स्वस्थ और स्वच्छ पर्यावरण के लिए मध्य मार्ग जरूरी

2022-08-03 20:13:27

मानवाधिकार के इतिहास में 29 जुलाई 2022 की तारीख नया सवेरा बनकर आई है। करीब पांच दशक के प्रयासों के बाद इसी दिन संयुक्त राष्ट्र संघ की महासभा ने दुनियाभर के लोगों के लिए स्वच्छ, स्वस्थ और सतत पर्यावरण को मानवाधिकार के रूप में मान्यता दी। इससे इनकार नहीं किया जा सकता कि मानवता के लिए स्वच्छ, स्वस्थ और टिकाई पर्यावरण बहुत जरूरी है। लेकिन संयुक्त राष्ट्रसंघ की इस घोषणा के  बाद दादागिरी दिखाते रहे पश्चिमी देशों की ओर से विशेषकर आर्थिक विकास के पायदान पर तेजी से चल रहे देशों पर दबाव बढ़ना शुरू हो जाएगा।

स्वस्थ और स्वच्छ पर्यावरण को मानवाधिकार के रूप में शामिल किए जाने की मांग 1972 में स्टाकहोम में हुए सम्मेलन में की गई। उस सम्मेलन में स्वीकार किया गया कि मानवता के लिए वायु, जल और समुद्र में पर्यावरण को स्वच्छ रखने की चर्चा शुरू हुई। तब विकासशील देशों की स्थिति कार्बन उत्सर्जन के मामले में खराब इसलिए नहीं थी, क्योंकि वे अभी नई आर्थिक नीतियों के मुताबिक आगे बढ़ने की कोशिश कर रहे थे। जबकि अमेरिका और यूरोप के देशों में औद्योगिक क्रांति अपना एक चक्र पूरा कर चुकी थी। ये देश अपने नागरिकों की भौतिक सुविधाएं उपलब्ध कराने में आगे थे और इसके लिए उन्हें औद्योगिक उत्पादन पर जोर देना ही था। और हकीकत यही है कि उनकी ही वजह से वायुमंडल में कार्बन उत्सर्जन बढ़ा, समुद्र में कचरा बढ़ा और पर्वतीय क्षेत्र तक भी प्रदूषण की चपेटे में आने लगे। इसके पहले तो विकासशील देशों के साथ पश्चिमी देश इस मुद्दे पर बात तक करना जरूरी नहीं समझते थे।

लेकिन वक्त बदला। पहले चीन और फिर भारत ने अपने यहां आर्थिक प्रक्रिया को तेज करने और सुविधाओं से महफूज बड़ी जनसंख्या का जीवन स्तर ऊंचा करने की दिशा में आगे बढ़े। इसके लिए उन्हें ऊर्जा उत्पादन बढ़ाने के साथ ही अपना औद्योगिक उत्पादन भी बढ़ाना जरूरी था। जाहिर है कि इस वजह से उनका कार्बन उत्सर्जन बढ़ता। शायद यही वजह है कि कार्बन उत्सर्जक देशों की सूची में चीन पहले नंबर पर है, जबकि दूसरे नंबर पर अब भी अमेरिका है। इस सूची में भारत तीसरे नंबर पर है।

संयुक्त राष्ट्र संघ की ओर से मानवाधिकार घोषित होने के बाद अब पश्चिमी देश दबाव बनाने की कोशिश करेंगे कि चीन और भारत अपना कार्बन उत्सर्जन कम करें। भारतीय प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी पहले ही कह चुके हैं कि पर्यावरण रक्षा की जिम्मेदारी से कोई हटना नहीं चाहेगा, लेकिन भारत के सामने सबसे बड़ी चुनौती अपनी जनसंख्या के बड़े हिस्से को रोजगार मुहैया कराना और उन्हें बेहतर जीवन स्तर दिलाना है। चीन की भी  ऐसी ही चिंता है। इसलिए  दोनों देशों को कोई न कोई बीच का रास्ता अख्तियार करना होगा। ताकि पर्यावरण की रक्षा भी कर सकें। इस दिशा में भारत ने कई कदम पहले से ही उठा रखे हैं। उसने अपने यहां रिन्यूबल ऊर्जा पर फोकस बढ़ाया है। नरेंद्र मोदी के सत्ता संभालते ही नहरों, रेलवे की खाली पड़ी जमीनों, बंजर जमीनों पर जहां सौर ऊर्जा के  उत्पादक केंद्रों के तौर पर बढ़ावा दिया जा रहा है, वहीं उन समुद्र तटीय इलाकों में पवन ऊर्जा की संभावनाएं तलाशी जा रही हैं, जहां सालोंभर तेज हवाएं चलती हैं। इस दिशा में काम भी शुरू हो गया है। कई शहरों  में कचरे से बिजली बनाने की भी बातें हो रही हैं। इसी तरह भारत में बिजली चालित वाहनों की संख्या को बढ़ाने को लेकर नीति बनी है। भारत की कोशिश साल 2025 तक सड़कों पर चलने वाले आधे वाहन बिजली से चलने वाले उतारने की तैयारी है। जैविक पेट्रोल की बजाय जटरोफा और गन्ना-मक्का से बनने वाले एथिलीन का उत्पादन बढ़ाया जा रहा है। पेट्रोल में इसकी दस फीसद मिलावट भी की जा रही है। ताकि कार्बन उत्सर्जन घटाया जा सके। वन क्षेत्र बढ़ाने, जल संरक्षण की दिशा में तालाब क्रांति लाने और हर घर तक नल के जरिए जल पहुंचाने की दिशा में भी काम तेजी से चल रहा है। भारत में कार्बन उत्सर्जन की सबसे बड़ा स्रोत ताप बिजली उत्पादन है। इसका उत्पादन घटाने और सौर ऊर्जा, पवन ऊर्जा के साथ ही परमाणु ऊर्जा के जरिए बिजली बनाने की दिशा में तेजी से काम हो रहा है। भारत में वन  क्षेत्र भी बढ़ाने की दिशा में सरकारें अपने तरीके से लगी हैं। इसी तरह चीन में भी कोशिशें जारी हैं।

स्वच्छ, स्वस्थ और टिकाऊ पर्यावरण की महत्ता को स्वीकार करते हुए भारत और चीन दोनों ही देशों को अपनी ऊर्जा  के लिए रिन्यूबल स्रोत बढ़ाना जरूरी है। ताकि औद्योगिक उत्पादन प्रभावित ना हो, लोगों को रोजगार मिलता रहे और चुनौतियों का सामना भी किया जा सके।

उमेश चतुर्वेदी

वरिष्ठ भारतीय पत्रकार

रेडियो प्रोग्राम