दे ग की प्रेस में बौद्ध सूत्रों की छपाई के लिए इस्तेमाल होने वाली सभी पट्टियां ह्वा नामक पेड़ की लकड़ी से बना कर रखी गयी हैं। इन में से कुछ की उम्र इस प्रेस के इतिहास से भी पुरानी है। कई सौ वर्ष गुजरने के बाद भी वे पूरी तरह सुरक्षित हैं। लोगों के लिए यह एक अनोखी बात ही है। प्रेस की एक कर्मचारी सुश्री छिंग छ्वो ने बताया कि इन पट्टियों को काटने से पहले इन्हें विशेष उपचार दिया जाना जरूरी होता है।
उन्होंने कहा,सब से पहले, इन्हें तीन महीनों के लिए पशु मल में रखा जाता है और इस के बाद घी में भिगोया जाता है। इससे इनका आकार वर्षों के बाद भी नहीं बदलता और इन्हें कीड़ों से भी बचाया जा सकता है। इतना ही नहीं, हर बार छपाई के बाद इन्हें अच्छी तरह धोना भी जरूरी होता है और फिर दोबारा घी में भिगोया जाना भी आवश्यक होता है। इसीलिए 200 वर्षों में भी ये पहले की ही तरह बनी हुई हैं।
सुश्री छिंग छ्वो के अनुसार, दे ग के पहले मुखियों ने यह नियम निर्धारित किया था कि एक मजदूर प्रति दिन ऐसी केवल तीन सेंटीमीटर लम्बी पट्टी ही काट सकेगा। इस तरह 30 सेंटीमीटर लम्बी और पांच सेंटीमीटर चौड़ी पट्टी काटने के लिए 10 से भी ज्यादा दिन लगते थे। मजदूरों को ज्यादा से ज्यादा पट्टी काटने के लिए प्रोत्साहित करने के लिए उनका वेतन बढ़ाने का एक विशेष उपाय सोचा गया। सुश्री छिंग छ्वो ने इस के बारे में कहा, इसके लिए स्वर्ण चूर्ण को ऐसी पट्टी पर फैलाया जाता और वही बौद्धसूत्र की छपाई के लिए उपयुक्त पट्टी काटने वाले मजदूरों का वेतन होता। पर दे ग के मुखिया बहुत बुद्धिमान थे। इसलिए उन्होंने मजदूरों को ऐसी पट्टियां दोनों ओर से काटने का आदेश दे रखा था। इस तरह, लकड़ी की किफायत करने के साथ पट्टियों की क्वालिटी भी सुनिश्चित की जा सकती थी।
आज वैसे मुखिया नहीं हैं और इस प्रेस के नये प्रबंधक पुराने नियमों का पालन भी नहीं करते। आज यहां का एक अकेला मजदूर एक ही हफ्ते में बौद्ध सूत्र की पट्टियां काट सकता है। इसके बावजूद प्रेस ने प्रकाशन के प्राचीन तरीकों को बरकरार रखा है। हर बौद्ध सूत्र की छपाई पट्टी काटने के लिए अब भी मजदूर को 12 प्रक्रियाएं करनी होती हैं। इस के बाद जीवित बुद्धों द्वारा सात बार उनकी जांच भी जरूरी होती है। नियमानुसार, पुरानी बौद्ध सूत्र पट्टियों से प्रति वर्ष केवल दस पुस्तकों की छपाई की जा सकती है। इसलिए, इन पुस्तकों का दाम भी बहुत महंगा होता है जो लगभग दस हजार य्वान के आसपास ठहरता है। इसलिए ये अधिकतर बौद्ध अकादमी या मंदिरों को बेची जाती हैं।
सुश्री छिंग छ्वो ने बताया,बौद्ध सूत्रों की छपाई के लिए प्रयुक्त पट्टियों की रक्षा के लिए प्रति वर्ष गेनजुर और देनजुर को केवल दस बार छापा जाता है। अब हम सरकार से और पूंजी के लिए आवेदन कर रहे हैं। जब यह पूंजी मिलेगी, तो हम बौद्ध सूत्र के लिए और पट्टियां काट सकेंगे और पुरानी पट्टियों को अवकाश दे पाएंगे।
प्रकाशन भवन की तीसरी मंजिल पर गलियारे में हम ने बौद्ध धर्म की ताजा छपी शास्त्रीय किताबें देखीं। पता चला है कि उनमें से अधिकतर के लिए कागज़ तक वहां खुद तैयार किया गया है। ऐसा कागज रे श्यांग नांग दु नामक एक विशेष पौधे से बनाया जाता है। रे श्यांग नांग दु एक किस्म की तिब्बती औषधि है। इसलिए इस से बने कागज पर छपी किताबें से कीड़ों से बचाई जा सकती हैं। ऐसा कागज़ बहुत मजबूत भी होता है। दे ग प्रेस के मजदूरों ने बताया कि इस तिब्बती कागज़ को छपाई से पहले पानी में भिगोया जाता है और सूर्य की रोशनी में नहीं रखा जाता।
हालांकि आधुनिक प्रकाशन तकनीक से भी शास्त्रीय बौद्ध ग्रंथों की छपाई की जा सकती है, फिर भी दे ग प्रेस में अब तक इसके लिए परम्पराग का प्रयोग हो रहा है। वहां कुछ मजदूर कागज़ बनाते हैं, कुछ मजदूर छपाई के लिए प्रयुक्त पट्टियों काटते हैं तो अन्य छपाई करते हैं। तिब्बती जनता के अधिकांश को अब भी तिब्बती कागज़ पर छपी पुस्तकें पढ़ना पसंद है। इसके साथ ही एक परम्परागत कला को एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी को सौंपने की जरूरत भी इससे पूरी होती है।
दे ग प्रेस अपनी पुरानी बौद्ध सूत्र पट्टियों से विश्व के विभिन्न स्थलों से आये विशेषज्ञों, अनुयाइयों व पर्यटकों को आकृष्ट करता है। अब वह एक मामूली छापाखाना नहीं रहा, बल्कि तिब्बत की जातीय संस्कृति का एक केंद्र बन गया है। विशेषज्ञों के लिए, वह चीन व विश्व की संस्कृति का एक उज्ज्वल रत्न है तो पर्यटकों के लिए एक रहस्यमय धार्मिक स्थल और पुराना कारखाना भी। तिब्बती अनुयाइयों के दिल में वह एक पवित्र स्थल है। दे ग प्रेस से बाहर आने पर हम ने देखा कि अनेक बौद्ध अनुयाई उसकी परिक्रमा करते प्रार्थना कर रहे थे। दे ग प्रेस के आसपास के पहाडों पर टंगी रंग-बिरंगी धार्मिक पताकाएं हवा में उड़ रही थीं। स्थानीय लोगों ने बताया कि ये धार्मिक पताकाएं ऐसे ही अनुयाइयों ने दूर-दूर से यहां लाकर रखी हैं। जब भी ये धार्मिक पताकाएं हवा में उड़ती हैं, लगता है मानो कई अनुयाई धार्मिक पताकाओं पर लिखे सूत्र पढ़ रहे हों।
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