एशिया की सदी के लिए महाद्वीप की विविधता का सम्मान जरूरी

2022-08-30 19:26:25

दो हफ्ते के भीतर भारत ने जिस तरह एशिया की सदी और उसमें भारत और चीन की भूमिका का जिक्र किया है, उससे अंदाजा लगाया जा सकता है कि भारत की नजर में चीन की क्या अहमियत है। बैंकाक में दो हफ्ते पहले भारतीय विदेश मंत्री एस जयशंकर ने कहा था कि इक्कीसवीं सदी एशिया की तभी हो सकती है, जब भारत और चीन एक साथ विकास की राजनीति पर आगे बढ़ने की कोशिश करें। नई दिल्ली में एशिया सोसायटी पॉलिसी इंस्टीट्यूट के एक कार्यक्रम में भारतीय विदेश मंत्री एस जयशंकर ने एक बार फिर अपनी वही बात दोहराई है। उन्होंने कहा, “ जब हम उभरते हुए एशिया की बात करते हैं, तो एशियाई शताब्दी शब्द स्वाभाविक रूप से दिमाग में आता है। समझदार लोगों के लिए, यह एशिया के लिए अधिक महत्व का प्रतीक है। इसके लिए हर तरह से इस महाद्वीप के अंतर्विरोधों के प्रभावी प्रबंधन की आवश्यकता है। ऐसा कहा जाता है कि एशियाई सदी के लिए भारत और चीन का एक साथ आना पहली शर्त है। अगर ऐसा नहीं होगा तो एशियायी सदी की अवधारणा कमजोर होगी।”

ऐसे में यह सवाल उठना लाजिमी है कि आज एशिया के भीतर देशों के बीच अंतरविरोधों का वैचारिक आधार क्या है? क्या इन अंतर्विरोधों के साथ एशिया की सदी बन सकती है। अपने व्याख्यान में भारतीय विदेश मंत्री ने इसे एशियायी विविधता का ही उदाहरण बताया है। उन्होंने कहा कि अंतरविरोधों का बढ़ना साफ तौर पर एशियायी विविधता की अवधारणा को पुष्ट करता है। चूंकि एशिया के अलग-अलग क्षेत्रों की अपनी विशिष्ट संस्कृतियां हैं और वे अपने-अपने यहां की महत्वपूर्ण शक्तियां हैं। इसी लिए यह बहु-ध्रुवीयता नजर आती है। भारतीय विदेश मंत्री ने इस बहुविविधता को स्वीकार करने के लिए अंतरराष्ट्रीय समुदाय से आह्वान भी किया। उनका कहना है कि एशिया के समग्र महत्व को ध्यान में रखते हुए इसे स्वीकार करना पड़ेगा। उन्होंने बहु-ध्रुवीय विश्व के साथ बहु ध्रुवीय एशिया के साथ एशियाई शताब्दी के लिए जरूरी बताया। 

दुनिया के विकास के विविधता को स्वीकार करना ही होगा। विविधता की स्वीकार्यता ही वैश्विक शांति की गारंटी है। जयशंकर ने अपने व्याख्यान में इसे भी स्वीकार किया। उन्होंने कहा, “समय-समय पर एशियाइयों के लिए एशिया की भी चर्चा होती है। इस तरह की सोच का राष्ट्रीय हित के दृष्टिकोण के साथ ही उसके निहितार्थ दोनों का सावधानीपूर्वक विश्लेषण की आवश्यकता है। वैसे आपसी संबंध तभी काम करता है जब देशों को एक एक दूसरे के नजरिए और इरादे को लेकर विश्वास होता है।”

भारत के इस रूख से जाहिर है कि वह अपने पड़ोसियों से शांति चाहता है और आर्थिक विकास के लिए उसे यह शांति जरूरी भी लगती है। भारत और चीन के बीच जारी कुछ मुद्दों पर अंतरविरोधों के बावजूद भारत के इस विचार की अहमियत को अंतरराष्ट्रीय परिप्रेक्ष्य में देखा और परखा जाना चाहिए। एशिया की सदी के साथ ही वैश्विक शांति ऐसे ही विचारों की बुनियाद पर आगे बढ़ सकते हैं। भारतीय विदेश मंत्री की यह पहल वैश्विक राजनीति को शांति की बुनियाद पर आगे बढ़ाने की ही कोशिश मानी जा सकती है। 

(उमेश चतुर्वेदी)

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