्षाज्ञान नहीं हो सकता था और वे सही दिशा में नहीं बढ़ सकते थे। अगर पानी जहाज किसी चट्टान से टकरा जाता तो निसंदेह सब लोग मौत के घाट उतर जाते।
इस तरह वे नब्बे दिन तक चलते रहे। अन्त में वे जावा पहुंच गये। जावा में कोई पांच महीन रुकने के बाद फा श्येन एक अन्य विशाल व्यापारिक पानी जहाज में सवार हो गया। उस पानी जहाज में 2 सौ लोग सफर कर रहे थे। पच्चास दिन की खाद्यपदार्थ साथ लेकर वे उत्तस्पूर्व में क्वांग च्ओ की तरफ चल पड़े। इस तरह फा श्येन स्वदेश के निकट पहंचने लगा।
लेकिन अभी उस की मुश्किलें खत्म नहीं हुई थीं, जिस पानी जहाज से वह यात्रा कर रहे था, वह भी तूफान की चपेट में आ गया। जहाज पर सवार व्यापारियों ने सोचा, शायद जहाज में एक बौद्ध भिक्षु की उपस्थिति के कारण ही उन्हें दैवी प्रकोप का सामना करना पड़ा है। इसलिए, उन्होंने फा श्येन को पानी जहाज से उतारने का निर्णय करना पड़ा है। भाग्यवशः जिस व्यक्ति ने फा श्येन की यात्रा का प्रबंध किया था, उस ने इस निर्णय का तीव्र विरोध किया। उस ने कहा, अगर तुम लोग इस भिक्षु को जहाज से उतारना चाहते हो, तो पहले मुझे उतार दो या मार डालो। अगर तुम ने फा श्येन को किसी द्वीप पर उतार दिया, तो मैं चीन लौटने के बाद सम्राट से जरुर तुम लोगों की शिकायत करूंगा। इस तरह फा श्येन बच गया। सत्तर दिन तक मौसम खराब रहा और वे लोग नहीं जान पाए कि कहां जा रहे हैं।
पानी और खाद्य पदार्थ की सप्लाई लगभग समाप्त हो चुकी थई। भोजन पकाने के लिए समुद्री पानी का इस्तेमाल करना पड़ रहा था। नाविकों का कहना था कि इस यात्रा में आम तौर पर पच्चास दिन लगते हैं। लेकिन, सफर करते करते इस से कहीं ज्यादा समय हो चुका है। हम जरुर रास्ता भटक गये हैं। उन्होंने अपने पानी जहाज को उतर पश्चिम की तरफ बढ़ा दिया। बारह दिन और बीतने के बाद वे लोग तट पर पहुंच गये। वे यह तो जानते थे कि वह चीन का समुद्रत्तट हैं, लेकिन यह नहीं जानते थे कि वह स्थान कौन सा है। एक छोटी नाव से तट पर उतरने के बाद उन्हें दो शिकारी से मिले। फा श्येन को पता लगा कि यह पूर्वी चीन के शान तुंग प्रायद्वीप है।
फा श्येन को शी आनान छोड़े पन्द्रह वर्ष हो चुके थे। उसे छै वर्ष भारत जाने में छै वर्ष भारत यात्रा में और तीन वर्ष भारत से स्वदेश लौटने में लगे थे।
चीन से तीन सौ निन्यानवे ईसवी में प्रस्थान करके वह जिंग राजवंश के शासन काल के अन्तिम वर्ष यानी चार सौ चौदह ईसवी में स्वदेश लौट आया था।
अपनी यात्रा के दौरान, वह कोई तीस राज्यों से गुजरा था। फा श्येन शी आन से पश्चिम की तरफ यात्रा करता हुआ, स्थलमार्ग से भारत गया था और समुद्र मार्ग से स्वदेश लौटा था। इस तरह उस ने एक पूरे दायरे में यात्रा की थी।
इतनी लम्बी यात्रा को उस काल में एक बहुत बड़ा करिश्मा समाझा जाता था। स्वदेश लौटने के बाद उन्होंने बौद्ध राज्यों का विवरण नामक पुस्तक लिखी। इस महान रचना का भारी ऐतिहासिक मूल्य है। बाद में इस पुस्तक को अनेक भाषाओं में अनूदित किया जा चुका है। ईसा की पांचवीं शताब्दी के एशिया की स्थिति और तत्कालीन संचार साधनों के इतिहास में रुचि रखने वाले चीनी और विदेशी विद्वानों के लिए इस का अध्ययन करना अनिर्वार्य है।
फा श्येन ने शी आन से चार साधियों के साथ प्रस्थान किया था। गेनसू में उस के दल में चार अन्य लोग शामिल हुए थे। इन नौ व्यक्तियों में से केवल फा श्येन और उस के अन्य दो साथी ही भारत पहुंचकर स्वदेश लौट सके थे। बाकी छै व्यक्ति या तो आधे रास्ते से ही वापस लौट गये थे या भारत से स्वदेश लौटने से पहले ही उन की मृत्यु हो गयी थी।
फा श्येन ने लिखा है कि उन लोगों ने त्वन ह्वांग से आगे पश्चिम की तरफ एक रेगिस्तान पार किया था, जहां न तो कोई पक्षी नजर आता था और न कोई पशु। जहां तक नजर जाती थी कहीं कोई रास्ता दिखाई नहीं देता था। केवल सफेद अस्थि अवशेषों से ही रास्ते का पता चल पाता था।
उस समय पश्चिमी प्रदेशों में अनेक लोगों ने बौद्ध धर्म अंगीकार कर लिया था, हालांकि वे अलग अलग संप्रदायों से संबंध रखते थे। विभिन्न प्रदेश की भाषाएं भी अलग अलग थीं। पर सभी भिक्षु संस्कृत लिखना बोलना जानते थे। ये प्रदेश अधिकांश वर्तमान चीन के शिन च्यांग वेवुर स्वायत प्रदेश में थे।
फा श्येन और उस के साथियों ने चट्टान पर कही हुई सात सौ सीढ़ियां चढ़ने के बाद रस्सियों के एक पुल से सिंधु नदी पार की औऱ तत्कालीन भारत की सीमा में प्रवेश किया।
भारत में फा श्येन ने बौद्ध धर्म के अनेक स्थानों की यात्रा की। उस ने तत्कालीन भारत के अनेक राज्यों के नामों और उन की स्थितियों का वर्णन किया, उन के रीति रिवाजों और पौराणिक आख्यानों का वर्णन किया। उत्तर भारत का मध्य वर्ती मैदान मध्य देश कहलाता था। फा श्येन के अनुसार, वहां की समशी तोषण जलवायु, बरफ औऱ पाले से मुक्त थी। लोग खुशहाल थे। भूमि कर केवल उन्हें ही देना पड़ता था जो राजा की भूमि पर खेती वाड़ी करते थे। भिक्षुओं को बेहद सम्मान प्राप्त था। जन समुदाय के बीच एक तबके के लोग चाण्डाल कहलाते थे। जो बाकी लोगों से अलग अलग शहर के बाहर रहते थे। फाश्येन द्वारा किये गये सजीव वर्णन से प्राचीन भारतीय समाज हमारी आंखों के सामने साकार हो उठता है।
एक विहार में जब भारतीय भिक्षुओं ने फा श्येन को देखा, तो वे आश्च्य चकित हो गये, क्योंकि तब तक कोई चीनी भिक्षु वहां कभी नहीं आया था।
फा श्येन की यात्रा का मकसद केवल तीर्थाटन नहीं था। उस का मत था कि चीन आने वाले बौद्ध सूत्रों में चैत्यानु शासन के नियमों की बहुत कम चर्चा की गई। भारत जाकर वह ऐसे ग्रंथों को खोजना चाहता था ताकि उन्हें स्वदेश ले जाकर चीनी विहारों के फायदे के लिए अनूदित किया जा सके। लेकिन, उत्तर भारत के अनेक स्थानों की यात्रा करने के बाद भी उसे इस प्रकार की सामग्री नहीं मिल पाई। बात दरअसल यह थी कि भारतीय परम्परा के अनुसार, सर्वोधिक महत्वपूर्ण सूत्रों को लिखा नहीं जाता था, बल्कि गुरु द्वारा शिष्य को मौखिक रुप से सिखाया जाता था। इसलिए, मध्य भारत पहुंचने से पहले फा श्येन को वह सामग्री लिखित रुप में नहीं मिल पाई। वहां वह तीन वर्षों तक अध्ययन करता रहा और बौद्ध ग्रंथों की प्रतिलिपियां तैयार करता रहा।
बाद में फा श्येन एक व्यापारिक पानी जहाज से श्रीलंका पहुंचा। वहां वह दो वर्ष रहा और उस ने अनेक अनेक बौद्ध सूत्रों की प्रतिलिपियां तैयार कीं। वहां उस ने चीन में निर्मित एक सफेद रेशम का पंखा देखा, जिसे किसी व्यापारी ने एक बौद्ध विहार को भेंट किया था। इस से सिद्ध हो गया कि उस समय चीन और श्रीलंका के बीच समुद्रमार्ग से व्यापार होता था।
जावा के रास्ते चीन लौटने के बाद फा श्येन ने उन ग्रंथों का अनुवाद शुरु किया, जिन्हें वह अपने साथ लाया था। एक भारतीय भिक्षु की मदद से महा संधिक विनय का अनुवाद किया। इस ग्रंथ में चैत्यानु शासन के नियमों के अलावा, पर्याप्त साहित्यिक मूल्यवाले अनेक आख्यान भी दिये गए थे।
फा श्येन की पुस्तक के अन्त में एक अन्य भिक्षु ने एक पश्चलेख लिखा है। जिस में कहा गया है कि जब कभी फा श्येन अपनी यात्रा के जोखिमों को याद करता था, तो उस के रोंगटे खड़े हो जाते थे। ये सभी जोखिम वह इसलिए उठा सका था, क्योंकि वह अपने इरादे का पक्का था।
उस भिक्षु ने यह भी लिखा है कि फा श्येन एक निरभिमानी , शालीन औऱ सच्चा व्यक्ति था। फैलादी संकल्प और अप्रतिम निष्ठा, फा श्येन के चरित्र की दो प्रमुख विशेषताएं थीं। इस के बिना वह इतने मूल्यवान और तथ्यपूर्ण ग्रंथ की रचना नहीं कर सकता था।
फा श्येन का नाम चीन भारत और चीन श्रीलंका मैत्री के इतिहास के साथ हमेशा जुड़ा रहेगा।
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