• हिन्दी सेवा• चाइना रेडियो इंटरनेशनल
China Radio International
चीन की खबरें
विश्व समाचार
  आर्थिक समाचार
  संस्कृति
  विज्ञान व तकनीक
  खेल
  समाज

कारोबार-व्यापार

खेल और खिलाडी

चीन की अल्पसंख्यक जाति

विज्ञान, शिक्षा व स्वास्थ्य

सांस्कृतिक जीवन
(GMT+08:00) 2004-03-30 13:54:29    
तुंग जाति का इतिहास और वास्तु कला

cri

      तुंग जाति चीन की 55 अल्प संख्यक जातियों में से एक है , जो मुख्यतः देश के दक्षिण पश्चिमी भाग में स्थित क्वुई चाओ व हुनान प्रांतों तथा क्वांगसी च्वांग स्वायत्त प्रदेश में रहती है । नए चीन की स्थापना के बाद चीन सरकार ने अल्प संख्यक जाति बहुल क्षेत्रों में जातीय स्वायत्त व्यवस्था लागू की , इस के अनुसार तुंग जाति बहुल क्षेत्र में एक स्वायत्त प्रिफेक्चर और चार स्वायत्त काऊंटियां कायम हुई , वहां 25 लाख दस हजार से अधिक तुंग लोग रहते हैं ।

       चीन की अन्य जातियों की भांति ; तुंग जाति भी एक पुराना इतिहास वाली जाति है । आज से दो हजार साल पहले चीन के छिन और हान राज्य काल में तुंग जाति के पूर्वज लो-य्ये कहलाते थे । ईस्वी छै से नौ सदी तक तुंग जाति के पूर्वज देश के दक्षिण पश्चिमी भाग यानी आज के क्वुई चाओ , हुनान  और क्वांगसी प्रांतों के सीमावर्ती क्षेत्र में आ बसे , उस समय तुंग जाति का नाम बदल कर सी-तुङ हो गया था और उन का गांव  तुंग कहलाता था , कालांतर में इसी के आधार पर इस जाति का नाम तुंग पड़ा , जो आज तक संबोधन किया जा रहा है । 12 और 14 वीं शताब्दियों के दौरान युद्ध से बचने के लिए बहुत से हान जाति के लोग तुंग जाति आबाद क्षेत्र में स्थानांतरित आ गए , उन का तुंग जाति में विलय हो गया और तुंग जाति का नया विकास हुआ । तुंग जाति की अपनी भाषा होती है , लेकिन उस की लिपि नहीं है , हान जाति के लोगों के संपर्क में आने के बाद उस ने हान भाषा की लिपि अपने प्रयोग में लाया , इसी कारण तुंग जाति के अधिकांश लोग हान भाषा भी जानते हैं 

       तुंग जाति के लोग पूर्वज को अपना देवता मानते हैं और उन की पूजा करते हैं । वे विशेष कर नारी पूर्वजों का सम्मान करते हैं और उन्हें पूज्यतम देवता समझते हैं , नारी देवता सा--मु कहलाती है , बेशक हान जाति के अधिक संपर्क में आने के कारण तुंग जाति के लोग हान जाति के देवताओं की भी पूजा करते हैं ।

      अपने लम्बे पुराने इतिहास में तुंग जाति ने अपनी विशेष संस्कृति का विकास किया , खास कर कविता और गायन कला की दृष्टि से तुंग जाति देश में काफी मशहूर है और नए चीन की स्थापना के बाद चीन सरकार के जोरदार समर्थन के फलस्वरूप तुंग जाति का विशेष किस्म का गाना विश्व में भी नामी हो गया । तुंग जाति की विशेष गायन कला के अलावा उस के ड्वो-ये नृत्य , बांसुरी का नृत्य तथा तुंग ओपेरा भी कला और मनोरंजन दोनों की दृष्टि से उच्च कोटि की कला विधि है . तुंग ओपेरा का चार सौ साल पुराना इतिहास भी रहा है , जिस के विषय मुख्यतः देश की प्रसिद्ध प्राचीन कहानियों पर आधारित है ।

      तुंग जाति में एक विवाह की प्रथा है , युवाओं में प्रेम का विवाह प्रचलित होता है , तुंग जाति के युवा अपनी मर्जी से जीवन साथी चुनते हैं , तुंग रिति रिवाज के अनुसार कोई युवक अगर किसी युवती से प्रेम करने लगा , तो वह लड़की के घर जा कर वहां एक कंडील लटकाता है , जिस लड़की के घर के दरवाजे पर ज्यादा कंडील लगाए गए हैं , वही लड़की सुन्दर और सुशील मानी जाती है । प्रेम से बंधे लड़के और लड़कियां त्यौहार और छुट्टी के दिन आपस में गीत गाते हुए अपना मुहब्बत अभिव्यक्त करते हैं । 

       तुंग जाति के लोग बहुधा धान की खेती करते हैं , वे चावल का खाना पसंद करते हैं , धान की खेतीबाड़ी में बैल बहुत से काम में आता है , इसलिए तुंग जाति के लोग हर साल आठ अप्रैल तथा  छै जून के दिन बैल की पूजा करने का समारोह आयोजित किया जाता है ।

      तुंग जाति की वास्तु कला विशेष उल्लेखनीय है , खास कर  उस के ढोल --टावर और मंडप -पुल अनोखा होने के साथ साथ वास्तु कला की दृष्टि से भी उत्तम होते हैं ।

      तुङ जाति के लोग मुख्यतः दक्षिण प्रश्चिमी चीन के  हूनान , क्वे-चाओ और क्वाङ सी के बीच फैली विशाल भूमि पर रहते हैं । वहां उन की  विशिष्ट और बहुत विकसित  भवन निर्माण की परम्परा है । उन की  बेजोड़  निर्माण शैली का सब से अच्छा उदाहरण है , तुङ जाति के गांवों में  पाई जाने वाली दो प्रमुख वास्तु कृतियां --ढोल टावर और मंडप  पुल ।

       तुङ जाति के ढोल टावर  बहुमंजिले , देवदारू स्तंभों वाले पगोडा आकार के होते हैं । इन में तीन से लेकर  तेरह तक की मंजिलें मिलती है और अधिकतम ऊंचाई बीस मीटर  है । टावर के शिला आधार  षष्ठकोणीय या अष्टकोणीय होते हैं । पहली और दूसरी मंजिलों के बीच के सामने के भाग में मंगल प्रतीक --ड्रैगन तथा अमरपक्षी की आकृतियां खुदी दिखाई देती हैं ।

       पुराने जमाने में  हर टावर के ऊपर एक ढोल रखा जाता था , जिस का प्रयोग महत्वपूर्ण  मौकों पर गांव के वरिष्ठ व्यक्तियों की सभा  बुलाने या दुश्मन के  हमले के समय गांव वासियों को गोलबंद किये जाने के लिए किया जाता था । एसा ढोल भोजवृक्ष की लकड़ी को खोखला  खोद कर उस पर बैल की खाल मढ़ कर बनाया गया था । गांव में आग लगने के समय भी ढोल बजाया जाता था और आग बुझाने के लिए गांव वासियों को बुलाया जाता था ।

       आधुनिक युग में सार्वजनिक सुरक्षा उपायों में सुधार आने के कारण संकट की सूचना देने का यह तरीका पुराना पड़ गया । अंततः इस प्रकार के ढोल टावर का इस्तेमाल  गांववासियों द्वारा गर्मियों की लम्बी शाम को वहां इकट्ठे हो कर गप्पें मारने या सर्दियों में आग की ताप सेकते हुए कथावाचकों से कहानी सुनने में आता है । त्यौहार के मौके पर टावर के सामने  पत्थर के फर्श वाले मैदान पर समारोह आयोजित किये जाते हैं । समारोहों में  गांववासी  बांसुरी की धुन पर नाचते गाते है और तुङ जाति की स्थानीय ओपेरा प्रस्तुत किये जाते हैं ।

      तुङ जाति के गांव आम तौर पर  नदियों और झीलों के किनारों पर बसे  हैं , इसलिए पुल निमार्ण का  तुङ जाति के निर्माण कार्य में बहुत महत्वपूर्ण स्थान होता है । छतदार  मंडप वाला पुल , जो खराब मौसम में पथिकों को शरण देता है , तुङ वास्तु परम्परा का एक अभिन्न अंग है। वहां के पुल की दोनों ओर  बराबर लम्बे छज्जेदार बरामदे और मंडप  बनाये जाते हैं , जिन की दीवारें भित्ती चित्रों से सजी हुई हैं । चार मेहराबों तथा पांच नींवों वाला  छङयाङ पुल इस क्षेत्र का सब से बड़ा पुल है , जो 65 मीटर लम्बा , साढ़े तीन मीटर चौड़ा और दस मीटर ऊंचा है । पत्थर के स्तंभों व लकड़ी के फर्श वाले इस पुल का निर्माण  क्वाङ सी की सानच्याङ तुङ स्वायत्त काऊंटी में सन् 1916 में  हुआ ।

      तुङ जाति की सभी इमारतों में कील का प्रयोग नहीं किया जाता है और  विभिन्न भागों को चूल बिठा कर जोड़ा जाता है । एक सामान्य ढोल टावर के निर्माण में  विभिन्न आकारों की कम से कम तीन सौ बल्लियों की आवश्यकता पड़ती है , जिन्हें  बड़ी दक्षता के साथ आड़ा तिरछा जोड़ा जाता है । तीन सौ वर्षों  पहले  निर्मित अनेक  ढोल टावर अब भी अच्छी तरह सुरक्षित रहे हैं ।