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(GMT+08:00) 2005-06-02 18:58:40    
पेइचिंग विश्विद्दालय के इतिहास शास्त्र विभाग के प्रोफेसर श्री लिन छन ज्ये

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यह पूछे जाने पर कि आप कब और किस कारण से भारतीय इतिहास में रुचि रखने लगे, तो उन्होंने जवाब में कहा, जब मैं पेइचिंग विश्वविद्दालय में पढ़ता था, तब भारतीय इतिहास में मेरी गहरी रुचि पैदा होने लगी। प्रस्तुतों में मुझे मालूम हुआ कि चीन की ही तरह भारत के पास की शान्दार संस्कृति है, खास कर मैं इन वर्षों में कोने कोने में हिन्दी चीनी भाई भाई के उत्साहपूर्ण नारे से प्रभावित हुआ था। उस समय चीन के अकादमिक क्षेत्र में भारत का अध्ययन व अनुसंधान बहुत कमजोर था। संदर्भ सामग्री मुश्किल से उपलब्ध थी। इसी कारण से भारतीय इतिहास शास्त्र का अध्ययन करने का मेरा विचार पैदा हुआ। वर्ष उन्नीस सौ इकसठ में स्नातक होने के बाद पेइचिंग विश्व विशालय में पढ़ाने लगा। इस तरह मुझे भारतीय इतिहास शास्त्र पर अनुसंधान करने का अपना स्वपन्न साकार करने का मौका प्राप्त हुआ।

लेकिन 70 वाले दशक तक भारतीय इतिहास शास्त्र के अध्ययन कार्य में मुझे बहुत कम सफलता हासिल हुई। क्योंकि उस समय पढ़ने का बहुत कम वक्त था। वर्ष 1966 में चीन में सांस्कृतिक महा क्रांति शुरु हुई। तब अध्ययन करना तो दूर रहा। पर आखिरकार जब मैंने अध्ययन करना शुरु किया था। दुर्भाग्यवश चीन भारत संबंधों में बिगाड़ आया था। उस समय भारत पर अनुसंधान करने का सुख्य विष्य आलोचनात्मक रहा था, जबकि लोग असली भारत उस के इतिहास औऱ तथार्थ वादिता को बहुत कम जानते थे, अकादमिक क्षेत्र की अपवाद नहीं था।

उस समय इतिहास शास्त्र को भी संकट का सामना करना पड़ा था। हालांकि राष्ठ्रीय मुक्ति आन्दोलन पर अनुसंधान करने को महत्व दिया जाता था पर वामपंथी विचार के प्रभाव में आकर अनुसंधानकर्ता , चीनी क्रांति को मापदंड बनाकर विश्व के अन्य देशों की नाप-तौल करते थे। चीन से भिन्न तौर तरीकों के प्रति नकरात्मक रवैया अपनाते थे। भारतीय स्वतंत्रता संग्राम की रहनुमाई भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी ने नहीं की। और स्वतंत्रता संग्राम ने अहिसात्मक रास्ता अपनाया और आखिर में सत्ता का शांतिपूर्ण हस्तांतरण किया गया, लेकिन, तत्काल के मापदंड की किसी भी दृष्टि से उसे निश्चित रुप से स्वीकृत नहीं किया जा सका। इसलिए, उस समय चीनी अकादमिक क्षेत्र केवल स्वरुप में उसे सुधार बादी आन्दोलन तो मानता था, पर क्रांतिकारी संग्रम नहीं मानता।

70 वाले दशक के अन्त में चीन के अकादमिक क्ष्त्र के पर्यावरण में परिवर्तन आने लगा। और तथ्य के सत्य की खोज पर जोर दिया जाने लगा। इतिहास के अनुसंधान कार्य से भी यह मांग पेश की गई कि भिन्न भिन्न देशों का उन की अपनी अपनी वास्तु स्थिति से अध्ययन किया जाए। ऐसी हालत में मैंने भारतीय इतिहास का अनुसंधान करना शुरु किया।

भारत के आधुनिक इतिहास के अनुसंधान पर जोर देने के कारण कहते हुए श्री लिन ने बताया,मैंने भारतीय स्वंत्रता, संग्राम के इतिहास के अध्ययन को अपना मुख्य विष्य बनाया। जबकि इस विष्य का मुख्य लक्षय तिलाग और गांधी पर अनुसंधान करना था। कई वर्षों के अनुसंधान करने के बाद मैंने भारतीय राष्ठ्रीय स्वाधीना आन्दोलन का अम्युदय नामक पुस्तक लिखी, इस पुस्तक में मैंने इस बात की पुष्टि की कि सत्याग्रह , जिस का सूत्रपात गांधी ने किया था और जिसे कांग्रेस पार्टी ने संशोधित किया था, भारतीय स्थिति के अनुकूल था, भारतीय संग्राम, एक भव्य औऱ शान्दार अहिसात्मक क्रांति था। औऱ उस ने महान विष्य हासिल की। इस पुस्तक के प्रकाशित होने से चीन में भारतीय इतिहास पर अनुसंधान कार्य को सभी दिशा में ले जाने में भूमिका अदा की गई। इस के बाद मैंने अपने अनुसंधान के दायरे को समूचे उपनिवेशवादी शासन काल तक विस्तृत किया। मैंने इस बात पर दयान दिया कि उप निवेशवादी शासन से तरह तरह की विपत्तियां आने के साथ साथ, भआरतीय समाज अर्थतंत्र और राजनीति में भई भारी परिवर्तन पैदा हुआ था। पहले चीनी अकादमीक क्षेत्र, उपनिवेशवाद से ऋण करने के कारण, इस परिवर्तन को मान्यता देने को तैयार नहीं था। और इस से तथ्यों के आधार पर इतिहास की व्याख्या नहीं की जा सकती थी।

वर्ष 1991 में प्रकाशित मेरी पुस्तक आधुनिक भारत का इतिहास और उपनिवेशवाद का इतिहास --दक्षिण एशिया का खंड जिस का मुख्य संपादक मैं हूं, ने उपनिवेशवादी शासन के दोहरे मिशन के बारे में मार्कस के निष्कृश के अनुसार, उपनिवेशवादी शासन से पैदा होने वाले परिणामों पर प्रकाश डाला। इस पपुस्तक को अकादमिक क्षएत्र के मेरे सहकर्मियों की ओर से भूरि भूरि प्रशंसा प्राप्त हुई। इस के अलावा, मैंने प्राचीन भारत के इतिहास की रुपरेका नामक पुस्तक भी लिखी। पुस्तक में मैंने भारतीय समाज में जाति पांत के जन्म और परिवत्ता भारत में दास प्रथा होने तथा दास प्रथा वाले समाज ने होने के कारणों तथा मुस्लमों द्वारा भारत में प्रविष्ट हो जाने के बाद अदा की गई भूमिका आदि समस्याओं पर अपना विचार पेश किया।

श्री लिन के विचार में एक बड़े विकासमान देश के नाते भारत के आधुनिकिकरण पर अनुसंधान करने का बड़ा महत्व है। उन के अनुसार, वर्ष 1996 के बाद मैंने अपने ध्यान को स्वतंत्र होने के बाद भारत के ऐतिहासिक काल पर केंद्रित कहना शुरु किया। एक बड़े विकासमान देश के नाते भारत की स्थिति जटिल थी और आधुनिकीकरण पर अमल करना बड़ा कठिन था। एकीकरण को सुदृढ़ बनाने, आधुनिकीकरण को अमली जाना पहनाने तथा देश को सुव्यवस्थित करने के क्षेत्र में भारत के अनुभवों व सबकों का अध्ययन करने का केवल भारी अकादमिक महत्व ही नहीं, बल्कि चीन का आधुनिकीकरण साकार करने के लिए उस का भी मूल्य है। मैंने डाक्टर और एम ए डिग्री पड़ने वाले अनेक विद्दार्थियों को लेकर भारतीय औद्दोगिकरण, कृषि के आधुनिकीकरण के विकास, राजनीतिक लोकतंत्रता, तथा सामाजिक धर्म निरपेक्षता आदि क्षेत्रों में क्रमषः अनुसंधान किया। और हम ने भारतीय आधुनिकीकरण के विकास का रास्ता नामक पुस्तक लिखा। इस तरह आम तौर पर यह कहा जा सकता है कि मेरी अभिलाषा पूरी हो गई। यानी चीनी छात्रों के लिए अपनी विशेषता वाली प्राचीन काल से वर्तमान काल तक की भारतीय इतिहास की पुस्तक माला प्रदान की गई, ताकि वे भारतीय विद्वानों की रचनाओं का अध्ययन करते वक्त चीनी विद्वानों के दृष्टिकोण से भी वाकिफ हो।

अब तक वे डाक्टर डिग्री पढ़ने वाले 10 छात्रों का निर्देशन कर चुके हैं। इस के बारे में उन का कहना है, चीनी विश्विद्दालयों में डिग्री के पुनः स्थापित हो जाने के बाद मैं राजकीय शिक्षा मंत्रालय का स्वीकृत प्रथम शिक्षक था, जो भारतीय आधुनिक इतिहास का अध्ययन करने में डाक्टर पढ़ने वाले छात्रों का निर्देशन कर सकता था। आज तक मैंने डाक्टर पढ़ने वाले छात्रों का निर्देशन कर सकता था। आज तक मैंने डाक्टर पढ़ने वाले दस छात्र और एम ए डिग्री पढ़ने वाले 12 छात्रों का निर्देशन किया। मेरी अनेक रचनाएं अब समूचे विश्व विद्दालयों में भारतीय इतिहास संबंधी पाढ्य पुस्तकें और स्नाकोत्तर छात्रों की मुख्य संदर्भ सामग्री बन चुकी हैं।

अपनी रचनाओं की चर्चा में श्री लिन ने कहा, चीनी औऱ भारतीय जनता अपनी परम्परागत मैत्री पर गौरव महसूस करती है। दोनों देशों के बीच प्राचीन काल के सांस्कृतिक आदान-प्रदान के इतिहास पर अनेक विद्वानों ने तो अनुसंधान किया है, जबकि अब तक आधुनिक काल के सांस्कृतिक आदान-प्रदान के इतिहास का विशेष अध्ययन करने वाला कोई नहीं था। वर्ष 1994 में प्रकाशित मेरी रचना चीनी और भारतीय जनता के बीच मैत्रीपूर्ण संबंधों का इतिहास ने इस क्षेत्र की रिक्ति की पूर्ति की। यह पुस्तक वर्षों से चले आए मेरे अनुसंधान का एक सुफल है। पुस्तक में देशविदेश में बड़ी तादात में अमूल्य एतिहासिक सामग्री एकत्र की गई है। इस के अलावा, कठिन दौर में कायम हुई मैत्री कहीं अधिक मूल्यवान है नामक मेरा लेख चीन औऱ भारत दो देसों की महत्वूप्रण पत्र पत्रिकाओं में साथ साथ छपा। इस के प्रति चीन और भारत के व्यापक बुद्दिजीवियों तथा दोस्तों में अच्छी प्रतिक्रिया पैदा हुई। जनवरी 1991 में मैंने भारतीय सांस्कृतिक सोसाइटी के निमतंर्ण पर भारत की यात्रा की। एक महीने की यात्रा के दौरान, मैंने जवाहलाल नेहरु विश्विद्दालय, दिल्ली विश्विद्दालय , कोलकत्ता विश्विद्दालय, बुम्बेई विश्विद्दालय तथा विश्वभारती आदि अनेक उच्च विददालयों में भाषण दिए।

इन भाषणों की विष्य वस्तुएं विभिन्न भारतीय पत्र पत्रिकाओं में प्रकाशित हुई।शांतिनिकेतन में मैंने विशेष कर चीना भवन की यात्रा की और वहां के अध्यापकों व छात्रों को इस भवन की स्थापना की पृष्ठभूमि के बारे में मेरे अनुसंधान के सुफल का परिचय दिया। भारत में जहां जहां मैं गया, वहां वहां मेरा भावमीना स्वागत किया गया। दोनों देसों की जनता की मैत्रीपूर्ण संबंधों को सुदृढ़ बनाने की तीव्र अभिलाषा से मुझे बड़ी प्रेरणा मिली। मेरा विचार है कि चीन भारत दोस्ती को आंख की प्रतली समझने वाले सभी लोगों को अपने पूर्व गामिपों द्वारा बिछायी गई पटरी पर आगे बढ़ना चाहिए और इस पटरी को कहीं जयादा तनील करने की भरसक कोशिश करनी चाहिए।