चीनी कला अनुसंधान अकादमी के ललित कला शोध केंद्र के उप प्रधान प्रोफेसर वांग युंग चीनी कलाकार संघ के सदस्य हैं। प्रोफेसर वांग युंग का अनुसंधान विष्य मुख्य भारतीय कला और देश विदेश की कला के आदान-प्रदान का इतिहास रहा है, चीन व भारत के बीच कला के क्षेत्र में आदान-प्रदान भी इस में शामिल है। प्रोफेसर वांग ने न केवल भारतीय कला का गहन अध्ययन किया है, बल्कि चीन में भारतीय संस्कृति के प्रचार व प्रसार में भी योगदान किया है। हाल में हमारी उन के साथ लम्बी बातचीत हुई।
जब जानना चाहा कि भारतीय कला में उन की रुचि कब से कैसे जगी , तो वे बोले, 1962 में पेइचिंग विश्विद्दालय के पूर्वी भाषा विभाग में प्रवेश पाने के बाद से ही मुझ में भारतीय कला के प्रति गहरी रुचि उत्पन्न हो गई थी। 1978 में विश्वद्दालय की दक्षिण एशिया अनुसंधान अकादमी से एम ए करने के बाद मैंने भारतीय कला का अनुसंधान करना शुरु किया। चीनी केंद्रीय कला अकादमी के प्रोफेसर श्री छांग रन श्या मेरे गुरु रहे । भारतीय कला का अनुसंधान करते अब मुझे 20 वर्ष से ज्यादा समय हो गया है। भारतीय कला की औऱ गहरी जानकारी पाने के लिए, मैंने दो बार भारत की यात्रा भी की । वहां मैंने विश्वभारती प्रतिष्ठान में एक साल तक अध्ययन किया और भारत के कई मशहूर अवशेष स्थलों का दौरा किया। भारत के प्राचीन इतिहास ने मुझ पर बड़ी गहरी छाप छोड़ी ।
भारतीय कला के अपने अनुसंधान कार्य के बारे में प्रोफेसर वांग ने कहा, मुख्य रुप से भारतीय कला के इतिहास एवं देश विदेश की कला के आदान-प्रदान पर अनुसंधान करता रहा हूं। चीन व भारत की कला का आदान-प्रदान मेरे अनुसंधान के केंद्र में रहा। भारत प्राचीन सभ्यता वाला देश है। भारतीय संस्कृति विविध जातियों व धर्मों का मिश्रण है। भारतीय संस्कृति यूनानी संस्कृति एवं चीनी संस्कृति के साथ विश्व की तीन प्राचीन संस्कृतियों में गिनी जाती है। द्रविड़ भारत की प्राचीन जाति है, जबकि आर्य जाति बाहर से वहां आयी । द्रविड़ लोग शिवलिंग की पूजा करते थे, और आर्य लोग प्रकृति की । इन दो संस्कृतियों के मिश्रण से ही आज के भारत की संस्कृति बनी है। भारत के प्रमुख धर्मों हिन्दू , बौद्ध एवं जैन धर्मों की संस्कृति और विदेशों से आयी इस्लामी संस्कृति के मेल से भारतीय संस्कृति में विविधता आयी।
भारतीय कला भारतीय संस्कृति का एक महत्वपूर्ण भाग है, यह कोई 5000 वर्ष पूरानी है। भारतीय कला की अपनी विशेषता है, और इस का विभिन्न एशियाई देशों पर भारी प्रभाव सहा। इस कला का भारतीय संस्कृति की आम विशेषताओं के साथ साथ सभारतीय धर्म एवं दर्शनशास्त्र से भी घनिष्ठ संबंध है। भारतीय कला सामान्यतः धार्मिक विश्वास को प्रतिबिंबित करती है और दार्शिनिक विचारधारा को प्रकर करती है। इसलिए, जब तक हम भारतीय धर्म एवं दर्शनशास्त्र का गहन अध्ययन नहीं करते, तब तक सही ढंग से भारतीय कला, और भारतीय संस्कृति की विशेषता एवं आत्मा को अच्छी तरह नहीं समझ सकते ।
भारतीय कला की चर्चा में प्रोफेसर वांग ने कहा, रतीय संस्कृति सिंधु नदी से उत्पन्न हुई , हम उसे सिंधु सभ्यता कहते हैं। सिंधु सभ्यता काल में लिंग की पूजा भारतीय जनता का बुनियादी विश्वास था। वास्तव में इस तरह का विश्वास मिस्र, दजला फरात घाटी की सभ्यता औऱ चीन की प्राचीन सभ्यता समेत लगभग सभी प्राचीन सभ्यताओं में मौजूद था। लेकिन, भारत में लिंग की पूजा का विशेष अर्थ था। जो भारत की सभी धार्मिक विचारधाराओं और कलाओं में शामिल हुआ। इसा पूर्व नौवें शताब्दी के आसपास , भारत में प्राचीन ब्राहमण पंथ की स्थापना हो चुकी थी। जो बाद में आज की हिन्दू धर्म में बदल गया । वह प्राचीन
लिंग पूजा को और उन्नत कर विश्व के प्राणियों की पूजा तक ले गया। हिन्दू धर्म के उपनिषदों का बुनियादी विश्वास ब्रहम् व अहम का योग है। इस में ब्रहम् विश्व की भावना है, अहम मानव आत्मा । भाषा विज्ञान के विश्लेषण की दृष्टि से ब्रहम् का मूल जीवन है, और अहम का अर्थ श्वास लेना , यानी जीवित होना है। इसलिए, ब्रहम् एवं अहम के योग का विचार वास्तव में जीवन की पूजा को निर्दिष्ट करता है।
इस विचार को अच्छी तरह समझने के लिए प्रोफेसर वांग योंग ने हमें कुछ उदाहरण दिये। उन्होंने कहा शिव हिन्दू धर्म के तीन प्रमुख देवों में से एक है।भारतीय कला में उस का दार्शनिक अर्थ भी है। शिव विश्व का निर्माण व उसे नष्ट कर सकते हैं। शिव का मूल प्रतीक लिंग है। इसलिए, शिव विश्व पुरुष का प्रतिनिधित्व करते हैं।शिव के अलावा, हिन्दू धर्म की कला में अनेक दूसरे परम्परागत लिंग विश्वास भी मौजूद हैं। यक्ष उन में से
एक है। यक्ष की उपासना प्राचीन भारत में ही प्रचलित थी। और आज भी भारत के अनेक पुराने मंदिरों में यक्ष मूर्तियां देखी जा सकती हैं। हिन्दू कला में ही नहीं, बल्कि बौद्ध कला में भी यक्ष की आकृति उपस्थित रही।
प्रोफेसर वांग योंग को भारतीय कला के अनुसंधान में भारी उपलबधियां प्राप्त हैं। अधिक से अधिक चीनी लोगों तक भारतीय कला की जानकति पहुंचने का काम फुरसत के समय वे अपने व्याख्यनों के जरिए करते हैं। भारतीय कला में रुचि रखने वाले चीनी लोगों में अपने ज्ञान का प्रसार प्रचार कर उन्होंने चीन व भारत के सांस्कृतिक आदान-प्रदान में भी भारी योगदान किया है। हम से हुई लंबी बातचीत के अंत में प्रोफेसर वांग योंग ने हिन्दी में हमारे श्रोताओं को एक वाक्य कहा, जो उन की याद में आता है।
बीस वर्षों तक हिन्दी का इस्तेमाल न करने के बाद भी प्रोफेसर वांग योंग ने इतनी साफ हिन्दी में बोला गया यह वाक्य हमें अचरज से बर गया। आशआ है कि भविष्य में भी प्रोफेसर वांग योंग चीन व भारत के सांस्कृतिक आदान-प्रादन में योगदान देते रहेंगे।
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