तत्कालीन भारत (आज का भारत, पाकिस्तान और बंगलादेश) थाङकालीन चीन में सिंधु देश के नाम से प्रसिद्ध था। वहां से बौद्ध धर्म और स्थापत्य का प्रवेश चीन में बहुत पहले ही हो चुका था। 641 में उस देश ने अपना एक सद्भावना प्रतिनिधिमण्डल चीन भेचा, बदले में थाङ राजवंश का एक प्रतिनिधिमण्डल भी वहां गया। तब से इन दोनों देशों के बीच आदान-प्रदान का अनवरत सिलसिला शुरू हुआ। हिन्दुस्तानी चिकित्साशास्त्र, खगोलशास्त्र, पंचांगशास्त्र, भाषाशास्त्र और संगीतशास्त्र की अनेक बातों को थाङकालीन चीन ने ग्रहण किया और चीन से कागज, और कागज उत्पादन की विधि का प्रसार हिन्दुस्तान में हुआ। इस आदान-प्रदान ने दोनों देशों की संस्कृति के विकास में बहुत मदद की।
बौद्धधर्म का समग्र रूप से अध्ययम करने के लिए, सुप्रसिद्ध थाङकालीन बौद्धभिक्षु श्वेनच्वाङ (ह्वेन त्सांग) चीन से सिंधु देश के लिए 627 में रवाना हुआ। वह आज के कानसू , शिनच्याङ और मध्य एशिया के रास्ते अनेक कठिनाइयों को झेलता हुआ अपने गंतव्य स्थान पर पहुंचा। वह सिंधु देश में 15 वर्षों तक रहा और वहां उसने अनेक मंदिरों की यात्रा की और सुप्रसिद्ध भिक्षुओं से अधिकाधिक ज्ञान प्राप्त किया। स्वदेश लौटते समय वह अपने साथ 600 से अधिक बौद्धग्रन्थ भी लाया, जिनका उस ने चीनी में अनुवाद किया। उस ने तथा उस के शिष्यों ने अपनी यात्रा के दौरान जो कुछ देखा-सुना उसके आधार पर उन्होंने "थाङ राजवंश के समकालीन पश्चिमी क्षेत्रों का विवरण"नामक ग्रन्थ लिखा, जिस में मध्य एशिया, अफगानिस्तान, भारत, पाकिस्तान, नेपाल और श्रीलंका आदि देशों के भूगोल, इतिहास और रीति-रिवाजों का वर्णन किया गया है। इस मूल्यवान ग्रन्थ को इतिहास में सदैव से एक महत्वपूर्ण स्थान प्राप्त रहा है। इतिहास के अध्ययन की दृष्टि से यह ग्रन्थ हमेशा से अत्यन्त उपयोगी रहा है और आज भी है। 671 में ईचिङ नामक एक अन्य बौद्धभिक्षु ने क्वाङचओ के समुद्री मार्ग से भारत के लिए प्रस्थान किया और पच्चीस वर्षों में 30 से अधिक देशों की यात्रा की। वह समुद्री मार्ग से ही 695 में ल्वोयाङ लौटा। वह अपने साथ 400 बौद्धग्रन्थ भी लाया । उस ने "बौद्धग्रन्थों की प्राप्ति के लिए दक्षिणी सागर के पार के देशों की यात्रा" और " बौद्धग्रन्थों की प्राप्ति के लिए थाङकालीन बौद्धभिक्षुओं की पश्चिमी क्षेत्रों की यात्रा " नामक दो पुस्तकें लिखीं, जिनमें क्रमशः भारत तथा अन्य दक्षिण एशियाई देशों के धार्मिक व सांस्कृतिक जीवन का विवरण प्रस्तुत किया गया है और अनेक अन्य बौद्धभिक्षुओं की उपलब्धियों का वर्णन किया गया है जिन्होंने समान उद्देश्य से सिंधु देश की यात्राएं की थीं। ये दोनों ही ग्रन्थ ऐतिहासिक दृष्टि से अत्यन्त महत्वपूर्ण हैं।
थाङकालीन चीन के अन्य दक्षिण एशियाई और दक्षिणपूर्वी एशियाई देशों के साथ भी घनिष्ठ संबंध थे।
इसी काल में पश्चिम एशिया, योरप और अफ्रिका के अनेक देशों के साथ भी चीन के संबंधों का विकास हुआ। फारस, ताचि और पूर्वी रोमन साम्राज्य के सद्भावना प्रतिनिधिमण्डल समय-समय पर चीन-यात्रा पर आते रहे। 651 से 798 तक केवल ताचि राज्य के 30 से अधिक सद्भावना प्रतिनिधिमण्डलों ने चीन की यात्रा की थी।
फारस और अरब देशों के व्यापारी , विद्यार्थी ,कलाकार और धर्म-प्रचारक थाङकालीन चीन के अनेक सुप्रसिद्ध नगरों में रहने के लिए आते रहते थे। उनमें से अनेक व्यापारी, जो रेशम और आभूषणों का व्यापार करते ते, तथा बहुत से विद्यार्थी चीन में स्थाई रूप से बस गए थे। केवल याङचओ नगर में ही कई हजार फारसी और अरबी व्यापारी रहा करते थे। कहा जाता है कि क्वाङचओ नगर में उनकी संख्या दसियों हजार तक पहुंच गई थी। थाङकाल में ही पारसी धर्म, मानिकीवाद, नेस्टोरियनवाद और इसलाम का चीन में प्रवेश हुआ। विदेशी नृत्य, संगीत और नटकला भी इसी काल में चीन पहुंची। हाल के वर्षों में , शेनशी प्रान्त की शीआन शहर के हच्या गांव में खुदाई से फारस की रजतमुद्राएं, पूर्वी रोमन साम्राज्य की स्वर्णमुद्राएं और विदेशी मूल के अन्य अवशेष प्राप्त हुए हैं, जिस से पता चलता है कि थाङ काल में चीनी जनता और पश्चिम एशिया तथा योरपीय देशों की जनता के बीच मैत्रीपूर्ण संबंध कायम हो चुके थे।
चीन से भी रेशम, दस्तकारी वस्तुएं तथा अन्य मूल्यवान सांस्कृतिक वस्तुएं पश्चिम एशिया और योरप के देशों को रेशम मार्ग के जरिए बड़ी मात्रा में निर्यात की जाती थीं । कागज बनाने , रेशम की बुनाई करने तथा दस्तकारी वस्तुओं का निर्माण करने की तकनीक ताचि के रास्ते चीन से अफ्रीका और योरप पहुंची। चीन की संस्कृति के समावेश से संबंधित देशों की संस्कृति समृद्ध हुई।
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