जापान की परमाणु-दूषित जल निर्वहन योजना के प्रति कुछ पश्चिमी देश इतने "निश्चिंत" क्यों हो जाते हैं?

2023-07-11 15:40:35

इधर के दिनों में समुद्र में परमाणु-दूषित जल निर्वहन योजना के खिलाफ प्रशांत द्वीप देशों, फिलीपींस, इंडोनेशिया, दक्षिण अफ्रीका, पेरू, चीन, दक्षिण कोरिया और अन्य अंतरराष्ट्रीय समुदायों ने विरोध किया। इसके विपरीत, अमेरिका और पश्चिमी देशों का प्रदर्शन दिलचस्प है।

आईएईए द्वारा मूल्यांकन रिपोर्ट जारी करने के बाद, अमेरिकी विदेश मंत्रालय ने "स्वागत" व्यक्त करते हुए एक बयान जारी किया, जबकि पश्चिमी राजनेता जापान की परमाणु-दूषित जल निर्वहन योजना पर काफी हद तक चुप रहे।

उदाहरण के लिए, कुछ पश्चिमी मीडिया संस्थाओं ने जापान और आईएईए के शब्दों पर व्यापक रिपोर्टें बनाई हैं, जिनमें "परमाणु प्रदूषित पानी" के बजाय "परमाणु उपचारित पानी" शब्द का उपयोग किया गया है, लेकिन अंतरराष्ट्रीय समुदाय के बहुत कम विरोध का हवाला किया गया है। ब्रिटिश ब्रॉडकास्टिंग कॉरपोरेशन (बीबीसी) के एक लेख में लगभग पूरी तरह जापानी और आईएईए भाषा को उद्धृत किया गया है। लेख में डाले गए वीडियो में रिपोर्टर ने मछली खाने का "प्रदर्शन" भी किया, और कहा कि फुकुशिमा के पास मिली गई मछलियां "बहुत सुरक्षित" थीं और चिंता की कोई बात नहीं थी।

कई अध्ययनों से पता चला है कि फुकुशिमा परमाणु दूषित पानी में 60 से अधिक प्रकार के रेडियोन्यूक्लाइड हैं। जापानी पक्ष ने यह भी स्वीकार किया कि एएलपीएस तकनीक से उपचारित लगभग 70प्रतिशत परमाणु-दूषित पानी निर्वहन मानकों को पूरा नहीं करता है। जर्मन इंस्टीट्यूट ऑफ मरीन साइंस के एक अध्ययन के अनुसार, चूंकि फुकुशिमा के तट पर दुनिया की सबसे मजबूत समुद्री धाराएं हैं, इसलिए निर्वहन के 57 दिनों के भीतर, रेडियोधर्मी सामग्री अधिकांश प्रशांत महासागर में फैल जाएगी। 30 वर्षों या उससे अधिक समय से, इन रेडियोन्यूक्लाइड्स को लगातार समुद्र में छोड़ा जाता रहेगा, जो न केवल समुद्री पारिस्थितिक पर्यावरण को नुकसान पहुंचाएगा, बल्कि मानव जीवन और स्वास्थ्य को भी खतरे में डालेगा।

ऐसा होने पर, कुछ पश्चिमी देश जापान के परमाणु-दूषित पानी के बारे में इतने "निश्चिंत" क्यों हैं? इसका कारण उनके अपने "काले इतिहास" और रणनीतिक स्वार्थ से जुड़ा है। यह आश्चर्य की बात नहीं है कि उन्होंने इस तरह प्रतिक्रिया दी।

उदाहरण के तौर पर अमेरिका को लें। लॉस एंजिल्स टाइम्स की एक रिपोर्ट के अनुसार, 1940 और 1950 के दशक में, अमेरिका ने मार्शल द्वीप समूह में 67 परमाणु परीक्षण किए, जिससे स्थानीय लोगों पर गंभीर आपदाएं आईं। इसके अलावा, अमेरिका ने नेवादा परमाणु परीक्षण स्थल से सीधे मार्शल द्वीपों पर 130 टन से अधिक परमाणु-दूषित मिट्टी डाली। आज तक, अमेरिका ने अपने द्वारा किए गए अपराधों को कम आंकते हुए उसके मुआवजे को बहुत कम कर दिया है, जिससे दुनिया भर में सार्वजनिक आक्रोश पैदा हुआ है। यह समझना मुश्किल नहीं है कि अमेरिका जापान के समुद्र में परमाणु-दूषित जल डालने की योजना को क्यों नजरअंदाज कर रहा है, क्योंकि वह खुद समुद्री परमाणु प्रदूषण पैदा करने के "आरंभकर्ताओं" में से एक है।

इसके अलावा, अमेरिका परमाणु सुरक्षा को हितों के आदान-प्रदान में सौदेबाजी की चिप के रूप में भी मानता है। अध्ययनों से पता चला है कि द्वितीय विश्व युद्ध की समाप्ति के बाद, जापान-अमेरिका गठबंधन में परमाणु ने एक विशेष भूमिका निभाई है। एक तरफ, यह अमेरिका के लिए जापान पर जीत हासिल करने का उपकरण था। दूसरी तरफ, यह जापान के लिए अमेरिका से जुड़ने और उस पर भरोसा करने का एक महत्वपूर्ण उपकरण था। फुकुशिमा दाइची परमाणु ऊर्जा संयंत्र 1960 के दशक में अमेरिकी नागरिक परमाणु प्रौद्योगिकी का उपयोग करने वाली जापान की पहली परियोजना थी।

2011 में फुकुशिमा परमाणु दुर्घटना होने के बाद, जापान और अमेरिका परमाणु दुर्घटनाओं से संयुक्त रूप से निपटने और आपदा के बाद पुनर्निर्माण पर एक सहयोग समझौते पर पहुंचे। दोनों पक्षों ने इस परमाणु दुर्घटना को एक "अवसर" के रूप में लिया और गठबंधन संबंधों को मजबूती से बढ़ावा देने का अवसर लिया। उन्हें इसकी परवाह नहीं है कि दूसरे देश जापान के प्रदूषण कार्यक्रम के लिए कितना भुगतान करेंगे।

प्रशांत महासागर मानव जाति की साझी मातृभूमि है, न कि कुछ देशों के लिए परमाणु परीक्षण स्थल या भू-राजनीतिक खेलों में सौदेबाजी का साधन। जापान सरकार को सभी पक्षों की उचित अपील पर ध्यान देना चाहिए और परमाणु दूषित पानी को समुद्र में छोड़ने की योजना को तुरंत रोकना चाहिए। जो पश्चिमी देश चुप रहते हैं, वे इस योजना में भागीदार न बनें।

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