आपसी सीख और पारस्परिक सम्मान से चीन-भारत संबंध और मजबूत होंगे- पूर्व भारतीय राजदूत कंठ

2024-07-15 12:37:43

हाल ही में, चीन राष्ट्रीय शासन अकादमी द्वारा आयोजित सभ्यताओं पर चीन-भारत संवाद सम्मेलन आयोजित हुआ, जिसमें दोनों देशों के प्रख्यात विद्वान, विशेषज्ञ और गणमान्य व्यक्ति चीन की राजधानी पेइचिंग में एकत्रित हुए और चीनी और भारतीय सभ्यताओं के बीच गहरे ऐतिहासिक संबंधों और भविष्य में सहयोग की संभावनाओं पर चर्चा की।

इस मौके पर, चीन में भारत के पूर्व राजदूत अशोक कुमार कंठ ने चीन की प्रमुख मीडिया संगठन चाइना मीडिया ग्रुप (सीएमजी) के पत्रकार को दिए एक विशेष इंटरव्यू में गहन जानकारी दी। भारत और चीन के बीच स्थायी सांस्कृतिक आदान-प्रदान पर विचार करते हुए, पूर्व भारतीय राजदूत कंठ ने कहा, "भारत और चीन के बीच सांस्कृतिक आदान-प्रदान एक प्राचीन परंपरा रही है, और यह द्विपक्षीय थी। बौद्ध धर्म भारत से चीन आया, और चीन ने इसे और आगे बढ़ाया। चीन से कई चीजें भारत भी आईं। चीनी भिक्षु फासियान और ह्वेनत्सांग ज्ञान की तलाश में भारत गए और भारत से बौद्ध मनुस्मृति लाए।"

उन्होंने बौद्ध ग्रंथों के अनुवाद की ऐतिहासिक परियोजना के बारे में विस्तार से बताया, जिसमें कुमारजीव जैसे विद्वान शामिल थे, और इस आदान-प्रदान के माध्यम से दोनों सभ्यताओं के आपसी सुदृढ़ीकरण पर जोर दिया। उन्होंने कहा, "भारत और चीन की सभ्यता शक्तिशाली और आत्मविश्वास से भरी थी। हमारे बीच आदान-प्रदान होता था। प्राचीन समय में, हमारे बीच कभी तनाव और मतभेद नहीं रहा। हमने एक-दूसरे से सीखा है, और हम दोनों इससे मजबूत हुए हैं।"

एक अनुभवी भारतीय राजनयिक रहे अशोक कुमार कंठ ने इस ऐतिहासिक संबंध की अनूठी प्रकृति पर प्रकाश डाला, उन्होंने कहा कि यह हमेशा बिना किसी पदानुक्रमिक अधिरोपण के समान शर्तों पर रहा है। उन्होंने इंटरव्यू में कहा, "चीन के इतिहास में भारत की एक अलग भूमिका रही है। भारत को हमेशा पश्चिमी स्वर्ग या ज्ञान के स्रोत वाले स्थान के रूप में देखा गया है।"

जनवरी 2014 से जनवरी 2016 तक चीन में भारत के राजदूत रहे अशोक कुमार कंठ ने वर्तमान संबंधों में ऐतिहासिक आदान-प्रदान के महत्व पर बल दिया। उन्होंने कहा, "अगर हम भारत-चीन संबंधों को और आगे ले जाना चाहते हैं, तो एक बहुत ही महत्वपूर्ण आयाम यह होगा कि हम इसे बराबरी के तौर पर आगे बढ़ाएं, और हमारे बीच कोई पदानुक्रम न हो। हमारे बीच पारस्परिक लाभ होना चाहिए। हमें एक-दूसरे से सीखना चाहिए, और सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि हमें एक-दूसरे की शंकाओं, आकांक्षाओं और हितों का सम्मान करना होगा।"

बता दें कि इस संवाद सम्मेलन में शांतिपूर्ण सह-अस्तित्व के पांच सिद्धांतों (पंचशील) की 70वीं वर्षगांठ और रवींद्रनाथ टैगोर की चीन यात्रा की 100वीं वर्षगांठ वर्षगांठ भी मनाई गई, जिसने चर्चाओं को और समृद्ध किया। चीनी सामाजिक विज्ञान अकादमी, पेकिंग विश्वविद्यालय, शिन्हुआ विश्वविद्यालय, शनचन विश्वविद्यालय, जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय, दिल्ली विश्वविद्यालय और चीनी अध्ययन संस्थान जैसे प्रतिष्ठित संस्थानों के लगभग 50 विशेषज्ञ और विद्वान इस कार्यक्रम में शामिल हुए।

(अखिल पाराशर)

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