श्री ई शी द्वो बू ज्येई विदेश से स्वदेश लौटे एक तिब्बती हैं। 50 के दशक के अंत में वे अपने मा-बांप के साथ भारत पहुंच जहां उन्होंने भारतीय सेना में काम करने के अलावा दलाई लामा की तथाकथित निर्वासित सरकार की भी नौकरी की । उन्होंने विवाह भी भारत में किया जिस से उन के दो बच्चे भी हैं। श्री ई शी द्वो बू ज्येई ने बताया कि हालांकि उन के सभी रिश्तेदार भारत में हैं, फिर भी वहां रहते हुए उन्हें दूसरों पर निर्भर होकर रहने का एहसास होना रहा।
70 के दशक के अंत में, चीन में खुलेपन की नीति लागू होने के बाद, अनेक प्रवासी चीनियों ने स्वदेश लौटे या मातृभूमि की यात्रा पर आए। सन 1982 में, श्री ई शी द्वो बू ज्येई ने भी कोई 20 वर्षों के बाद प्रथम बार मातृभूमि की यात्रा की। इस दौरान, उन्होंने तिब्बत में हुए परिवर्तन को देखा और वे इस सब से प्रभावित होकर स्वदेश लौटने की सोचने लगे।
चीन के तिब्बती जाति के अधइकतर लोग तिब्बत स्वायत्त प्रदेश, छिंग हाई आदि पांच
प्रांतों में बसे हुए हैं।यहां की स्थानीय सरकारों ने स्वदेश लौटने वाले तिब्बती बंधुओं के स्वागत के लिए विशेष कमेटी भी स्थापित की है। 1984 में, श्री ई शी द्वो बू ज्येई अपने परिवार के साथ पूरी तरह स्वदेश वापस आ गए। तिब्बत स्वायत प्रदेश ने उन की आर्थिक मदद की। इस से उन्होंने तिब्बत में एक कमरा खरीदा और नये जीवन की शुरुआत की।
पहले श्री ई शी द्वो बू ज्येई अपनी जन्मभूमि तिब्बत के शाननेन प्रिफेक्चर के गांव
में रहते थे। स्थानीय सरकार ने उन्हें आधा हेक्टर भूमि आवंटित की, जिस पर उन्होंने जौ व सेब उगाये।लेकिन, केवल अब भी उन की आय बहुत सीमित थी। इसलिए, वे व्यापार करने लगे। उन की पत्नी ऊनी दरियां बनातीं और वे उन्हें बाजार में ले जा बेचते। इसी तरह घर की आय बढी और उन का जीवन भी स्थिर होने लगा।तथा वे गांव के एक धनी आदमी बन गये। इस बीच,तिब्बत स्वायत प्रदेश की सरकार के तत्वावधान में उन्होंने दस दिन के लिए चीन के भीतरी इलाकों का दौरा किया, जिस से वे बड़े प्रभावित हुए। उन्होंने कहा,
मैंने देश के 13 भीतरी प्रांतों व शहरों के कई मठों व कारखानों का भ्रमण किया। भीतरी क्षेत्रों के विकास की स्थिति देख कर मैंने बार बार खुद से सवाल किया कि तिब्बत की नीति इतनी अच्छी है, फिर भी उसे भीतरी इलाकों की तुलना में इतना बड़ा घाटा क्यों सहना पड़ता है। इस से मेरे मन में और कुछ करने का इरादा पैदा हुआ।
घर वापस लौटने के बाद उन्होंने कुछ किसानों के साथ परिवहन के धंधे में जुटने का फैसला शुरु किया और ज दांग कस्बे में एक सराय भी खोल डाली। धीरे धीरे उन्हें इस व्यापार में भी सफलता मिली और वे जिला जन प्रतिनिधि सभा की स्थानीय कमेटी के प्रतिनिधि भी चुन लिए गए। इस के बाद 1997 में, उन्होंने तिब्बत की राजधानी ल्हासा आकर अपना चाय घर खोला।
तिब्बत स्वायत प्रदेश को वापस लौटने वाले तिब्बतियों की सत्कार कमेटी के महा सचिव श्री ल्वो सांग शी राओ के अनुसार, इस समय विदेशों में प्रवास कर रहे तिब्बती बंधुओं की संख्या 1 लाख 30 हजार है, जिन में से लगभग 90 हजार तिब्बत से विदेश गए। इन में से भी अधिकांश ने 1959 में विदेशों की राह पकड़ी । 1959 में तिब्बत के ऊपरी तबके के कुछ व्यक्तियों ने तिब्बत की सामाजिक प्रगति में बाधा डालने के लिए एक सशसत्र विद्रोह छेड़ दिया था। इस के बाद कुछ आम लोगों तथा भिक्षुओं ने भी विद्रोहियों के प्रभाव में आकर उन के साथ देश से निकलने का निर्णय लिया।
पर समय बीतते बीतते अपनी जन्मभूमि के प्रति इन लोगों की स्मृति दिन ब दिन गहरी होती रही है। उन के निर्वासित जीवन के दौरान, चीन में बड़े परिवर्तन हुए और अंतरराष्ठ्रीय समुदाय में चीन का स्थान भी निरंतर उन्नत होता गया। चीनी जनता का जीवन स्तर भी इधर साल दर साल उन्नत होता रहा है। चीन बार बार दोहराता रहा है कि देशभक्ति के मामले में पहले या पिछड़े का फरक नहीं है और निर्वासित तिब्बती बंधुओं को भी मातृभूमि आने जाने की पूरी स्वतंत्रता है। चीन की इस नीति से प्रेरित विदेशों में बसे अनेक तिब्बती स्वदेश लौटे हैं।
श्री ल्वो सांग शी राओ ने बताया कि तिब्बत स्वायत प्रदेश को वापस लौटने वाले तिब्बती बंधुओं की सत्कार कमेटी 2200 से ज्यादा तिब्बती बंधुओं को स्वदेश लौटने में मदद दे चुकी है। और पिछले 20 वर्षों से ज्यादा समय से, वह विदेशों में रहने वाले तिब्बतियों के बहुत आसानी से स्वदेश आने जाने की नीति अपनाए हुए हैं।
उन्होंने कहा कि हर तिब्बती को यहां स्वतंत्रता से आने जाने का अधिकार है। शर्त केवल यह है कि वे वापस लौटनों पर खुद को चीनी मानें,तिब्बत को चीन का एक अखंड भाग मानें और दलाई लामा गुट की अलगाववादी कार्यवाई में भाग न लें।
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