युद्धरत-राज्य काल में विचारधारा के क्षेत्र में एक फलता-फूलता वातावरण पैदा हुआ और मोचिवादी, कनफ्यूशियसवादी, विधानवादी तथा ताओवादी विचारशाखाओं का प्रादुर्भाव हुआ। विभिन्न विचारशाखाओं के विचारक अपने विचारों को लिपिबद्ध कर उनका प्रचार करते थे और दूसरी विचारशाखाओं की आलोचना करते थे, इस प्रकार"सौ विचारशाखाओं में होड़ होने"की स्थिति पैदा हो गई।
मोचिवादी विचारशाखा के प्रवर्तक मो चि (लगभग 478 – 392 ई. पू.) थे। उन का असली नाम मो ती था। वे लू राज्य (कुछ इतिहासकारों के अनुसार सुङ राज्य) के रहने वाले थे। वे कभी कारीगर रह चुके थे। उन्होंने "विश्वप्रेम","शान्तिवाद"और "गुणवान व्यक्तियों को सम्मानित करने"की धारणाओं व विचारों का प्रतिपादन किया। उनके विचार छोटे-छोटे उत्पादकों की आकांक्षाओं का प्रतिनिधित्व करते थे। उनके बहुत से शिष्य थे और समाज में उनका बहुत असर था।"मो चि"नामक ग्रन्थ के रूप में मोचिवादी विचारकों की रचनाएं संगृहीत हैं।
ताओवादी विचारशाखा की प्रतिनिधि-रचनाएं "लाओ चि"और"च्वाङ चि"हैं।"लाओ चि"नामक ग्रन्थ"ताओवादी नैतिकता सूत्र"के नाम से भी मशहूर है। कहा जाता है कि इस के रचयिता चओ राजवंश के शाही इतिहासकार लाओ तान थे, लेकिन वास्तव में उसका सम्पादन युद्धरत-राज्य काल के किसी अज्ञातनाम लेखक ने किया था। अपने जमाने के भारी सामाजिक परिवर्तनों से गुजरते हुए"लाओ चि"के रचयिता ने यह देख लिया था कि अमीरी व गरीबी, सौभाग्य व दुर्भाग्य और शक्ति व दुर्बलता आदि बातें अपरिवर्तनीय नहीं थीं।
अनिश्चितता व परिवर्तनशीलता की इस धारणा से उनके दिमाग में एक प्रकार के सहज द्वन्द्ववादी विचार पैदा हुए। किन्तु वे यह भी मानते थे कि इन परिवर्तनों के सामने मनुष्य एकदम लाचार है और केवल"ताओ"(दैवी इच्छा) से ही सब कुछ तय होता है। इसलिए मनुष्यों को"शान्त"और"निष्क्रिय"रहना चाहिए और अपने को"ताओ"के अनुकूल ढालना चाहिए। उनके विचार से "लघु आकार व कम आबादी"वाला समाज ही एक आदर्श समाज है, जिसमें लोग ज्ञान और आकांक्षा से वंचित होकर"जीवनभर एक दूसरे से सम्पर्क न करने"की स्थिति में रहते हैं।"च्वाङ चि"के रचयिता च्वाङ चओ (लगभग 369 – 286 ई. पू. ) और उनके शिष्य थे। उनके विचार"लाओ चि"में व्यक्त विचारों से कहीं अधिक निराशावादी थे।
मनशियस (लगभग 372 – 289 ई. पू.) युद्धरत-राज्य काल में कनफ्यूशियसवादी विचारशाखा के प्रमुख प्रतिनिधि थे। उनका असली नाम मङ ख था और वे चओ (वर्तमान शानतुङ प्रान्त की चओश्येन काउन्टी) राज्य के रहने वाले थे। वे कनफ्यूशियस के पोते चि सि के शिष्य थे और अपने को कनफ्यूशियस के विचारों का उत्तराधिकारी मानते थे। वे "राजोचित तरीके"व"दयालुता की नीति"की वकालत करते थे तथा शासकों को जनता का दिल जीतकर अपने शासन को सुस्थिर बनाने की सलाह देते थे। वे काफ़ी समय तक शिक्षा-कार्य और विभिन्न राज्यों के भ्रमण में जुटे रहे। उनके शिष्यों ने उनके विचारों व कथनों को "मनशियस"नामक पुस्तक में लिपिबद्ध किया था।
श्युन चि (लगभग 313-238 ई.पू.) का असली नाम श्युन ख्वाङ या श्युन छिङ था और वे चाओ राज्य के निवासी थे। उनके विचार "श्युन चि"नामक पुस्तक में लिपिबद्ध किए गए थे। यद्यपि उन्हें कनफ्यूशियसवादी विचारशाखा का ही एक प्रतिनिधि माना जाता है, तथापि उन्होंने कनफ्यूशियस और मनशियस के विचारों की आलोचना करते हुए उनका विकास भी किया। साथ ही उन्होंने दूसरी विचारशाखाओं के विचारों को भी आलोचनात्मक रूप से ग्रहण किया। उनका मत था कि मनुष्य प्रकृति पर अवश्य विजय प्राप्त कर सकता है और "दैव द्वारा मनुष्य को अपने लाभ के लिए जो भी दिया जाता है उस का उसे उपयोग करना चाहिए।"उनका विचार था कि शिष्य को गुणों में अपने गुरु से उसी तरह श्रेष्ठतर होना चाहिए जिस प्रकार "आसमानी रंग नीले से निकलने के बावजूद नीले से कहीं अधिक निखरता है"। उन के दर्शन में भौतिकवाद के कुछ तत्व मौजूद थे।
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