ललित कलाओं ने भी इस काल में बहुत उन्नति की। अनेक ऐसे कलाकारों का उदय हुआ जिन्होंने मानव-आकृतियों, भूदृश्यों, पुष्पों और पशु-पक्षियों के चित्रांकन में ख्याति प्राप्त की और चित्रकला को समृद्ध किया। येन लीपन और ऊ ताओचि ने अपनी कूची का प्रयोग विशेष रूप से मानव-आकृतियों के चित्रांकन के लिए किया। उन के द्वारा बनाए गए चित्र बड़े ही सजीव व यथार्थपूर्ण होते थे। वाङ वेइ अपने भूदृश्य चित्रांकन के लिए प्रसिद्ध थे- अकृत्रिमता व लालित्य उनके चित्रों की विशेषता थी।
थाङ काल में मूर्तिकला का असाधारण विकास और अनेक उत्कृष्ट कृतियों का सृजन हुआ। वैसे तो उत्तरी वेइ सम्राट श्याओवन के शासनकाल में निर्मित ल्वोयाङ की लुङमन गुफाओं की प्रस्तर-प्रतिमाएं अधिक प्राचीन हैं, किन्तु इस प्रकार की मूर्तियों की अधिकतम संख्या में रचना थाङ काल में ही हुई। फ़ङश्येन मन्दिर की 12.66 मीटर ऊंची सौम्य व ओजपूर्ण बुद्ध-प्रतिमा थाङ काल की प्रस्तरकला का एक उत्कृष्ट नमूना है। कानसू प्रान्त के तुनह्वाङ नामक स्थान की मोकाओ कृत्रिम गुफाओं को सहस्र बुद्ध गुफाओं के नाम से भी पुकारा जाता है। ऐसी गुफाओं की संख्या जिनके अन्दर बने भित्तिचित्र व प्रस्तर-मूर्तियां आज भी सुरक्षित हैं, 492 है। इन में से 94 स्वेइ राजवंशकाल में और 213 थाङ काल में निर्मित की गई थीं, जिस से पता चलता है कि थाङ काल में गुहा-शिल्प अपने उत्कर्ष पर पहुंच गया था।
लिपिकला के क्षेत्र में भी थाङ राजवंशकाल की उपलब्धियां उतनी ही प्रभावोत्पादक थीं। य्वी शिनान, अओयाङ श्युन , छू स्वेइल्याङ, येन चनछिङ और ल्यू कुङछ्वेन जैसे अनेक सुप्रसिद्ध लिपिज्ञों ने चीनी लिपिकला के विकास में महत्वपूर्ण योगदान किया।
इस जमाने में विज्ञान और तकनालाजी ने भी बहुत तरक्की की।
मुद्रणकला चीन की मेहनतकश जनता का एक अन्य आविष्कार है। स्वेइ राजवंशकाल में ब्लाक-छपाई का आविष्कार हो चुका था और थाङ काल तक आते-आते उसका प्रयोग कृषि-पंचांग, तिशिपंचांग, चिकित्साग्रन्थों और लिपिकला के नमुनों की छपाई में व्यापक रूप से होने लगा।
खगोलविज्ञान के क्षेत्र में , ईशिङ (693-727) नामक एक बौद्ध भिक्षु (भिक्षु बनने से पहले उसका नाम चाङ स्वेइ था) ने वैज्ञानिक ल्याङ लिङचान के सहयोग से एक ऐसे यंत्र का आविष्कार किया जिसकी मदद से तारों की स्थिति निर्धारित की जा सकती थी। खगोलविज्ञान के इतिहास में उसने ही सबसे पहले इस बात का पता लगाया था कि"एक स्थिर तारा अपनी धुरी पर घुमता रहता है।"मध्याह्र रेखा का सर्वेक्षण करने वाला सबसे पहला व्यक्ति भी वही थी।
थाङ राजवंश ने स्थापत्य की पश्चिमी हान शैली को अपनाने के साथ-साथ विदेशी स्थापत्य कौशल को भी ग्रहण किया। उस काल में बनवाए गए नगर , राजप्रासाद और मन्दिर अपनी सुन्दर व सुरुचिपुर्ण शैली के लिए प्रसिद्ध थे। थाङ राजवंश की राजधानी छाङआन की परिधि 35 किलोमीटर थी तथा नगर में 20 प्रशस्त मार्ग व सड़कें थीं, जिनके दोनों ओर विलोवृक्ष लगाए गए थे। नगर के एक छोर से दूसरे छोर तक जाने वाले इन आड़े तिरछे मार्गों के कारण उसका नक्शा शतरंज के बोर्ड की तरह प्रतीत होता था। समूचा नगर 100 से अधिक खण्डों में विभाजित था। भव्य राजप्रासाद नगर के उत्तरी भाग में था तथा बाजार व दूकानें आदि पूर्वी और पश्चिमी भाग में। नगर के दक्षिणी भाग में ताछिअन मन्दिर के भीतर तायेन पगोडा बना हुआ था। यह सात -मंजिला पगोडा 64 मोटर ऊंचा है। शान के साथ खडे इस पगोडा की शोभा आज भी देखते ही बनती है।
थाङ राजवंश चिकित्साशास्त्र की उपलब्धियों के लिए भी प्रसिद्ध है। थाङ शाही चिकित्सा संस्थान में चिकित्साकार्य का विशेषीकरण इस सीमा तक हो चुका था कि औषधीय चिकित्सा, एक्यूपंक्चर , मालिश आदि की अलग-अलग शाखाएं और विभाग थे। प्रत्येक विभाग के अपने अलग प्राध्यापक और विद्यार्थी होते थे। औषधीय चिकित्सा विभाग के अन्तर्गत औषधीय चिकित्सा और शल्यचिकित्सा सहित पांच उपविभाग थे। इस काल के चिकित्साग्रन्थों में एक हजार अचूक नुसखे, एक हजार पूरक अचूक नुसखे , संक्रामक रोगों का गूढ़ ज्ञान और थाङ राजवंश का नवीन औषधिग्रन्ध उल्लेखनीय हैं। सुन सिम्याओ द्वारा लिखित पहले दो ग्रन्थों में विभिन्न रोगों के लक्षणों और प्राचीन नुसखों की जानकारी दी गई है। बाङ थाओ द्वारा लिखित संक्रामक रोगों का गूढ़ ज्ञान, जिससे 21 प्रकार के संक्रामक रोगों का विवरण दिया गया है, चीन के इतिहास में अपनी तरह का पहला ग्रन्थ था। सू चिङ तथा अन्य चिकित्सकों द्वारा संकलित नवीन औषधिग्रन्थ में 84 प्रकार की चिकित्सोपयोगी जड़ी-बूटियों का वर्णन करने के साथ-साथ कुछ अन्य चिकित्साग्रन्थों में पाई गई गलतियों को सुधार भी लिया गया था।
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